Tuesday, 23 February 2016

हमेशा धारा से अलग चला है जेएनयू @विनोद अग्निहोत्री

बात उन दिनों की है जब पंजाब अलगाववादी खालिस्तान आंदोलन की आंच में झुलस रहा था। स्वर्ण मंदिर में छिपे जरनैल सिंह भिंडरावाले और दूसरे आतंकवादियों के खिलाफ सेना का ऑपरेशन ब्लू स्टार हो चुका था और उसकी हिंसक परिणति इंदिरा गांधी की हत्या और सिख विरोधी दंगों के रूप में देश के सामने आ चुकी थी। सारे प्रमुख अकाली नेताओं को जेल भेजा जा चुका था। राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और अर्जुन सिंह पंजाब के राज्यपाल। हम जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जो समाजवादी विचारधारा के छात्र संगठन समता युवजन सभा से जुड़े थे, दिल्ली से अमृतसर तक की पदयात्रा निकाल कर आतंकवाद सांप्रदायिकता और अलगाववाद के खिलाफ अलख जगा रहे थे।

कांग्रेस उन दिनों वही कर रही थी जो भाजपा अब कर रही है, यानी देश की एकता अखंडता की पूरी जिम्मेदारी उसकी है और जो उसका विरोध करे वह देश की अखंडता के खिलाफ है। उन्हीं दिनों समाजवादी विचारधारा वाले छात्र संगठन समता युवजन सभा की जेएनयू इकाई ने जेल से तत्काली रिहा हुए शीर्ष अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल की जनसभा विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित की। इसे लेकर विश्वविद्यालय में विवाद छिड़ गया। कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई की जेएनयू इकाई ने जनसभा के विरोध में परिसर में पोस्टर और प्रचार अभियान छेड़ दिया। जिनमें लोंगोवाल को बुलाने का मतलब देश की अखंडता से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया गया। लेकिन तब भी आयोजक छात्रों को राष्ट्रविरोधी नहीं कहा गया और न ही किसी के खिलाफ पुलिस कार्रवाई हुई। लोंगोवाल आए और जनसभा जबर्दस्त तरीके से सफल हुई।

दिलचस्प बात यह है कि तब जेएनयू की एबीवीपी इकाई जो नाम मात्र की थी, ने जनसभा का समर्थन किया और एनएसयूआई के सिवा शेष सभी छात्र संगठनों एसएफआई, एआईएसएफ, पीएसओ, फ्री थिंकर्स ने लोंगोवाल की जनसभा में शामिल होकर उसे कामयाब बनाया। आज कमोबेश वही स्थिति फिर है जहां एबीवीपी के सिवा सभी छात्र संगठन एक साथ खड़े हैं।

इस घटना का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया कि जेएनयू में वाद विवाद मत विभिन्नता और असहमति की लंबी और पुरानी परंपरा है। जेएनयू केबाहर रहने वाले लोग इसे लेकर कई तरह केभ्रम पाले रहते हैं। जिनमें स्वेच्छाचारिता का अड्ड़ा, यौन स्वच्छंदता, मादक पदार्थों केसेवन की बहुतायत, अराजक विचारधारा और अराजक जीवन शैली. नक्सली बनाने की फैक्ट्री जैसे कई आरोप शामिल रहे हैं। इसके बावजूद देश के इस शीर्ष विश्वविद्यालय पर देशद्रोह को पनपाने केआरोप कभी नहीं लगे। हालाकि जेएनयू में आने केबाद जो तस्वीर मिलती है वह बाहरी धारणा से एकदम अलग होती है। एक खुला मुक्त वातावरण। जहां देश के हर हिस्से हर वर्ग और सामाजिक वर्ग के छात्र छात्राएं एकदूसरे से इस कदर घुल मिल जाते हैं मानों वर्षों से एक दूसरे को जानते हों। न जाति की दीवार, न धर्म की न भाषा की न क्षेत्र की उनके बीच आती है। शिक्षकों और छात्रों के बीच न सिर्फ गुरु शिष्य बल्कि साथी जैसे रिश्ते बनते हैं जो आजीवन चलते हैं।

सिर्फ शहरी ही नहीं बल्कि दूर दराज गांवों से आए छात्र छात्राओं के बीच ऐसे सहज सामान्य रिश्ते बनते हैं जो न सिर्फ यौन कुंठाओं को खत्म करते हैं बल्कि नर नारी समानता के विचार को व्यवहारिक भी बनाते हैं। विचारों की आज़ादी, तर्क करने की स्वतंत्रता और देश, समाज और दुनिया भर की समस्याओं की चिंता, अंतर्विरोधों पर बहस, इतिहास और समाज की तमाम तरह की व्याख्याओं के बीच अपनी समझ विकसित करने का मौका जो जेएनयू में मिलता है, वह देश के अन्य विश्वविद्यालयों में कितना मिलता है, कह नहीं सकता।

जहां तक जेएनयू से निकलने वाले छात्रों की वैचारिक निष्ठा और देशभक्ति का प्रश्न है तो यह जानना भी जरूरी है कि परस्पर वैचारिक अंतर्विरोधों के बावजूद इस विश्वविद्यालय केछात्र किसी भी दौर में देश में होने वाले किसी भी सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन में सक्रिय भागीदार रहे हैं।

हिंदी में सबसे पहले शोध निबंध लिखने की अलख जेएनयू में ही जगाई गई। 1971 के भारत पाक युद्ध के दौरान यहां के छात्रों ने सैनिकों के लिए रक्तदान किया। 1974-75 के जयप्रकाश आंदोलन के दौर में जिन जवाहर लाल नेहरू के नाम पर यह विश्वविद्यालय है, उनकी बेटी इंदिरा गांधी के खिलाफ जेएनयू के छात्र सड़कों पर उतरे। जेल गए। देश की राजनीति की हर धारा में उस दौर के छात्र नेता आज मुख्य भूमिका में नजर आते हैं। नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के सिख विरोधी दंगों में जब दिल्ली या तो दुबकी हुई थी, या उनमें शामिल थी, तब सबसे पहले जेएनयू के छात्र बाहर निकले और उन्होंने अपने आसपास के इलाकों में सिखों की सुरक्षा की। शांति मार्च निकाले और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) के युवा डाक्टरों के साथ मिलकर दंगा पीडि़त परिवारों के लिए चिकित्सा और राहत सामग्री लेकर जेएनयू के छात्र और शिक्षक ही विश्वविद्यालय की बसों में बैठकर दिल्ली केउन इलाकों में गए जो दंगों की आग में झुलस रहे थे। यही नहीं दंगों के लिए कथित रूप से दोषी बताए जाने वाले कांग्रेस के बड़े नेताओं और राजीव गांधी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने वाले जेएनयू के ही छात्र थे। तब आज देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाले और आगे चलकर सिख विरोधी हिंसा पर सियासी रोटियां सेंकने वाले घरों में बैठे थे। इसके अगले ही महीने जब दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो सबसे पहले जेएनयू के ही छात्र उसके खिलाफ सड़कों पर उतरे। कई छात्र भोपाल गए। गैस पीडि़तों की मदद केसाथ उनकी आवाज को दिल्ली के दरबार तक पहुंचाने का जरिया बने।

जम्मू कश्मीर में राजीव गांधी ने फारुख अब्दुल्ली की सरकार को बर्खास्त करके उनके बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह को मुख्यमंत्री बनाया तो जेएनयू के छात्रों ने फारुख को बुलाया और उनकी बात सुनी। श्रीलंका में जब तमिल गुटों के बीच हिंसक झड़पें हो रही थीं और लिट्टे दूसरे गुटों के सफाए में जुटा था तब जेएनयू के छात्रों ने फोटो प्रदर्शनी और वहां से बचकर आए तमिल नेताओं की सभाएं कराकर उसे सबके सामने लाने का काम किया। जाफना में तमिल जनता पर श्रीलंकाई फौज के दमन के खिलाफ जेएनयू के ही छात्र सड़क पर उतरे। प्राकृतिक संसाधनों की लूट से लेकर आदिवासियों पर जुल्म केखिलाफ जेएनयू से ही आवाज उठती रही है। बहुत कुछ है गिनाने के लिए। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद से लेकर देश के भीतर सामंतवादी अत्याचार, राजनीति केअपराधीकरण, विचारहीनता और पूंजीवादी शोषण से लेकर बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों की मनमानी का पर्दाफाश करने में जेएनयू के बौद्धिक जगत की अहम भूमिका है। इसके बावजूद अगर जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों की देशभक्ति को संदेहास्पद बनाकर उसे बंद करने की मुहिम इस देश के विरुद्ध एक बड़ी साजिश ही मानी जाएगी। जिसे राष्ट्रवाद की चाशनी में परोसकर पूरे वातावरण को जेएनयू के खिलाफ बनाने की कोशिश की जा रही है। जेएनयू से पढ़कर निकलने वाले छात्र वामपंथी, समाजवादी, गांधीवादी, उन्मुक्त चिंतक, अराजकतावादी और अब हिंदुत्ववादी तो हो सकते हैं, लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकते। जेएनयू की वैचारिक खाद पानी में देशद्रोह का बीज है ही नहीं। जेएनयू से निकले छात्र देश और दुनिया के तमाम क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। मौजूदा केंद्र सरकार में भी केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण से लेकर अनेक अधिकारी जेएनयू केही पूर्व छात्र हैं।

