अपने देश का संस्कृति मंत्रालय कुछ अजब-गजब है. सुप्रीम कोर्ट ने
कोहिनूर की वापसी पर मोदी सरकार का पक्ष पूछा था, लेकिन जब बात पंजाब तक
में बिगड़ने लगी, और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इसे आड़े हाथ
लिया, तो तपाक से ‘टोपी’ पंडित नेहरू को पहना दी गयी.
संस्कृति मंत्रालय ने पलटी मारी और कहा कि हमने नहीं, 1956 में पंडित
नेहरू ने बयान दिया था कि ब्रिटेन को ‘उपहार’ में दी गयी वस्तु की वापसी
में परेशानी पैदा होगी, क्योंकि दलीप सिंह ने लाॅर्ड डलहौजी को कोहिनूर
उपहार में दिया था. इस बयान के दूसरे दिन ‘पीआइबी’ के जरिये संस्कृति
मंत्रालय ने सफाई में कहा कि साॅलिसीटर जनरल रणजीत कुमार ने पंडित नेहरू को
‘कोट’ किया था, सरकार तो कोहिनूर की वापसी का प्रयास करेगी.
सवाल है कि कोहिनूर हीरे पर क्या सुप्रीम कोर्ट ने पंडित नेहरू का विचार
पूछा था? यह रिकाॅर्ड सरकार को पेश करने चाहिए. भारतीय मूल के ब्रिटिश
सांसद कीथ वाज अरसे से कोहिनूर की वापसी की आवाज उठा रहे थे. वे भी हैरान
हैं कि राष्ट्रवादी सरकार का यह कैसा ‘स्टैंड’ है!
कीथ की विवशता थी, सो थक-हार कर ब्रिटिश संसद में उन्होंने भारत सरकार
के पक्ष का स्वागत किया. अब भारत सरकार बयान सुधारती रहे कि यह हमने नहीं
कहा, ‘कश्मीर पर जनमतसंग्रह जैसी गलतबयानी’ करनेवाले उस पूर्व प्रधानमंत्री
का वक्तव्य था, जिसने साठ साल पहले कोहिनूर पर अंगरेजों का साथ दिया था.
हमारा संस्कृति मंत्रालय जिस तरह से नेहरू के बयानों को खोद कर निकालने में
व्यस्त है, वैसी खुदाई मोहनजोदड़ो-हड़प्पा की भी नहीं हुई. कांग्रेस के
नेताओं का आधा समय नेहरू के बयानों पर सफाई में निकल रहा है.
ब्रिटिश हाउस आॅफ काॅमन्स के दस्तावेज बताते हैं कि 1947 में देश की
आजादी के तुरंत बाद कोहिनूर की वापसी की मांग की गयी. दूसरी मांग 2 जून,
1953 को की गयी, तब साम्राज्ञी एलिजाबेथ द्वितीय का राज्याभिषेक हो रहा
था.
उस समय पंडित नेहरू इस देश के प्रधानमंत्री थे. 1990 में पत्रकार कुलदीप
नैयर ने ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त रहते कोहिनूर की वापसी के लिए
ब्रिटिश सरकार से पत्राचार शुरू किया. जाहिर है, सरकार की सहमति के बगैर
उच्चायुक्त ऐसे प्रयास नहीं करते. 1997 में कुलदीप नैयर राज्यसभा के सदस्य
बने, मगर कोहिनूर की कसक से वे उबरे नहीं.
साल 2000 में कोई 50 सांसदों ने कोहिनूर की वापसी को लेकर एक प्रतिवेदन
पर हस्ताक्षर किया, उनमें नेता प्रतिपक्ष मनमोहन सिंह भी थे. तो क्या
मनमोहन सिंह, पंडित नेहरू के लाइन के विरुद्ध जा रहे थे? कुलदीप नैयर ने 29
नवंबर, 2015 को ‘व्हाइ डिड पीएम मोदी नाॅट आस्क फाॅर द कोहिनूर’ में लिखा,
‘तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने मुझसे कहा था कि आप भारत और ब्रिटेन
के बीच रिश्ते बिगाड़ रहे हैं.’ इसका अर्थ यही है कि ‘एनडीए’ सरकार नहीं
चाहती थी कि कोहिनूर की वापसी हो.