जेएनयू या किसी भी विश्वविद्यालय में भारत विरोधी नारेबाजी या कोई अन्य गतिविधि की जानकारी होते ही उसके खिलाफ तत्काली कानूनी कार्रवाई से किसे इनकार है। लेकिन अभी तक वह कथित छात्र नहीं पकड़े जा सके जिन्होंने भारत विरोधी नारेबाजी की। उन्हें पकडऩे की बजाय छात्रसंघ अध्यक्ष को आनन फानन में गिरफ्तार करके पुलिस अब उसके खिलाफ देशद्रोह के सबूत तलाश रही है। सरकार यह सब मौन होकर देख रही है। आखिर किस और किसके एजेंडे के तहत यह सब हो रहा है, यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब तलाशना होगा।

Tuesday, 16 February 2016

बांग्लादेश के बाद कैसे भारतीय सेना ने सियाचिन में पाकिस्तान का ग़ुरूर तोड़ा? @मुकेश कुमार सिंह

क़ुदरत ने सियाचिन को इंसानों के रहने के लिए नहीं बनाया. हालाँकि सियाचिन के बर्फ़ में जो अपार जल और जैविक सम्पदा है उसका सबसे बड़ा सुख इंसानों के लिए ही है. सदियों तक इस तथ्य का सम्मान हुआ. मुल्क के बँटवारे के वक़्त भी सियाचिन पर सीमा की काल्पनिक लक़ीर नहीं खींची गयी. 1949 के कराची समझौते और 1972 के शिमला समझौते में भी इसका लिहाज़ रहा. लेकिन बांग्लादेश युद्ध में मिली ऐतिहासिक और शर्मनाक हार के बाद पाकिस्तानी सेना ने सभी उसूलों से तौबा कर लिया. सियाचिन को लेकर सदियों से चली आ रही सोच तार-तार हो गयी.
पाकिस्तान के जन्म के वक़्त से ही उसके हुक़्मरानों में ये बीमारी घर कर गयी कि किसी भी तरह से भारत को नीचा दिखाया जाए. हर बार मुँह की ख़ाने से पाकिस्तान और ढीठ होता गया. नीयतख़ोर पाकिस्तान का क़ुदरत और क़िस्मत दोनों ने कभी साथ नहीं दिया. फिर भी वो हमेशा नयी ख़ुराफ़ात में ही लगा रहा. इसी फ़ितरत की वजह से 1975 में पाकिस्तान ने गुपचुप तरीक़े से सियाचिन में पर्वतारोहण की गतिविधियाँ शुरू की. उसकी मंशा थी कि पर्वतारोहण की बदौलत वो सियाचिन को अपने कब्ज़े वाला इलाक़ा बताने लगेगा. विदेशियों को आकर्षित करने के लिए पाकिस्तान ने सियाचिन से जुड़े लेख पर्वतारोहण सम्बन्धी पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाये.
1978 में ऐसे ही एक लेख पर भारतीय सेना के कर्नल नरेन्द्र कुमार उर्फ़ ‘Bull’ की नज़र पड़ी. अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ पर्वतारोही कर्नल नरेन्द्र उस वक़्त जम्मू-कश्मीर में गुलमर्ग स्थित High Altitude Warfare School के कमांडर थे. उन्होंने एक अमरीकी प्रकाशन में सियाचिन को पाकिस्तान की सीमा में देखा. 1981 में कर्नल नरेन्द्र ने सियाचिन के मुहाने तक गयी नियंत्रण रेखा के आख़िरी छोर NJ9842 से आगे की सरहद तय करने के लिए पर्वतारोही अभियान शुरू किया.
कर्नल नरेंद्र कुमार
कर्नल नरेंद्र कुमार
इसमें उन्होंने पाया कि शिमला समझौते की अनदेखी करके पाकिस्तान सियाचिन में अवैध रूप से पर्वतारोही गतिविधियाँ चला रहा है. लेकिन अभियान के दौरान उन्होंने सियाचिन के सुदूर छोर पर भारतीय तिरंगा फ़हराकर नियंत्रण रेखा की सरहद तय कर दी. कर्नल नरेन्द्र कूड़ा रूपी उन पुख़्ता सबूतों के साथ अभियान से लौटे, जो विदेशी पर्वतारोहियों ने वहाँ फेंके थे.
1933 में रावलपिंडी में जन्मे कर्नल नरेन्द्र का परिवार विभाजन के बाद भारत आ गया. सेना में वो कुमायूँ रेज़ीमेंट की शान बने. पर्वतारोहण का उन्हें प्रचंड शौक़ था. इसी ने 1961 में उनके दोनों पैरों के अँगूठे छीन लिये. इसके बावजूद 20 बार कर्नल नरेन्द्र ने 8000 मीटर से ऊँची चोटियों को फ़तह किया. इस ऊँचाई को Death Zone कहा जाता है. उन्होंने एवरेस्ट (1965), नन्दादेवी (1964) और कंचनजंगा (1976) की दुर्गम चोटियों के अलावा पीर पंजाल, ज़ंसकार, लद्दाख, सालटोरो, कोराकोरम, हिमालय और अगिल जैसे सात ग्लेशियर रेंज को भी फ़तह किया. भारत को सियाचिन के रूप में श्वेत मुकुट देने का श्रेय कर्नल नरेन्द्र को ही है. इन्हीं उपलब्धियों की वजह से पर्वतारोही बिरादरी ने उन्हें ‘Bull’ उपनाम दिया.
1981 वाले कर्नल नरेन्द्र के सियाचिन अभियान की बदौलत भारतीय सेना बहुत चौकन्नी हो चुकी थी. तब सियाचिन की दुर्दान्त चोटियों पर पैनी नज़र रखने की रणनीति बनी. 1984 में सेना को लन्दन से ख़ुफ़िया जानकारी मिली कि पाकिस्तान ने अत्यधिक ऊँचाई वाली जगहों पर तैनात होने के लिए ज़रूरी पोशाकों और साज़ों-सामान का भारी आर्डर दिया है. ये आर्डर उसी कम्पनी को दिये गये जिससे भारत ऐसे सामान की ख़रीदारी करता था. इससे पहले पाकिस्तान को सियाचिन से भारतीय ब्रांड के सिगरेट के कुछ ख़ाली पैकेट मिले थे. इससे उसे लगा कि भारतीय लोग सियाचिन में आना-जाना कर रहे हैं.
1984 में ख़ुफ़िया तंत्र से भारत को पाकिस्तान की मंशा की भनक लग चुकी थी. लिहाज़ा, कर्नल नरेन्द्र के नेतृत्व में ऑपरेशन मेघदूत की तैयारी हुई. सेना की विशेष टुकड़ियों का सघन प्रशिक्षण तेज़ हुआ. लेकिन विशेष पोशाकों की कमी तो भारत में भी थी. इसीलिए 13 अप्रैल को ज़रूरी पोशाकों के भारत पहुँचने के अगले दिन ही कर्नल नरेन्द्र और उनके साथी सियाचिन की उन चोटियों पर जा जमे, जो सामरिक दृष्टि से बेहद अहम थीं.
इस तरह कर्नल नरेन्द्र ने ख़ून की एक बूँद बहाये बगैर सियाचिन के दो-तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. कुछ दिनों बाद जब पाकिस्तानी सेना वहाँ पहुँची तो उसने पाया कि सारी प्रमुख चोटियों पर भारतीय सेना क़ाबिज़ है. ये पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर पानी फेरने और उसका ग़ुरूर तोड़ने के लिए काफ़ी था.
सियाचिन में दोनों सेनाओं के बीच कई झड़पें हुई हैं. पाकिस्तान को हमेशा मुँह-तोड़ जवाब मिला है. क्योंकि भारतीय सीमा चौकियों का स्थान, सैनिकों की क्षमता और प्रशिक्षण का स्तर हमेशा पाकिस्तानियों के मुक़ाबले बहुत बेहतर रहा है. भारतीय सेना की ऐसी श्रेष्ठता के पीछे कर्नल नरेन्द्र की बहुत बड़ी भूमिका रही है. यही वजह है कि उनके जैसा सम्मान सेना में कभी किसी और को नहीं मिला. कर्नल होने के बावज़ूद सेना ने उन्होंने जनरल की हैसियत दी. उन्हें तीनों सेनाओं के सर्वोच्च सम्मान मैकग्रेगर पदक (MacGregor Medal) से भी नवाज़ा गया. जनरलों को मिलने वाला सर्वोच्च सम्मान परम विशिष्ट सेवा पदक (PVSM) और युद्धकाल का सर्वोच्च सम्मान अति विशिष्ट सेना पदक (AVSM) पाने वाले अपने रैंक के वो इकलौते सैनिक हैं.
कर्नल नरेन्द्र के सीने पर चमचमाते कीर्ति चक्र और पदमश्री भी उनकी शोभा बढ़ाते हैं. लेकिन मज़े की बात ये भी है कि कर्नल नरेन्द्र की ये सारी उपलब्धियाँ उस दौर के बाद की हैं जब 1961 में पैर के अँगूठों को गँवाने की वजह से उन्हें अपाहिज़ माना गया था. इसके बाद फ़ौज में बने रहने के लिए कर्नल नरेन्द्र को उस ‘Non-Liability Form’ पर दस्तख़त करने पड़े जिसका मतलब था कि यदि उन्हें कुछ हो गया तो उनकी पत्नी क्षतिपूर्ति की हक़दार नहीं होंगी. हालाँकि, ग्लेशियरों को चुनौती देने के अपने शौक़ की वजह से देश के इस वीर सैनिक को आगे चलकर अपने पैर की बाक़ी अँगुलियों से भी हाथ धोना पड़ा.
सभी ग्लेशियरों की तरह सियाचिन का भी सबसे बड़ा दुश्मन वहाँ का बेरहम मौसम ही है. वहाँ मुख्य रूप से मौसम ने ही सैनिकों को शहीद बनाया है. भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को क़रीब दोगुने सैनिकों को सियाचिन में गँवाना पड़ा है. इसी ज़मीनी सच्चाई को देखते हुए 1988 में पाकिस्तान ने सियाचिन को हथियाने के लिए नया पैंतरा तैयार किया. उसने सियाचिन के विसैन्यीकरण (Demilitarization) की पेशकश की. दलील दी गयी कि सियाचिन जैसे दुर्दान्त इलाके से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता. लिहाज़ा, दोनों देशों के ग़रीबों की तरक़्क़ी की क़ीमत पर सियाचिन में सेनाएँ रखने का भारी ख़र्च उठाना कोई समझदारी नहीं है.
1989 में भारत, सियाचिन को शान्ति क्षेत्र में तब्दील करने पर राज़ी भी हो गया. बशर्ते पाकिस्तान ये लिखकर दे कि वो सेना की मौजूदा स्थिति को ही नियंत्रण रेखा मानेगा. पाकिस्तान राज़ी नहीं हुआ. क्योंकि भीतरख़ाने उसकी बदनीयत ये है कि एक बार सियाचिन से भारतीय सेना हट जाएँ तो फिर वो मौक़ा देखकर ऊँची चोटियों पर कब्ज़ा कर लेगा. यदि एक बार ऐसा हो गया तो भारतीय सेना के लिए फिर से वहाँ क़ाबिज़ होना लगभग असम्भव होगा. यही वजह है कि सियाचिन को शान्ति क्षेत्र बनाने की कोशिशें नाक़ाम रही हैं. अलबत्ता, इसका एक ख़ुशगवार नतीज़ा ये ज़रूर रहा कि 2003 से सियाचिन में युद्ध-विराम लागू है.
युद्ध-विराम की वजह से अभी सियाचिन में सैनिकों पर गोलीबारी का क़हर तो बरपा नहीं होता, लेकिन वहाँ का ज़ालिम मौसम तो हमेशा अपने तेवर दिखाता रहता है. मौसम को हर क़ीमत पर मातृभूमि की रक्षा करने वाले जाँबाज़ों से कोई हमदर्दी नहीं रहती. इसीलिए लॉन्स नायक हनुमनथप्पा भी उन रणबाँकुरों में शामिल हो गये, जिन्हें कृतज्ञ राष्ट्र कभी नहीं भूलेगा. हनुमनथप्पा को गर्वोक्तिपूर्ण श्रद्धांजलि! उनके जुझारूपन ने सियाचिन के गौरवशाली इतिहास में एक और सुनहरा पन्ना जोड़ दिया. इससे पहले, सियाचिन की गौरवगाथा में नायब सुबेदार बाना सिंह ने 26 जून 1987 को बेजोड़ उपलब्धि हासिल की.
Bana_Singh_PVC
बाना सिंह ने ऑपरेशन राजीव के तहत पाकिस्तान के कब्ज़े से क़ायदे-आज़म जिन्ना के नाम पर बनी उस बेहद महत्वपूर्ण क़ायद चौकी को छीना था, जो 21,000 फ़ीट (6500 मीटर) की ऊँचाई वाली सियाचिन की सबसे ऊँची चोटी है. ये उपलब्धि इतनी शानदार थी कि बाना सिंह को सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से नवाज़ा गया. क़ायद चौकी से पाकिस्तान के कब्ज़े वाले सियाचिन के सालटोरो रेंज़ पर नज़र रखी जा सकती है.
वो पाँच सौ मीटर ऊँची बर्फ़ से चट्टानों से घिरे एक क़िले की तरह थी. 18 अप्रैल 1987 को क़ायद से गोलीबारी ने उस सोनम चौकी पर तैनात दो भारतीय सैनिकों को मार गिराया, जिस क्षेत्र में 3 फरवरी 2016 को लॉन्स नायक हनुमनथप्पा के दस साथियों के साथ जानलेवा हादसा हुआ. तब भारत ने क़ायद को अपने हाथ में लेने का फ़ैसला किया.
29 मई को सेकेंड लेफ़्टिनेंट राजीव पांडेय की टुकड़ी ने नाक़ाम कोशिश की. इसमें दस भारतीय सैनिक शहीद हो गये. फिर महीने भर की तैयारी के बाद उनकी याद में 23 जून को ऑपरेशन राजीव की अगुवाई मेज़र वीरेन्द्र सिंह ने की. वीरेन्द्र भी कई बार विफल हुए. तब 26 जून को बाना सिंह, चुन्नी लाल (अशोक चक्र, वीर चक्र, सेवा मैडल) और उनके तीन साथियों ने क़ायदा तक पहुँचने के लिए बेहद लम्बे और कठिन रास्ते को चुना.
बर्फ़ीले तूफ़ान के बीच बाना सिंह और साथियों ने क़ायदा चौकी पहुँचकर बंकर में हथगोला फेंका. इसमें छह पाकिस्तानी सैनिक मारे गये. कई चोटियों से क़ूदकर भागे. तब से वो चौकी ‘बाना पोस्ट’ के नाम से जानी जाती है. बाना के साथी नायब सुबेदार चुन्नी लाल उस ऑपरेशन के 20 साल बाद 2007 में कुपवाड़ा में आतंकियों से हुई एक मुठभेड़ में शहीद हो गये.