विरासत वापसी की लड़ाई कई देश लड़ते रहे हैं. ब्रिटिश म्यूजियम लंदन में
लगी, डेढ़ सौ साल पहले एथेंस के एक्रोपोलिस से उड़ायी ‘एल्गिन मार्बल’ की
वापसी की लड़ाई यूरोपियन कोर्ट आॅफ जस्टिस, यूरोपीय संघ और यूनेस्को तक
पहुंची हुई है.
इससे क्या ग्रीस और ब्रिटेन के संबंध बिगड़ गये? यूनेस्को के उस
प्रस्तावना के आधार पर दुनिया के बहुत सारे देश बाध्य हो रहे हैं कि चोरी
या धोखे से लायी गयी धरोहर उनके देश वापस की जाये. वायसराय डलहौजी ने दरअसल
फ्राॅड किया था.
एक बारह साल के बालक दलीप सिंह से कोहिनूर हासिल करने के तरीके को आज की पुलिस, अदालत ठगी की श्रेणी में ही रखेगी.
‘टावर आॅफ लंदन’ में कोहिनूर देखने का मौका अगस्त 2006 में मुझे मिला
था. कोहिनूर तो सिर्फ 105.6 कैरेट का है, मगर इस नायाब हीरे के इतिहास ने
उसे बाकी सारे हीरों से महत्वपूर्ण और वजनदार बना दिया है. टावर आॅफ लंदन
में ही 503.2 कैरेट का ‘कलिनम-1’ और 317.4 कैरेट का ‘कलिनम-2’ हीरा रखा हुआ
है. दक्षिण अफ्रीका के खान से लाये कलिनम हीरे, कोहिनूर की तरह दर्शकों को
विस्मृत नहीं करते. 410 कैरेट का ‘रीजेंट डायमंड’ पैरिस के लूव्र म्यूजियम
में है. क्रेमलिन के खजाने में 300 कैरेट का ‘ओरलोफ डायमंड’ है.
सेंट्रल बैंक आॅफ ईरान की निगरानी में 182 कैरेट का ‘दरिया-ए-नूर’ और 67
कैरेट का ‘होप डायमंड’ वाशिंगटन के ‘अमेरिकन म्यूजियम आॅफ नेचुरल
हिस्ट्री’ में रखे गये हैं. जर्मनी के द्रेसदेन में 41 कैरेट का ‘ग्रीन
वाॅल्ट डायमंड’ है. ये सभी हीरे आंध्र प्रदेश के रायलसीमा जिले के गोलकुंडा
और कोल्लुर खानों से निकले हैं. तो क्या हमें इन हीरों की वापसी का प्रयास
नहीं करना चाहिए?
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने बुधवार को कनाडा की संसद
में कोमागाटा मारू जहाज पर सवार यात्रियों के वंशज और सिखों से माफी
मांगी. ट्रूडो ने कहा कि जिस दर्द और पीड़ा से वो लोग गुजरे उसे कोई शब्द
नहीं मिटा सकता.
आखिर करीब 102 साल पहले के लिए एक फैसले पर कनाडाई पीएम ने क्यों माफी मांगी? और क्या थी वो घटना?
कामागाटा मारू जहाज
कोमागाटा
मारू कोयला ढोने वाला, भाप-इंजन से चलने वाला पानी का जहाज था. हॉन्गकॉन्ग
में रहने वाले कारोबारी गुरदीत सिंह ने इसे यात्री जहाज में बदलवाया था.
उस समय भारत और हॉन्गकॉन्ग दोनों ब्रितानी शासन के अधीन थे.
अप्रैल
1914 में ये जहाज कनाडा के लिए निकला. करीब एक महीने की यात्रा करके जहाज
मई 1914 में कनाडा के वैंकूवर के एक बंदरगाह पर पहुंचा. जहाज में 376
यात्री सवार थे. जिनमें ज्यादातर सिख थे.
नया कानून और विवाद
कनाडा
में 1908 में अप्रवासी भारतीयों की आमद को रोकने के लिए एक कानून बनाया
गया था. इस कानून के अनुसार वही लोग कनाडा आ सकते थे जो अपने मूल देश से
बीच में कहीं और रुके बिना सीधे कनाडा आए हों. उस समय समुद्री मार्ग से
भारत से सीधे कनाडा जाना संभव नहीं था.
अगर कोई भारतीय भारत से
कनाडा सीधे जलमार्ग से पहुंच भी जाता तो इस कानून के अनुसार उन्हें 200
डॉलर प्रवेश शुल्क देना होता. जो उस जमाने में एक बड़ी राशि थी. ये कानून
मुलतः नस्ली भेदभाव की भावना से प्रेरित था.
कनाडा के अधिकारियों ने
कोमागाटा मारू को बंदरगाह से कुछ दूर समुद्र में ही रोक दिया. जहाज़ के
डॉक्टर एवं उनके परिवार और 20 कनाडाई नागरिकों समेत कुल 24 लोगों को कनाडा
में प्रवेश करने की इजाज़त दी गयी.
लगभग दो महीने के गतिरोध के बाद, जहाज़ को 23 जुलाई 1914 को कनाडाई नौसेना द्वारा बलपूर्वक वापस लौटा दिया गया.
भारत में अंग्रेजों की गोलाबारी
अमेरिका
और कनाडा में 1913 में भारतीयों ने गदर पार्टी का गठन किया था. गदर पार्टी
का मकसद भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी दिलाना था. बाबा गुरदीत
सिंह गदर पार्टी से जुड़े हुए थे. अंग्रेजी सरकार को आशंका थी कि जहाज से
गदर पार्टी के समर्थक भारत में आएंगे.
लंबी समुद्री यात्रा के बाद ये
जहाज तत्कालीन कलकत्ता के बजबज बंदरगाह पर पहुंचा. 29 सितंबर 1914 को बाबा
गुरदीत सिंह और अन्य नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए जहाज़ पर पुलिस भेजी
गई. गिरफ्तारी का यात्रियों ने विरोध किया.
अंग्रेज़ी हुकमत
यात्रियों पर गोली चलाने का आदेश दिया. गोलीबारी में 19 यात्री मारे गए.
कइयों को बंदी बना लिया गया. हालांकि, बाबा गुरदीत सिंह कई अन्य लोगों के
साथ भाग निकले.
क्यों मांगी माफी?
कनाडा में करीब पांच लाख सिख रहते हैं. कनाडा की राजनीति में सिखों का प्रभाव साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है.
जस्टिन
ट्रूडो ने पिछले साल पीएम बनने के बाद चार सिखों को अपने मंत्रिमंडल में
जगह दी थी. जबकि उस समय भारतीय केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल दो सिख मंत्री
थे.
कनाडा के सिख लंबे समय से देश की सरकार से कोमागाटा मारू की अमानवीय हरकत के लिए माफी मांगने की मांग कर रहे थे.
जस्टिन
ट्रूडो को सिख अल्पसंख्यकों को काफी समर्थन प्राप्त है. कोमागाटा मारू के
लिए माफी मांग कर उन्होंने एक बार स्थायीन सिखों समेत पूरी दुनिया का दिल
जीतने की कोशिश की है.
पिछले साल एक मई को कनाडा सरकार ने कोमागाटा मारू की याद में डाक टिकट जारी किया था.
संजय गांधी में धैर्य नाम के गुण की काफ़ी कमी थी. वो अक्सर एक छोटे जहाज़ से धीरेंद्र ब्रह्मचारी से मिलने जम्मू जाया करते थे. वो अपना एक मिनट का समय भी ज़ाया नहीं करना चाहते थे.
उन्होंने रक्षा मंत्री बंसी लाल से निश्चित हवाई रास्ता छोड़ सीधी लाइन में जम्मू जाने की अनुमति मांगी. संयुक्त सचिव शशिकांत मिस्रा ने ये अनुरोध वायु सेनाध्यक्ष एयर चीफ़ मार्शल ह्रषिकेश मुलगांवकर तक पहुंचा दिया.
उन्होंने तुरंत जवाब दिया कि इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे भारतीय वायु सेना का अभ्यास प्रभावित होगा.
जब मिस्रा ने ये बात संजय गांधी को बताई तो वो उनका मुंह ग़ुस्से से लाल हो गया. मिस्रा ने जब उन्हें वायुसेना अध्यक्ष का नोट दिखाया तो उन्होंने गुस्से में वो नोट मिस्रा के ऊपर फेंक कर कहा, "स्टुपिड नोट."
मिस्रा ने कहा, "संजय, ये स्टुपिड नोट हो सकता है, लेकिन हम इसकी अवहेलना नहीं कर सकते हैं."