Thursday, 11 February 2016

आख़िर किसके हैं भगत सिंह? @राजीव लोचन

भगत सिंहImage copyrightGetty
भगत सिंह किसके? जब जब भारत देश को किसी तरह के उपदेवता की आवश्यकता हुई है उसने भगत सिंह को खोज निकाला. भगत सिंह में वे सारे गुण थे जो उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त बनाता है.
नौजवान थे, लिखने पढ़ने में माहिर, विचार संप्रेषण में अग्रणी, जवान उम्र में ही शहीद हो गए और वह भी कुछ इस तरह का घटनाचक्र रच कर कि देश में हर किसी के हृदय को झकझोर दिया.
जैसा कि हर हीरो के साथ होता है भगत सिंह को भी लोग तभी याद करते हैं जब समस्याएं बढ़ती नज़र आ रही हों और कोई मददगार न दिखे.
जिस भगत सिंह की जीते-जी राजनैतिक गठबंधनों ने अवहेलना की उसे ही अब सब अपना कहने पर आमादा हैं.
भगत सिंह जब अंग्रेज़ सरकार के हाथ लगे तो अख़बारों ने रिपोर्ट किया कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ़्तार हुआ है. पर भारत के वामपंथी आमतौर पर भगत सिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे.
भगत सिंहImage copyrightRajiv Lochan
आख़िर पार्टी के सदस्य जो नहीं थे. वामपंथियों की तुलना में, कम से कम आज, भारत में, कांग्रेस और भाजपा में होड़ लगी है कि किसी तरह भगत सिंह को अपना लें.
जिहाद के जाल में फँसे पाकिस्तान में भी कुछ लोग भगत सिंह की याद को ताज़ा करने में लगे हैं. आख़िर भगत सिंह की कर्म भूमि भी तो वह ज़मीन थी जो आज पाकिस्तान है.
वैसे कांग्रेस का भगत सिंह के साथ संबंध कुछ उलझाव भरा रहा है. कांग्रेस के नेता भगत सिंह के कार्यकलापों से इतना प्रभावित थे कि जब पहली बार भगत सिंह का नाम 1929 में सार्वजनिक हुआ, जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के मुखपत्र, कांग्रेस बुलेटिन में कोर्ट के समक्ष दी हुई भगत सिंह की संपूर्ण उद्घोषणा ही छाप डाली.
असहयोग आंदोलन के मंद पड़ने के बाद (1920-1922) कांग्रेस किसी बड़ी घटना को अंजाम देने के फ़िराक़ में थी.
समस्या यह थी कि देश में कई लोग यह मानते थे कि आंदोलन में जनता और कांग्रेस की हार हुई.
भगत सिंहImage copyrightALOK PUTUL
साथ ही तेज़ी से फैलते हुए सांप्रदायिक ज़हर ने कांग्रेस को काफ़ी अकर्मण्य बना दिया था. देश के युवा, कांग्रेस से विमुख, क्रांति की लहर की तरफ़ झुकाव दिखाने लगे.
इस माहौल में जब 1928, में कुछ लोग लाहौर में अंग्रेज़ पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या कर के भाग गए तो महात्मा गांधी ने तुरंत अपने लेख में इस कांड की भर्त्सना की और कहा कि इस तरह की हरकत हिंदुस्तानियों को शोभा नहीं देती.
गांधी जी ने लिखा कि इस तरह से मारपीट, ख़ून खराबा करने को वीरतापूर्ण क़रार देना अंग्रेज़ों की परंपरा रही है, भारतीयों की नहीं.
क्रांतिकारियों के लिए सांडर्स की हत्या तो बहरहाल एक अतिरिक्त कार्य था. प्रमुख कार्य तो लोगों को क्रांति के लिए प्रोत्साहित करना था. पिछले तीन सालों से भगत सिंह और साथी इस प्रयास में लगे थे.
भगत सिंह तो वैसे भी विचार संप्रेषण में अपनी महारत दिखा चुके थे. छात्र जीवन में ही उन्हें हिंदी निबंध में पुरस्कार मिल चुका था. पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हो चुके थे.
भगत सिंहImage copyrightSHIRAZ HASAN
काकोरी कांड (1925) के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथियों को यह भी समझ आ गया था कि अगर भारत में बदलाव लाना है तो जनता को साथ ले कर चलना होगा.
क्रांति की भाड़ अकेले क्रांतिकारियों से तो झोंकी नहीं जा सकेगी; उन्हें साधारण लोगों का समर्थन भी किसी तरह से हासिल करना होगा. इस प्रसंग से उन्होंने अपने संगठन के नाम के साथ साफ़ तौर पर ‘सोशलिस्ट’ शब्द डाल दिया.
अब वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे. साथ ही भगत सिंह की अगुआई में क्रांतिकारियों ने लोगों तक पहुँचने के नए तरीक़े इस्तेमाल करने शुरू कर दिए.
भगत सिंह के ज़िम्मे जो काम पड़ा वह था मायादीप (मैजिक लैंटर्न) के ज़रिए लोगों को काकोरी कांड जैसे क्रांतिकारी प्रकरणों के बारे में बताना, ताकि साधारण समाज में भी क्रांति की लहर तेज़ी से फैले.
इसी बीच भगत सिंह को विचार आया कि लोगों को उकसाने के लिए एक नए आख्यान की आवश्यकता थी जो नाटकीय भी हो और उत्तेजक भी.
इसलिए भगत सिंह की सलाह पर क्रांतिकारियों ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में बम विस्फोट का प्रोग्राम बनाया.
भगत सिंह
बम विस्फोट का लोगों पर क्या असर पड़ा यह तो ख़ैर अलग बात है, पर जवाहरलाल नेहरू ज़रूर बहुत प्रभावित हुए.
कोर्ट में भगत सिंह और उनके साथियों ने भारत की दास्तां पर एक बड़ा धाकड़ बयान पेश किया.
साथ ही उन्होंने जेल की व्यवस्था के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया. नेहरू ने अपनी तरफ़ से जून 1929, के कांग्रेस बुलेटिन में असेंबली बम केस पर भगत सिंह के पूरे बयान को छाप दिया.
साथ ही क्रांतिकारियों द्वारा किए जा रहे उपवास के पक्ष में भी नेहरू ने लिख डाला. महात्मा गांधी को बम विस्फोट की इस तरह की प्रशंसा नागवार थी.
उन्होंने तुरंत नेहरू को डाँटते हुए पत्र लिखा (जुलाई 1, 1929). “मेरे प्यारे जवाहरलाल, इस बार का कांग्रेस बुलेटिन पढ़ा.
उस बयान का इस तरह से छापा जाना अनुचित था. वैसे भी वह उनके वक़ील के द्वारा बनाया बयान था ना कि उनकी आत्मा से आने वाली ईमानदार आवाज़.... मुझे तुम्हारे द्वारा उनके अनशन की हिमायत करना भी अच्छा नहीं लगा. मेरे मतानुसार इनका यह अनशन बेकार का है, बात का बतंगड़ बनाने जैसा. तुम ख़ुद ही सोच लो.”
नेहरूImage copyrightAP
पता नहीं नेहरू ने क्या सोचा पर हम इतना ज़रूर देख सकते हैं कि गांधी जी बम धमाके से इतने नाराज़ थे कि जिन लोगों के नाम पर बयान जारी हुआ था उनका नाम तक नहीं ले रहे थे.
इसके बाद, कई सालों तक गांधीजी भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों को गौण और असंगत बताते रहे. स्वतंत्रता के बाद के काल में देश अपनी ही समस्याओं में कुछ इस तरह उलझ गया कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों को भूल ही गया.
बस वे ही याद रहे जिनकी याद सरकार को रही. स्वतंत्रता के उत्साह में देश तेज़ी से प्रगति भी कर रहा था. ऐसे माहौल में भगत सिंह की याद कम ही लोगों को आई.
ऐसे ही समय फ़िल्म डायरेक्टर जगदीश गौतम ने 1954 में भगत सिंह पर फ़िल्म बनाई. चली नहीं. नौ साल बाद, 1963 में शम्मी कपूर भगत सिंह बनकर परदे पर आए. लोगों ने नोटिस तक ना किया.
इसी बीच भारत की चीन से लड़ाई हुई और लोगों को लगा की देश कि ख़ूब नाक कटी. नेहरू जी भी चल बसे.
देश की इस हताश हालत में जब अनजान नायकों को लेकर शहीद नाम से भगत सिंह की कहानी को 1965 में पर्दे पर लाया गया तो लोगों ने उसे ख़ूब सराहा.
महात्मा गांधीImage copyrightGetty
पर इसके बाद भी राजनैतिक दलों ने भगत सिंह को अपने से दूर ही रखा. सरकार द्वारा कभी कभी भगत सिंह के नाम की दुहाई ज़रूर दी जाती रही पर उनके विचारों को समझना या लोगों तक पहुँचने की कोई कोशिश नहीं की गई.
भगत सिंह को याद करना महज़ 26 जनवरी और 15 अगस्त को शहीद फ़िल्म के गाने सुनने तक ही रह गया. जैसे जैसे निजी रेडियो और टीवी स्टेशनों का जाल देश पर फैला, यह थोड़ी सी याद भी ख़त्म कर दी गई.
इसके बाद भगत सिंह की याद आई कम्युनिस्टों को 1997 में, देश की आज़ादी कि 50वीं सालगिरह पर. कम्युनिस्टों को लगा कि देश की आज़ादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है.
इतिहासकार प्रोफेसर विपिन चंद्रा 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए.
रेड फ्लैगImage copyrightGetty
इसके बाद कम्युनिस्टों ने भगत सिंह को अपना बताते हुए इक्के दुक्के बयान दिए, भगत सिंह की कुछ पैम्फ़्लेट्स के नए संस्करण छापे गए. फिर शांति छा गई.
दस साल बाद, नई शताब्दी में दक्षिणपंथियों ने भगत सिंह पर अपना हक़ जताया. किसी ने उनको पगड़ी पहना दी. हालाँकि अभी तक भगत सिंह की सबसे ज़्यादा दिखने वाली तस्वीर में वे टोपी पहने दिखाए जाते रहे थे.
किसी ने उन पर गेरुए वस्त्र डाल दिए, तो किसी ने उन्हें भारत की सभ्यता का संरक्षक बना डाला.
इन सब बातों से इतना तो साफ़ ज़ाहिर है: अपनी शहादत के आठ दशक बाद भी भगत सिंह ही एक अकेला शख़्स मिलता है जो हर किसी के दिल को जीत सके.
फ़र्क़ बस इतना है कि जिसकी भावना जैसी हो उसने भगत सिंह की छवि वैसी ही गढ़ ली है.