शशिकांत मिस्रा ने बीबीसी को बताया कि संजय का ग़ुस्सा शाँत करने की कोशिश में मैंने उनसे कहा कि कि अगर आप चाहें तो मैं पुनर्विचार को लिए ये नोट दोबारा वायुसेनाध्यक्ष के पास भेज सकता हूँ. इस पर संजय का जवाब था, "मुझे मालूम है आप फिर उसी स्टुपिड जवाब के साथ वापस आएंगे."
ये सुनना था कि मिस्रा का सारा धीरज जाता रहा. वो बताते हैं, "मैंने संजय से कहा मैं इस तरह की भाषा का आदी नहीं हूँ. मुझे आपके पास रक्षा मंत्री ने भेजा है. अगली बार से आप मुझे यहाँ नहीं पाएंगे. मैंने अपने काग़ज उठाए और ज़ोर से दरवाज़ा बंद करता हुआ कमरे से बाहर हो गया."
इस बीच कांग्रेस की सरकार गिर गई और जनता पार्टी का शासन आ गया. नई सरकार संजय को तंग करने लगी. इंदिरा गाँधी के डाक्टर के पी माथुर की बेटी की शादी में संजय और शशिकांत मिस्रा को आमंत्रित किया गया. हर कोई संजय से मिलने से बच रहा था.
शशिकाँत ख़ुद उनके पास गए और बोले, "आप अच्छा मुक़ाबला कर रहे हैं. इसी तरह डटे रहिए." मिस्रा बताते हैं, "संजय ने मुझसे कहा मुझे आपसे माफ़ी मांगनी है. उस दिन मैं आपसे बिना वजह नाराज़ हो गया था. ये शायद पहला मौक़ा था जब संजय ने किसी से माफ़ी माँगी थी."
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हरियाणा के तीन लालों बंसीलाल, देवीलाल और भजनलाल की दुश्मनी किसी से ढकी-छिपी नहीं है, लेकिन एस के मिस्रा ने इन धुर विरोधी राजनीतिज्ञों के प्रधान सचिव होने की भूमिका बख़ूबी निभाई. इन्हीं एसके मिस्रा ने अपने अनुभवों पर एक किताब लिखी है - फ़्लाइंग इन हाई विंड्स, जो हाल ही में प्रकाशित हुई है.
कानपुर में जन्मे 1956 बैच के आईएएस एसके मिस्रा कहते हैं कि बंसीलाल पूरी तरह से राजनीतिक इंसान थे, लेकिन "मैं उनकी पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेता था."
मिस्रा की दूसरी चीज़ जिसकी कद्र बंसी लाल और हरियाणा के दूसरे मुख्यमंत्री भी करते थे कि उनका फॉलो अप एक्शन बहुत तेज़ होता था. जो भी काम होता था एस के मिस्रा की कोशिश होती थी कि वो काम आज नहीं कल हो जाना चाहिए था. कल यानी आने वाला कल नहीं बल्कि बीता हुआ कल.
यही वजह रही कि उनका नाम हरियाणा के विकास से जुड़ गया. चाहे पर्यटन हो, सिंचाई की परियोजनाएं हों या सड़कों का विकास. सब के पीछे एस के मिस्रा का नाम लिया जाने लगा. हरियाणा को पर्यटन के मानचित्र पर लाने की शुरुआत चंडीगढ़ से दिल्ली की एक कार ड्राइव के दौरान हुई थी.
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करनाल के पास नहर के पास एक खोखे पर पड़ी चारपाई पर बंसी लाल और एस के मिस्रा चाय पी रहे थे. इसी दौरान मिस्रा ने बंसीलाल से कहा कि इस नहर के बगल में एक अच्छा सा रेस्त्रां खोला जा सकता है और इस नहर का पानी ले कर यहाँ एक कृत्रिम झील बनाई जा सकती है.
बंसीलाल को ये आइडिया जंच गया और उन्होंने मिस्रा को इस पर काम करने की इजाज़त दे दी. एस के मिस्रा कहते हैं, "मैं बढ़ा चढ़ा कर नहीं कह रहा हूँ, लेकिन 70 या 75 फ़ीसदी फ़ाइलें जो मुख्यमंत्री के आदेश से पास होती थीं, मैं ख़ुद ही उन्हें पास कर देता था बिना उन्हें दिखाए हुए. मैं वही फ़ाइलें उनके सामने पेश करता था जिनके बारे में मैं निश्चित नहीं होता था कि उनके बारे में बंसीलाल के विचार क्या होंगे या वो फ़ाइलें जिनके लिए मंत्रिमंडल की मंज़ूरी ज़रूरी होती थीं."
यह बताता है कि बंसीलाल का कितना विश्वास उनमें था और दूसरी तरफ मिस्रा ने इस विश्वास का कभी कोई बेजा फ़ायदा नहीं उठाया. शशिकांत मिस्रा बताते हैं कि एक बार वो बंसी लाल के साथ राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में भाग लेने श्रीनगर गए. वहाँ के मुख्यमंत्री सादिक़ ने उनके लिए बेहतरीन भोज का प्रबंध किया हुआ था. बंसीलाल चूँकि कट्टर वेजेटेरियन थे, इसलिए वो गोश्ताबा जैसे किसी भी मांसाहारी पकवान को देखना भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.
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मिस्रा याद करते है, "बंसीलाल ने कहा आइए चुपके से यहाँ से निकल लिया जाए और बाहर कहीं वेजेटेरियन खाना खाया जाए. शामियाने के मुख्य द्वार पर इंदिरा गाँधी और सादिक़ खड़े थे. इसलिए बंसीलाल कनात के बगल में जगह बनाते हुए बाहर निकले और हेज को फलांग कर सड़क पर आ गए. उनके पीछे पीछे मैं था."
मिस्रा आगे बताते हैं, "सड़क पर घूमते हुए बंसीलाल की नज़र एक बोर्ड पर गई जिस पर लिखा हुआ था गुजराती भोजनालय. हम लोग चार मंज़िल सीढ़ियाँ चढ़ कर उस भोजनालय पहुंचे. वहाँ पर जब उनके सामने गुजराती थाली आई तो बंसी लाल की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. सीढ़ी से उतरते ही बंसी लाल ने एक हलवाई ढ़ूंढ़ निकाला और वहाँ पर हमने रसगुल्लों का आनंद लिया. ये सिलसिला पूरे तीन दिन चला. बंली लाल तो खुश हो गए लेकिन मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ा क्योंकि मैं माँसाहारी पकवानों का बहुत शौकीन था."
बंसीलाल के हारने के बाद जब देवीलाल सत्ता में आए को उन्होंने अपनी पहली ही प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ऐलान किया कि एसके मिस्रा जेल जाएंगे. उनके ख़िलाफ़ क़रीब पचास केस रजिस्टर किए गए और एसके मिस्रा ने स्टडी लीव पर जाने के लिए आवेदन कर दिया.
आईसीसीआर के एक प्रोजेक्ट पर जाने के लिए स्टडी लीव देने के उनके आवेदन पर हरियाणा सरकार कोई निर्णय नहीं ले रही थी. एस के मिस्रा ने तब देवीलाल से मुलाक़ात करने का फ़ैसला किया.
हालांकि मिस्रा को डर था कि अगर वो मुलाक़ात का समय मांगेंगे तो देवीलाल उसके लिए कतई राज़ी नहीं होंगे. इसलिए वो विना अपॉएंटमेंट के गए.
देवीलाल से एस के मिस्रा ने कहा कि उन्हें छुट्टी चाहिए तो देवीलाल बोले, "वापस आ जाओ." मिस्रा ने कहा, "आप तो मुझे जेल भेज रहे थे. आपको अगर विश्वास है तो मैं वापस आ जाता हूँ. जहाँ मर्ज़ी आए लगा दीजिए." इस पर देवीलाल ने कहा कि आप मेरे प्रधान सचिव के तौर पर वापस आइए.
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शशिकाँत मिस्रा याद करते हैं, "एक बार मुझे देवी लाल के साथ चीन जाने का मौका मिला. मुझे ये तो पता था कि देवीलाल माँसाहारी है क्योंकि एक बार मैं उन्हें दिल्ली के गेलार्ड रेस्तराँ ले कर गया था जहाँ उन्होंने चिकन का आनंद लिया था, लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि वो शराब भी पीते हैं. फ़्लाइट में मैं उनकी पिछली सीट पर बैठा हुआ सो रहा था. मेरी हल्की सी आँख खुली तो देखता क्या हूँ कि एयर होस्टेस देवी लाल के गिलास में शैंम्पेन डाल रही थी."