Tuesday, 9 February 2016

In 1962, India and US were ‘that’ close to becoming allies in a war against China Bruce Reidel’s ‘JFK’s Forgotten Crisis’ offers startling revelations and what-if possibilities @Anvar Alikhan

For many years there’s been a story floating around that in 1962, when the Chinese invasion was into its fourth unstoppable week, the Indian government panicked completely and wrote to the US government pleading for mind-boggling supplies of armaments – including several squadrons of the latest US fighter aircraft and bombers. I heard this story a few years ago from someone who’d been an aide at the Indian embassy in Washington at the time, who told me how the Ambassador had called him in and wordlessly handed him New Delhi’s letter to see.
The two men had then quietly shaken their heads at the sheer magnitude of air power being requested, and what it said about the degree of panic in the Indian government with the many questions it raised – the first one, of course, being who exactly was supposed to fly those highly sophisticated new aircraft (since Indian pilots were obviously untrained to fly them). But there has never been any real confirmation of this story. Until now.
Bruce Reidel is a US security expert, veteran CIA spook, and advisor on South Asian issues. His recent book, JFK’s Forgotten Crisis: Tibet, the CIA and Sino-Indian War, looks at the 1962 War from an unusual perspective: the hitherto unknown, but key, role that the US played behind the scenes. The source of Reidel’s information is a rich lode of material in the US, including recently de-classified letters between Nehru and Kennedy and the private diaries of some of the protagonists, among them being JK Galbraith, the US ambassador in India, a key player in the drama. What makes this book especially interesting is the fact that successive Indian governments – including the present one – have been so tight-lipped about what actually happened in 1962 (to the extent that the Henderson-Brooks Report, commissioned to investigate the causes of the defeat, has still not been de-classified, over fifty years later, although a copy is readily available on the Net).
Reiterating the ‘Domino Theory’?
Reidel reveals the fact that Nehru did indeed write to Kennedy on November 19, 1962 requesting as many as 12 squadrons of state-of-the-art fighter aircraft and two squadrons of long-range bombers – 350 combat aircraft, in all! – as well as extensive radar cover and transport aircraft. And as for the question of who was going to fly these aircraft, the letter was, in fact, specific: the Indian government asked for the loan of US pilots and ground crews until such time as the necessary Indian crews could be trained.
The stakes, Nehru’s letter went on to state, were not merely “the survival of India, but the survival of free and independent governments in the whole of… Asia.” This revelation of Reidel’s is dynamite, especially coming from Nehru who, despite his long-standing Non-Aligned position, now seemed to be reiterating President Eisenhower’s famous “Domino Theory”, and inviting a US military presence into Asia (at just about the time that the Vietnam War was first beginning to hot up).
Kennedy and Nehru did not, as it happens, share a particularly good relationship. When they had met, the year before, Nehru had rubbed the young Kennedy the wrong way by appearing to be condescending and preachy. But the situation was too serious to let something like bad chemistry get in in the way; the US saw the Chinese attack as the Mao Tse Tung’s most dangerous action since the Korean War, ten years before. Kennedy, therefore, responded swiftly to New Delhi’s appeal by air-lifting emergency supplies for the Indian army, and a dialogue was immediately initiated for the next steps.
Holding back the Pakistanis
There was, however, a serious complicating factor that would have to be tackled straightaway. Pakistan, a close US ally at the time, seeing India diverted by the Chinese attack, perceived a unique opportunity for itself to step in, occupy Kashmir and close that matter once and for all.
Fortunately for India, though, the US ambassador in New Delhi, JK Galbraith, considered this to be military blackmail, and told Washington to “for god’s sake, keep Kashmir out” of the scenario. Washington, in turn, bullied Pakistan into backing off, reminding President Ayub Khan that his country was a member of the US anti-communist alliance, and that the US would therefore not tolerate him taking advantage of a communist Chinese attack on India. Khan reluctantly agreed, but he never forgave what he saw as a great US betrayal.
But most frightening of all was the timing of this: incredibly, it was all happening at precisely the same time that the US was eyeball-to-eyeball with Russia over the Cuban missile crisis, and the world was on the brink of a nuclear holocaust. Indeed, the Chinese had carefully timed their attack on India based on their fore-knowledge of the Cuban crisis, and the calculation that the Russians and Americans would be too preoccupied with each other to interfere in a Sino-Indian conflict on the other side of the globe.
But, as it turned out, they were wrong on that score.
More startling revelations
By November 20, India’s situation looked desperate. The Chinese army, led by officers who had humbled the US forces in Korea, were using some of their tested Korean tactics in NEFA and Ladakh, with devastating effect. They now seemed poised to slice off the entire North-Eastern part of India, east of Siliguri, and Kolkata itself was under threat.
But by now Western arms supplies were pouring into India. According to Reidel, not only were US and British aircraft flying in military aid around-the-clock, but 10,000 US servicemen had actually landed in the country, and Canada and Australia had also been enlisted, just as they had during the Korean War. Moreover, a US aircraft carrier group had been moved strategically into the Bay of Bengal. These revelations, too – assuming they’re true – are dynamite, and one wonders why one didn’t know about all this before.
Meanwhile, discussions were going on between India and US for a massive military aid program. India had asked for $1.3 billion worth of aid (close to $10 billion today), which the US baulked at. Finally, a package of $500 million (approximately $3.5 billion today) was tentatively agreed upon.
At this point China suddenly surprised everybody by ending its invasion and unilaterally withdrawing its forces. As US ambassador JK Galbraith noted with relief in his diary, “Like a thief in the night peace arrived”.
The theory so far has been that this withdrawal was because China had achieved its objective, taught India a lesson and personally destroyed Nehru in the bargain. But Reidel suggests a new theory to us: that the withdrawal was because China’s leadership, surprised by the US’s prompt response to the situation, was worried that it might now decide to up the stakes and actively enter the conflict on India’s side – and it was not willing to take that risk.
That is certainly food for thought.
Discussing a nuclear deterrent!
The fighting may have ended in late November 1962, but there were fears that the war was not necessarily over, and that with the thawing of the Himalayan snows the Chinese might be back the following spring.
Hence, 1963 saw a significant upswing in India’s relations with the US, diplomatic as well as military; as Kennedy was to say, “I can tell you that there is nothing that has occupied our attention more than India in the last nine months”. US pilots were training in India, along with along with British, Canadian and Australian pilots, and the US Secretary of Defense was actually discussing with Kennedy the scope of the US commitment to defend India – and whether it would extend to the use of a nuclear deterrent or not.
Meanwhile, the $500 million US military aid package to India was to be finalised by Kennedy on November 26, 1963. But just four days before that could happen, Kennedy was assassinated, and his successor, Lyndon Johnson, postponed the decision.
The deal was to come up for finalisation once again on May 28, 1964, but it seems to have been fatally jinxed: just the day before, Nehru died in New Delhi, and the Indian team that had arrived in Washington to sign off on it had to return home abruptly.
And so, once again, the deal was postponed, with President Johnson now coming under increasing pressure from Pakistan, who threatened to terminate US access to the Peshawar air-base, from where it had been operating vital spy flights since the 1950s.
Fascinating questions
By now, however, the climate in New Delhi was changing under the new Prime Minister, Lal Bahadur Shastri, who had begun to look, instead, to the Russians for military support. And so the chapter was quietly closed.
The fact that India did not ultimately sign that arms deal with the US was a “lost opportunity in Indo-American relations”, as the then US ambassador noted regretfully. Kennedy had, since the very beginning of his presidency, given thought to the question of who would take the lead in Asia in the long term, India or China, and the developments of 1962 could have – who knows? – led to an economic partnership with the US to set up India as a counterweight to China.
Reidel’s book gives rise to many fascinating questions. And foremost among them is probably this: what if Kennedy and Nehru had not both died when they did, and India had indeed been drawn into a Western-led military alliance as a key member?
What would have happened, for example, when the Vietnam War suddenly blew up a couple of years down the line?
What would India’s stance have been then?
There are some questions that are just too complicated to wrap one’s head around.
JFK’s Forgotten Crisis, Bruce Reidel, Brookings Institution Press

भारत के लिए क्यों खास है सियाचिन?