मिस्रा आगे कहते हैं, "मैंने जब दोबारा आँख बंद की तो देवीलाल ने अपने पीए को आवाज़ लगाई और कहा कि ज़रा छोरी से कहो अंगूर का रस फिर ले आए. पूरी फ़्लाइट के दौरान देवीलाल ने शैंम्पेन की दो बोतलें ख़त्म कीं. जब हम बीजिंग पहुंचे तो हम दोनों के कमरे अग़ल-बग़ल में थे. एक दिन शाम को अपनी रौ में मेरे साथ चलते हुए बार पहुंच गए. बार मैन ने पूछा वही सर्व करूँ जो आप रोज़ लेते हैं. देवीलाल सकपका गए. मुझे वो नहीं बताना चाहते थे कि वो शराब पीते हैं. उन्होंने हड़बड़ा कर कहा आइस क्रीम खिलाओ."
थोड़े दिनों में उनकी सरकार गिर गई और भजन लाल नए मुख्यमंत्री बने. उन्होंने भी एसके मिस्रा को इस पद पर बने रहने के लिए कहा. इसके बाद इंदिरा गाँधी उन्हें भारतीय पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक बना कर दिल्ली ले आईं.
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लेकिन यहाँ एसके मिस्रा के पर्यटन मंत्री अजीत प्रसाद शर्मा से गहरे मतभेद हो गए. दोनों के मतभेद सुलझाने की कोशिशें हुईं लेकिन जब शर्मा अपने को बदलने को तैयार नहीं हुए तो इंदिरा गांधी ने उन्हें मंत्रिमंडल से बर्ख़ास्त कर दिया और मिस्रा को फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया के निदेशक की नई ज़िम्मेदारी दी गई.
उनकी देखरेख में अमरीका, फ़्रांस, सोवियत संघ और जापान में फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया आयोजित किए गए. नेशनल जियोग्राफ़िक ने अपने चार अंकों में फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया को कवर पेज पर रखा. इसके अलावा टाइम, न्यूज़ वीक और आर्किटेक्चरल डाइजेस्ट ने भी इसे कवर किया. संयोग की बात थी कि गाँधी फ़िल्म उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई.
इस सबका प्रभाव था कि भारत में यूरोपीय देशों से पर्यटकों की संख्या में 80 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. शशिकांत मिस्रा ने ही दिल्ली के पास सूरजकुंड मेले की शुरुआत की. उन्होंने भारत भर के कलाकारों को सूरजकुंड आने के लिए आने-जाने का किराया दिया और उनके रहने की व्यवस्था की. यहां आकर वो अपनी चीज़ें ग्राहकों को सीधे बेचते थे, जिससे बिचौलिए द्वारा कमाया जाने वाला लाभ भी उन्हें मिलता था.
मिस्रा ने ही इस मेले की निश्चित तारीख तय कराई. पहली फ़रवरी से 15 फ़रवरी तक. ट्रेवल एजेंसियाँ इसके बारे में अपने ब्रोशर में लिखने लगीं और लोगों के बीच इस मेले का इंतज़ार शुरु हो गया. 1992 में जब चंद्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री बने जो उन्होंने एस के मिस्रा को अपना प्रधान सचिव बनाया. उस समय मिस्रा अमरीका में थे. उनकी ग़ैर मौजूदगी में ही उनकी नियुक्ति के आदेश जारी हो गए.
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जब वो चंद्रशेखर से मिलने गए तो उन्होंने कहा, ''मैंने तुमसे संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन तुम मिले नहीं. मैंने कहा कि आदेश जारी किए जाएं. मैं तुम्हें मना लूँगा.''
एस के मिस्रा याद करते हैं कि चंद्रशेखर को वो सम्मान नहीं मिला जिसके कि वो हक़दार थे. एक बार गुलमर्ग में कुछ स्वीडिश इंजीनयरों का अपहरण कर लिया गया. स्वीडन के राजदूत चंद्रशेखर से मिलने आए.
उन्होंने कहा, चलो नवाज़ शरीफ़ से बात करते हैं. फ़ोन पर उनके पहले शब्द थे, ''भाई जान, वहाँ बैठे-बैठे क्या बदमाशी करा रहे हो?'' इस पर नवाज़ शरीफ़ बोले कि इससे हमारा कोई वास्ता तो है नहीं. उनको तो मिलिटेंट्स ने पकड़ लिया.
इस पर चंद्रशेखर ने कहा, ''असलियत हमें मालूम है. असलियत आपको भी मालूम है. मुझे प्रेस में जाना नहीं है. मानवता के नाते ये इंजीनियर कल सुबह तक छूट जाने चाहिए और मुझे कुछ सुनना नहीं है.'' एस के मिस्रा कहते हैं कि अगले ही दिन ये इंजीनियर रिहा कर दिए गए.
इसके बाद एसके मिस्रा संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य बने. उनका कहना है कि उन्हें पंद्रह मिनट में ही अंदाज़ा लग जाता था कि सिविल सर्विस के उम्मीदवार में दम है या नहीं.
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एक बार जालंधर की एक लड़की सिविल सर्विस का इंटरव्यू देने आई. उससे बाकी सदस्यों नें छह सवाल पूछे. वो किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे पाई. जब एसके मिस्रा की बारी आई तो उन्होंने कहा, ''तुमने अपने सीवी में लिखा है कि तुम डिबेटर हो. मैं एक प्रीपोसीशन रखता हूँ. तले हुए अंडे ऑमलेट से बेहतर होते हैं. इस पर बहस करो.''
लड़की ने कहा कि मुझे सोचने के लिए क्या दो मिनट का समय दिया जा सकता है. उन्होंने कहा ठीक है. उसके बाद लड़की ने उस विषय पर बेहतरीन भाषण दिया. इसके बाद एसके मिस्रा ने कहा कि अब मोशन के खिलाफ़ बोलो. उसने फिर बहुत अच्छा बोला.
एस के मिस्रा ने उस लड़की को 80 फ़ीसदी अंक दिए. उनके साथियों ने कहा कि उसने किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया. तब भी आप उसे इतने अंक दे रहे हैं. मिस्रा का जवाब था, ''मैंने उससे जो सवाल पूछा उसकी उम्मीद वो नहीं कर रही थी. उसने क्विक रिस्पॉन्स दिया. एक थिंकिंग अफ़सर में और क्या चाहिए?"
दिसंबर का पहला हफ्ता डॉ भीमराव आंबेडकर के
महापरिनिर्वाण का है और अप्रैल का दूसरा हफ्ता उनके जन्मदिन का. यह दोनों
ही अवसर इस देश के वोट के याचकों के लिए पिछले 20 वर्षों से बहुत
महत्वपूर्ण हो गया है. डॉ आंबेडकर का महत्व भारत की अस्मिता में बहुत
ज़्यादा है लेकिन उनको इस देश की जातिवादी राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों ने
आम तौर पर नजरअंदाज ही किया. लेकिन जब डॉ भीमराव आंबेडकर के नाम पर
राजनीतिक अभियान चलाकर उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनने
का अवसर मिला तब से डॉ आंबेडकर के अनुयायियों को अपनी तरफ खींचने की होड़
लगी हुयी है. इसी होड़ में बहुत सारी भ्रांतियां भी फैलाई जा रही हैं. उन
भ्रांतियों को दुरुस्त करने की ज़रुरत आज से ज़्यादा कभी नहीं रही थी.
डॉ बी आर आंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण काम मिला था. वे
ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे. उनको भी उम्मीद नहीं थी कि उनको इतना
महत्वपूर्ण कार्य मिलेगा लेकिन संविधान सभा के गठन के समय महात्मा गांधी
जिंदा थे और उनको मालूम था कि राजनीतिक आज़ादी के बाद आर्थिक आज़ादी और
सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को संविधान के दायरे में ही लड़ा जाना है और उसके लिए
डॉ आंबेडकर से बेहतर कोई नहीं हो सकता .
संविधान सभा की इस महत्वपूर्ण कमेटी के अध्यक्ष के रूप में डा.अंबेडकर का
काम भारत को बाकी दुनिया की नज़र में बहुत ऊपर उठा देता है. यहाँ यह समझ
लेना ज़रूरी है कि संविधान सभा कोई ऐसा मंच नहीं था जिसको सही अर्थों में
लोकतान्त्रिक माना जा सके.
उसमें 1943 के चुनाव में जीतकर आये लोग शामिल थे. इस बात में शक नहीं है
कि कुछ तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे लेकिन एक बड़ी संख्या ज़मींदारों
, राजाओं , बड़े सेठ साहूकारों और अंग्रेजों के चापलूसों की थी. 1943 के
चुनाव में वोट देने का अधिकार भी भारत के हर नागरिक के पास नहीं था. इनकम
टैक्स, ज़मींदारी और ज़मीन की मिलकियत के आधार पर ही वोट देने का अधिकार मिला
हुआ था. इन लोगों से एक लोकतांत्रिक और जनपक्षधर संविधान पास करवा पाना
बहुत आसान नहीं था. महात्मा गांधी का सपना यह भी था कि सामाजिक न्याय भी हो
, छुआछूत भी खत्म हो . इस सारे काम को अंजाम दे सकने की क्षमता केवल डॉ
आंबेडकर में थी और उनका चुनाव किया गया. कोई एहसान नहीं किया गया था .