24 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित सियाचिन ग्लेशियर आखिर क्यों है भारत के लिए खास? आखिर क्या वजह है कि बेहद खतरनाक हालात में हमारे सैनिक वहां लगातार डटे रहते हैं? क्यों है सियाचीन हमारे लिए खास? सबसे पहले जानिए सियाचिन की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी!
siyachin 2
आपके घर से 18 हजार फुट से भी ज्यादा ऊंचाई पर है बर्फ की एक बेजान दुनिया…ये है वो इलाका जहां की जमीन के साथ आसमान भी जिंदगी का दुश्मन है लेकिन बर्फ की इस बंजर दुनिया में इंसानी कदमों की आहट गूंजती है…ये कोई आम इंसान नहीं, बल्कि वो जांबाज फौजी हैं…जो भारत-पाकिस्तान के बीच एक ऐसी सरहद की निगहबानी में डटे हैं…जिसका वजूद किसी भी नक्शे में नहीं है…इस बेरहम दुनिया में 28 साल से भारत और पाकिस्तान की सेनाएं एक-दूसरे की ओर संगीनें ताने तैनात हैं…ये है दुनिया का सबसे ऊंचा और सबसे ठंडा जंग का मैदान….सियाचिन!
कश्मीर से लगते काराकोरम रेंज के पूर्वी हिस्से में मौजूद है यहां के पांच सबसे बड़े ग्लेशियर्स में से एक…सियाचिन ग्लेशियर…समुद्र तल से 16 हजार से 20 हजार फुट की ऊंचाई पर मौजूद ये ग्लेशियर भारत और पाकिस्तान के बीच 28 साल से जंग का मैदान बना हुआ है….हालांकि यहां 2003 से युद्धविराम लागू है, लेकिन भारत और पाकिस्तान की सेनाएं हर पल अपने-अपने मोर्चों पर तैनात हैं.
यहां दोनों तरफ के जितने सैनिक आपसी गोलीबारी में नहीं मारे गए, उससे कहीं ज्यादा फौजियों ने यहां की ठंड और विपरीत मौसम का सामना करते हुए दम तोड़ा है…लगभग 70 किलोमीटर विस्तार वाले इस बेरहम बर्फीले इलाके ने भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के करीब 2500 सैनिकों की जानें ली हैं…शून्य से भी 50 डिग्री नीचे के तापमान वाले इस बेजान इलाके पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश अब तक 500 अरब रुपये से ज्यादा की रकम खर्च कर चुके हैं. केवल भारत की ही बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक सियाचिन मोर्चे पर भारी सैनिक तैनाती बनाए रखने के लिए हमें हर दिन 10 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं.
कश्मीर से आगे एक देश में एक और खूबसूरत जहां है जिसे दुनिया लद्दाख के नाम से जानती है. वो लद्दाख जहां की खूबसूरती बॉलीवुड की कई फिल्मों में आपने देखी होगी. लद्दाख से ही कुछ किलोमीटर आगे से शुरू होता है सियाचिन का इलाका. बर्फ से लिपटा ये इलाका आपको बेहद खूबसूरत लगेगा लेकिन इस इलाके में जिंदगी काफी मुश्किल और खतरों से भरी है.
सियाचिन की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि इसके एक तरफ पाकिस्तान की सीमा है तो दूसरी तरफ चीन की सीमा अक्साई चीन इस इलाके को छूती है.
दुनिया का सबसे ऊंचा बैटलफील्ड यानी रणक्षेत्र माना जाने वाला सियाचिन से हमें आखिर क्या हासिल हो रहा है? ये बताने से पहले आपको ले चलते हैं आज से बत्तीस साल पहले. 1984 की बात है तब बर्फ की सफेद चादर से लिपटा बेहद खूबसूरत दिखने वाला ये इलाका वीरान पड़ा था. लेकिन पाकिस्तान की नजर 33 हजार वर्गकिलोमीटर में फैले इस इलाके पर थी. भारत सरकार की आंख तब खुली जब पाकिस्तान ने सियाचिन पर कब्जे की तैयारी शुरू की. पाकिस्तान ने यूरोप में बर्फीले क्षेत्र में पहने जाने वाले खास तरह के कपड़ों और हथियारों का बड़ा ऑर्डर दिया था. सेना इस सूचना से चौकन्ना हो गई और सियाचिन की तरफ कूच कर दिया. और इस तरह लॉन्च हुआ ऑपरेशन मेघदूत.
13 अप्रैल 1984 को भारतीय सेना ने ऑपरेशन मेघदूत लॉन्च किया. खास बात ये थी कि बर्फ में पहने जाने वाले कपड़े और साजो सामान सेना के पास 12 अप्रैल की रात को ही पहुंचे थे.
ऑपरेशन मेघदूत के तहत भारतीय सैनिकों को पाकिस्तानी सेना से पहले ना केवल सियाचिन की ऊंची पहाड़ियों पर पहुंचना था बल्कि इस दुर्गम इलाके में पड़ने वाले तीनों पास यानि दर्रों–सेला पास, बेलाफोंडला और ग्योंगला पास पर भी अपना कब्जा जमाना था.
मेजर बहुगुणा को सेला दर्रे का इंचार्ज बनाया गया. जबकि कैप्टन संजय कुलकर्णी को बेलाफोंडला दर्रे की कमान दी गई. लेफ्टिनेंट कमांडर पुष्कर चांद के नेतृत्व में में चले ऑपरेशन मेघदूत की सभी सैन्य टुकड़ियों को पहले समोमा दर्रे पर कब्जा करना था फिर बेस कैंप के आगे जाकर अपने अपने दर्रों को कब्जा में लेने को कहा गया था.
13 अप्रैल की सुबह साढ़े पांच बजे संजय कुलकर्णी और एक सिपाही को लेकर चीता हेलिकॉप्टर बेस कैंप में उतरा था. यहां अभी तो सड़क बन चुकी है लेकिन उस वक्त यहां उतरना भी आसान नहीं था.
बेलाफोंडला दर्रे पर संजय कुलकर्णी ने कब्जा किया और देश की शान तिरंगा लहराकर भारत की जीत की खबर दुनिया दो की.
सियाचिन की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि भारत की तरफ से सियाचिन की खड़ी चढ़ाई है और इसीलिए ऑपरेशन मेघदूत को काफी मुश्किल माना गया था. जबकि पाकिस्तान की तरफ से ये ऊंचाई काफी कम है. उसके बावजूद भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों को मात दी. इसीलिए दुनियाभर की जो सफल लड़ाइयां हुई हैं उनमें ऑपरेशन मेघदूत का नाम भी आता है. ये अपनी तरह का एक अलग ही युद्ध था जिसमें भारतीय सैनिकों ने माइनस 60 से माइनस 70 डिग्री के तापमान में सबसे ऊंची पहाडियों पर जाकर फतह हासिल की थी. पाकिस्तान के लिए ये हार काफी शर्मनाक थी.
ये ऑपरेशन 1984 से 2002 तक चला था यानि पूरे 18 साल तक. भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सियाचिन के लिए एक दूसरे के सामने डटी रहीं. जीत भारत की हुई. इस अभियान में भारत के करीब 1000 हजार जवान शहीद हो गए थे. हर रोज सरकार सियाचीन की हिफाजत पर करोड़ो रुपये खर्च करती है. बावजूद उसके… आखिर क्यों सियाचिन भारत के लिए अहम है.
सियाचिन के एक तरफ पाकिस्तान तो दूसरी तरफ चीन की सीमा होने की वजह से भारत के लिए सियाचीन सामरिक नजरिए से बेहद अहम है. अगर पाकिस्तानी सेना ने सियाचिन पर कब्जा कर लिया होता तो पाकिस्तान और चीन की सीमा मिल जाती तो चीन और पाकिस्तान का ये गठजोड़ भारत के लिए कभी भी घातक साबित हो सकता था. सबसे अहम ये कि इतनी ऊंचाई से दोनों देशों की गतिविधियों पर नजर रखना भी आसान है.
साल 2003 में पाकिस्तान ने भारत से युद्धविराम संधि की जिसके बाद से ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच अब इस इलाके में फायरिंग और गोलाबारी बंद है.
दुनिया के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र, सियाचिन ग्लेशियर की लंबाई करीब 70 किलोमीटर है. 12 महीने ये बर्फ की चादर से ढका रहता है. इस ग्लेशियर के एक तरफ है भारत का कट्टर दुश्मन पाकिस्तान जिससे भारत के एक दो नहीं चार-चार युद्ध हो चुके हैं तो दूसरी तरफ है चीन जिसके साथ 1962 में भारत युद्ध लड़ चुका है. और इन विपरीत परिस्थितियों में भारत के हिम-योद्धा यहां अपनी सीमाओं की सुरक्षा करते हैं.
सियाचिन पर भारत का मोर्चा
सियाचिन पर भारतीय सेना की रणनीतिक स्थिति काफी मजबूत है . सियाचिन ग्लेशियर के साथ इसके उत्तर में मौजूद सलतोरो पहाड़ियां भी हमारे कब्जे में हैं. जबकि पाकिस्तानी फौज हमारे मोर्चों से निचले इलाकों पर है. सियाचिन पर कब्जा जमाए रखने के लिए भारत की एक ब्रिगेड यानि करीब 3000 सैनिक तैनात है. उन्हें रसद और सैनिक साजोसामान की नियमित सप्लाई के लिए वायुसेना के चेतक, चीता, एमआई-8 और एमआई-17 हेलिकॉप्टर लगातार उड़ान भरते रहते हैं.
सियाचिन विवाद क्या है?
1972 के शिमला समझौते के वक्त सियाचिन को बेजान और इंसानों के लायक नहीं समझा गया…लिहाजा समझौते के दस्तावेजों में सियाचिन में भारत-पाक के बीच सरहद कहां होगी, इसका जिक्र नहीं किया गया. लेकिन अस्सी के दशक की शुरुआत में जिया उल हक के फौजी शासन के दौरान पाकिस्तान ने सियाचिन का रणनीतिक व सामरिक महत्व समझा और इस पर कब्जा जमाने के लिए देश-विदेश के पर्वतारोही दलों को भेजना शुरू कर दिया.

पाकिस्तान के मंसूबे भांपते हुए भारत ने सख्त कार्रवाई की और 1984 में ऑपरेशन मेघदूत के तहत फौज भेजकर सियाचिन की चोटियों पर मोर्चाबंदी कर ली. तब से लेकर 2003 तक यहां कब्जा बनाए रखने के लिए पाकिस्तान गोलाबारी करता रहा है, जिसका हरबार उसे कड़ा जवाब मिला है. पाकिस्तान का कहना है कि सियाचिन में ऑपरेशन मेघदूत से भारतीय सेना ने 1972 के शिमला समझौते और उससे पहले 1949 में हुए करांची समझौते का उल्लंघन किया है. पाकिस्तान चाहता है कि भारतीय सेना सियाचिन और सलतोरो की चोटियों से हट जाए, लेकिन करगिल से सबक लेने के बाद भारत अब चोटियों से नीचे नहीं आना चाहता, क्योंकि डर है कि हमारे हटते ही पाकिस्तानी फौजें यहां कब्जा जमा सकती हैं.
2003 से सियाचिन में गोलाबारी बंद है, लेकिन अपने-अपने मोर्चों पर डटे भारत और पाकिस्तान के सैनिक…इंसानी जान के सबसे बड़े दुश्मन बेरहम मौसम से मुकाबला कर रहे हैं.
विवाद के हल की कूटनीतिक कोशिशें
भारत और पाकिस्तान के बीच सियाचिन विवाद का समाधान कूटनीतिक स्तर पर तलाशने की कोशिशें 1985 में शुरु हुईं. तब से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच रुक-रुक कर 12 दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. जिनका फिलहाल कोई हल नहीं निकला है. चीन के कराकोरम हाइवे के करीब मौजूद सियाचिन के रणनीतिक महत्व के चलते भारत ये इलाका तब तक छोड़ने को तैयार नहीं है, जब तक कि पाकिस्तान इस इलाके पर भारत का अधिकार लिखित तौर पर नहीं मान लेता. और जाहिर है पाकिस्तान ऐसा नहीं चाहता.

Monday, 8 February 2016

बेनज़ीर, आपने भारत पर एटम बम क्यों नहीं गिराया? @रेहान फ़ज़ल

Image copyrightCourtesy Shyam Bhatia
15 फ़रवरी 1980 का दिन. काबुल से एक बस क़ंधार की तरफ़ जा रही है. तमाम यात्रियों के साथ पीछे की सीट पर 'द ऑब्ज़र्वर' अख़बार के संवाददाता श्याम भाटिया बैठे ऊंघ रहे हैं.
तभी अचानक बस रुकती है. खिड़की के शीशों पर धुंध जमी है. इसलिए उनके बाहर देख पाना इतना आसान नहीं है.
श्याम अपनी उंगली से शीशे पर लगी धुँध साफ़ करते हैं. श्याम अपनी उनीदी आंखों से देखते हैं कि कुछ अफ़ग़ान लोग हाथ में कलाशनिकोव लिए ड्राइवर से बात कर रहे हैं. अचानक दो लोग बस पर चढ़कर ड्राइवर को बस से उतरने का आदेश देते हैं.
वह दोनों अचानक ग़ायब हो जाते हैं. वही दो मुजाहिदीन दोबारा बस पर चढ़ते हैं और सभी यात्रियों को बस से उतरने का आदेश देते हैं.
पहला यात्री उतरते ही उन मुजाहिदीन से बहस करने लगता है. अचानक एक मुजाहिदीन एक पिस्टल निकालता है और उस यात्री को गोली से उड़ा देता है.
श्याम भाटिया याद करते हैं, "मुजाहिदीन सभी यात्रियों से उनके परिचय पत्र मांग रहे थे और जिनका परिचय पत्र लाल रंग का था, उनके सिर में वो दो-तीन मिनट के अंतराल पर गोली मार रहे थे. मुझे थोड़ी-थोड़ी देर पर आवाज़ सुनाई दे रही थी... फुट-फुट-फुट. मैं चूँकि आख़िरी सीट पर था, मेरा नंबर सबसे बाद में आया. जैसे ही मैं नीचे उतरा मैंने देखा मेरे दाहिनी तरफ़ शवों का अंबार लगा था. मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था. मैंने उन्हें अपना नीले और सुनहरे रंग का ब्रिटिश पासपोर्ट दिखाया. देखते ही उनके नेता ने जिसके हाथ में पिस्तौल थी मेरे गाल पर ज़ोर का थप्पड़ रसीद किया."
भाटिया ने आगे कहा, “मैंने कांपते हुए चिल्लाकर कहा मैं ब्रिटिश पत्रकार हूँ. उनमें से एक ने कहा, तुम पत्रकार नहीं जासूस हो और फिर मेरे ऊपर थप्पड़ों की बरसात शुरू हो गई. फिर उन्होंने बस में आग लगा दी. धुआँ उठता देख वहां रूसी हेलिकॉप्टर पहुँच गए. उन्होंने भागना शुरू किया और उनके पीछे मैंने भी भागना शुरू किया. मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. रुकने का मतलब था मौत- अगर गोलियों से नहीं तो शून्य से भी नीचे तापमान से.”
Image copyrightCourtesy Shyam Bhatia
श्याम भाटिया इन लोगों के चंगुल से कैसे बचे? यह लंबी कहानी है लेकिन मशहूर पत्रकार मार्क टली कहते हैं कि यह तो श्याम भाटिया की क़िस्मत थी कि वो बच गए लेकिन इस घटना के कई साल बाद तालिबान ने भी मेरे साथ क़रीब-क़रीब ऐसा ही सुलूक किया था. उनके चंगुल में फंसने के बाद वो मुझे श...श कहकर इस तरह हाँका करते थे जैसे उस इलाक़े में या कश्मीर में चरवाहे अपनी बकरियों को हांका करते हैं.
श्याम भाटिया 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख दंगों के समय दिल्ली में थे.
Image copyrightAFP
श्याम याद करते हैं, “मैं सोने जा रहा था कि मेरे पास फ़ोन आया कि क्या आप मारे गए सिख लोगों के शव देखना चाहेंगे. उस जगह जाने के लिए कोई टैक्सी ड्राइवर तैयार नहीं था. मैंने एक ड्राइवर को वहां ले जाने के लिए पांच हज़ार रुपयों का लालच दिया, जो उस ज़माने में बड़ी रक़म होती थी. जब हम वहां पहुँचे, तो चारों तरफ़ जलते हुए रबर की बदबू फैली थी. जलते हुए टायर पड़े थे और उनके आसपास गुड़मुड़ाए हुए गट्ठर पड़े थे. जब मैं रेलिंग के ऊपर से कूदकर ज़रा और नज़दीक गया तो मैंने पाया कि ये गट्ठर नहीं सिखों के जल चुके शव थे. कुछ के सिरों पर अभी भी जलती हुई पगड़ियां लगी थीं. मैंने 119 लाशें गिनीं और तभी मैंने देखा कि पास में ज़ैतूनी रंग की सेना की लॉरी खड़ी है. उसका पिछला हिस्सा खुला था और उस पर एक के ऊपर एक शव पड़े थे. उनको गिन पाना तो मुश्किल था, लेकिन मैंने अनुमान लगाया कि वहां कम से कम 30 शव थे.''
Image copyrightCoutesy Shyam Bhatia
श्याम बताते हैं कि होटल आकर मैंने राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के दफ़्तर में फ़ोन लगाया. उन्होंने फ़ोन करवाया कि वह दोपहर बाद मुझसे मिलेंगे. "मेरे सामने दिक़्क़त थी कि राष्ट्रपति भवन कैसे पहुँचा जाए क्योंकि कोई टैक्सी ड्राइवर अपनी टैक्सी निकालने के लिए तैयार नहीं था. तभी होटल की ट्रैवल एजेंसी के मैनेजर ने आकर मुझसे कहा कि अगर आप चाहें तो मेरी असिस्टेंट के ब्वॉय फ़्रेंड के स्कूटर पर राष्ट्रपति भवन जा सकते हैं. मैं सूट और टाई पहनकर स्कूटर के पीछे बैठा. जब मैं पहुँचा तो सुरक्षा गार्ड ने मुझे अंदर नहीं घुसने दिया."
"उसने मेरी कहानी सुनकर कहा बकवास...यहां कोई भी राष्ट्रपति से मिलने स्कूटर पर नहीं आता. उससे बहस करते हुए जब 15 मिनट हो गए तो अंदर से फ़ोन आया कि मुझे अंदर आने दिया जाए. ज़ैल सिंह ने मुझे अपने पास बैठाकर वो सब चीज़ें बताने को कहा, जो मैंने देखी थीं. मैं देख पा रहा था कि रो-रोकर उनकी आंखें लाल हो गई थीं. बार-बार वो यही दोहरा रहे थे...क्या किया उन्होंने."
दिलचस्प बात यह है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार पर किताब लिखने के दौरान जब मार्क टली ने ज़ैल सिंह से संपर्क करना चाहा, तो उनके नज़दीकी लोगों ने उनसे उन्हें मिलने नहीं दिया.
टली याद करते हैं, "जब मेरी किताब छपी तो ज़ैल सिंह ने उसे पसंद नहीं किया. उनके प्रवक्ता त्रिलोचन सिंह का मेरे पास फ़ोन आया कि ज्ञानी जी आपसे मिलना चाहते हैं. जब मैं अपने जिगरी दोस्त और किताब के सह लेखक सतीश जैकब के साथ ज़ैल सिंह से मिलने पहुँचा, तो उन्होंने पूछा कि आपने कैसे लिख दिया कि भिंडरावाले को बढ़ाने में मेरा हाथ है. सतीश ने उनसे पूछा कि भिंडरावाले को आपने बढ़ावा नहीं दिया तो किसने दिया? ज़ैल सिंह बोले कांग्रेस पार्टी ने. सतीश ने उनकी आंखों में आंखें डालकर सवाल किया- क्या आप उस समय कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं थे?"
श्याम भाटिया की किताब में अगला ज़िक्र है सद्दाम हुसैन की क्रूरता का, जिन्होंने अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ ज़हरीली गैस का इस्तेमाल किया था.
Image copyrightGetty
श्याम याद करते है, “ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान मैं तेहरान में था. मुझसे ईरानियों ने पूछा- क्या आप इराक़ियों के ज़हरीली गैस इस्तेमाल करने के सुबूत देखना चाहेंगे. मेरे हां करने पर वो मुझे और छह अन्य विदेशी संवाददाताओं को हेलिकॉप्टर में बैठाकर इराक़ सीमा के अंदर हलाबजा गांव ले गए.”
इसके आगे भाटिया बताते हैं, “लैंड करने से पहले एक ईरानी डॉक्टर ने हमें हरे रंग का इंजेक्शन देते हुए कहा कि अगर हमें कुछ बेचैनी का अहसास हो, तो हम इसे तुरंत अपनी जांघ में घोप लें. वहां उतरकर हमने देखा कि यहां-वहां मर्द-औरतों-बच्चों की लाशें पड़ी थीं. उनके चेहरे पर सांस न ले पाने की मजबूरी साफ़ देखी जा सकती थी. कुछ के चेहरे नीले पड़े हुए थे. शव भी बेतरतीब पड़े थे. किसी की बांह लटकी थी, तो किसी का पैर उठा था. ये लोग कुर्द थे जो इराक़ सरकार का विरोध कर रहे थे. हम लोग वहां आधे घंटे रुके होंगे, तभी ईरानियों ने कहा-वापस चलें कहीं इराक़ियों का दोबारा हमला न हो जाए.”
Image copyrightCoutesy Shyam Bhatia
श्याम भाटिया ने बीबीसी को फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात से लिए गए अपने उस इंटरव्यू के बारे में भी बताया, जिसमें अराफ़ात उनसे नाराज़ हो गए थे.
उन्होंने कहा, “उस ज़माने में अराफ़ात से इंटरव्यू लेना बहुत मुश्किल होता था. मेरी उनके स्टाफ़ से दोस्ती हो गई थी. उन्होंने मुझसे कहा कि अराफ़ात का इंटरव्यू लेना चाहते हो, तो उनके लिए शहद की एक बोतल लेकर आओ. एक बार मैं ट्यूनिस में उनका इंटरव्यू लेने गया. 20-25 मिनट बाद मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं आपकी पत्नी का इंटरव्यू ले सकता हूँ.”
Image copyrightAP
इसके आगे भाटिया सुनाते हैं, “इतना सुनते ही अराफ़ात नाराज़ हो गए. बोले-आपकी हिम्मत कैसे हुई, मेरी पत्नी के बारे में बात करने की. फ़ौरन कमरे से निकल जाइए. मैंने कमरे से निकलते हुए डरते-डरते कहा, मैं आपके लिए शहद की बोतल लेकर आया हूँ, जो बाहर मेज़ पर रखी है. होटल में आने के बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद ही किया था कि ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनाई दी.”
भाटिया कहते हैं, "बाहर अराफ़ात के दो बॉडीगार्ड खड़े थे. उन्होंने मुझे एक गाड़ी में बैठाया और अराफ़ात के उसी घर पर ले गए, जहां से उन्होंने मुझे बाहर निकाला था. जब दरवाज़ा खुला तो अराफ़ात एक बहुत सुंदर महिला के साथ खड़े थे. बोले-मिलिए मेरी पत्नी सुहा से. मैंने कहा आप तो नाराज़ थे मुझसे. वो बोले-वह नक़ली ग़ुस्सा था. आप रुकिए और हमारे साथ खाना खाइए और शहद के लिए बहुत शुक्रिया. अराफ़ात और उनकी पत्नी ने बहुत प्यार से मुझे चावल, हुमुस, मटन स्टू, सलाद और दो सब्ज़ियां खिलाईं और मैं उनके पास दो घंटे तक रहा."
बाद में श्याम और अराफ़ात दंपत्ति की नज़दीकी इतनी बढ़ गई कि एक बार अराफ़ात की पत्नी ने अपनी डेढ़ साल की बेटी ज़हवा की बेबी सिटिंग की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी.
Image copyrightAFP
श्याम बताते हैं, “एक बार मैं अराफ़ात का इंटरव्यू करने येरूशलम से ग़ज़ा गया. उनकी पत्नी सुहा ने मुझसे कहा कि क्या आप थोड़ी देर के लिए मेरी बेटी की देखभाल कर सकते हैं. हमारी आया आई नहीं है और हमें ज़रूरी मीटिंग के लिए तुरंत बाहर जाना है."
श्याम आगे बताते हैं, "मैंने उनसे पूछा मैं किस तरह इनकी देखभाल करूँ. सुहा ने कहा तुम्हारे भी बच्चे हैं. तुम्हें मालूम है बच्चों को किस तरह देखा-भाला जाता है. इसको प्रैम में बैठाओ और समुद्र के बग़ल में चहलक़दमी के लिए चले जाओ. कल्पना करें-मैं सूटबूट पहने, टाई समंदर की हवा में उड़ती हुई और मैं अराफ़ात की बेटी को प्रैम में टहला रहा हूँ और मेरे पीछे छह सशस्त्र फ़लस्तीनी सैनिक चल रहे हैं. डेढ़ घंटे बाद अराफ़ात और उनकी पत्नी लौटकर आए. उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया और मुझे एक लंबा इंटरव्यू दिया."
श्याम भाटिया ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में बेनज़ीर भुट्टो के साथ पढ़ा करते थे और उन चुनिंदा बाहरी लोगों में थे, जो उनके घरेलू नाम पिंकी से उन्हें पुकार सकते थे. बेनज़ीर भी उनके घर के नाम चुन्नू से उन्हें बुलाती थीं. एक बार जब वह प्रधानमंत्री नहीं थीं तो बेनज़ीर ने उन्हें मिलने दुबई बुलाया.
Image copyrightAFP
कुछ देर बात करने के बाद श्याम ने उनसे पूछा, “पिंकी जब आप प्रधानमंत्री थीं, तो आपको ख़्याल नहीं आया कि भारत के ख़िलाफ़ परमाणु बम का इस्तेमाल किया जाए. सुनते ही बेनज़ीर एकदम चुप हो गई. बोली क्या तुम समझते हो कि मैं पागल हूँ. भारत के ख़िलाफ़ परमाणु बम का इस्तेमाल करने का मतलब है अपने ख़िलाफ़ परमाणु बम का इस्तेमाल करना. इस तरह की बकवास मत करो.”
अपनी किताब के अंत में श्याम भाटिया एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं कि किस तरह रूस-अज़रबैजान सीमा पर भारतीय होने की वजह से उनकी जान बची.
Image copyrightofficial website
"मुझे रूसी सैनिकों ने पकड़ लिया. मैंने उन्हें लाख समझाया कि मैं एक पत्रकार हूँ, लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी और कहा कि तुम जासूस हो. मैंने उनसे कहा आपने बॉलीवुड की कोई फ़िल्म देखी है. बॉलीवुड का नाम सुनते ही वो ख़ुश हो गए. मैंने उन्हें राज कपूर की फ़िल्म का वो मशहूर गाना सुनाया- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी.. मेरी बेसुरी आवाज़ में इस गाने को सुनना था कि उनका मूड बदल गया. उन्होंने मेरी बहुत आवभगत की. मुझे क्रीम खिलाई, दूध पिलाया, नान खिलाई और अवैध ढंग से बनी वोद्का भी पीने को दी और मैं उनकी पकड़ से भी बच निकला और आपके सामने अपनी यह कहानी सुना रहा हूँ.