डॉ आंबेडकर ने आज से करीब सौ साल पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने
शोधपत्र में जो बातें कह दी थीं उनका उस दौर में भी बहुत सम्मान किया गया
था और वे सिद्धांत आज तक बदले नहीं हैं. उनकी सार्थकता कायम है. जिन लोगों
ने डॉ भीमराव आंबेडकर को सम्मान दिया था उसमें जवाहरलाल नेहरू का नाम
सरे-फेहरिस्त है लेकिन आजकल एक फैशन चल पड़ा है कि नेहरू को हर गलत काम के
लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाय. कुछ लोग यह भी कहते पाए जा रहे हैं कि डॉ भीमराव
आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा नेहरू से परेशान हो कर दिया था.
यह सरासर गलत है . 21 सितम्बर 1951 के अखबार हिन्दू में छपा है कि कानून
मंत्री डॉ बी आर आंबेडकर ने 27 सितम्बर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा
दे दिया था.
उनके इस्तीफे का कारण यह था कि संविधान के लागू हो जाने के बाद तत्कालीन
संसद में लगातार हिन्दू कोड बिल पर बहस को टाला जा रहा था और डॉ बी आर
आंबेडकर इससे बहुत निराश थे. उन दिनों कांग्रेस के अन्दर जो पोंगापंथियों
का बहुमत था वह जवाहरलाल नेहरू और डॉ आंबेडकर की चलने नहीं दे रहा था.
इस्तीफ़ा देने के कई दिन बाद तक जवाहरलाल ने मंज़ूर नहीं किया था. लेकिन जब
डॉ आंबेडकर ने बार बार आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि 6 अक्टूबर को जब संसद
का सत्रावसान हो जाएगा तब बात करेगें. तब तक इस बात को सार्वजनिक न किया
जाए .
डॉ बी आर आंबेडकर की 125वीं जयन्ती पर इस बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है कि
जिस तरह की विचारधारा के लोग आज बीजेपी में बड़ी संख्या में मौजूद हैं , उस
विचारधारा के बहुत सारे लोग उन दिनों कांग्रेस के संगठन और सरकार में भी
थे. सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी और जवाहरलाल अकेले पड़ गए थे.
प्रगतिशील और सामाजिक बराबारी की उनकी सोच को डॉ आंबेडकर का पूरा समर्थन
मिलता था लेकिन डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद कम से कम हिन्दू कोड बिल के
सन्दर्भ में तो वे बिलकुल अकेले थे. यह भी समझना ज़रूरी है कि हिन्दू कोड
बिल इतना बड़ा मसला क्यों था कि देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता, इसको पास
कराने को लेकर अकेले पड़ गए थे .
हिन्दू कोड बिल पास होने के पहले महिलाओं के प्रति घोर अन्याय का माहौल
था. हिन्दू पुरुष जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकता था और यह महिलाओं को
अपमानित करने या उनको अधीन बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार था. आजादी की
लड़ाई के दौरान यह महसूस किया गया था कि इस प्रथा को खत्म करना है. कांग्रेस
के 1941 के एक दस्तावेज़ में इसके बारे में विस्तार से चर्चा भी हुयी थी.
कानून मंत्री के रूप में संविधान सभा में डॉ आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल का
जो मसौदा रखा उसमें आठ सेक्शन थे . इसके दो सेक्शनों पर सबसे ज़्यादा विवाद
था. पहले तो दूसरा सेक्शन जहां विवाह के बारे में कानून बनाने का प्रस्ताव
था. इसके अलावा पांचवें सेक्शन पर भी भारी विरोध था. डॉ बी आर आंबेडकर ने
महिलाओं और लड़कियों को साझा संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार देने की बात
की थी. इसके पहले विधवाओं को संपत्ति का कोई अधिकार नहीं होता था. डॉ
आंबेडकर ने प्रस्ताव किया था कि उनको भी अधिकार दिया जाए. बेटी को वारिस
मानने को भी पोंगापंथी राजनेता तैयार नहीं थे . यह कट्टर लोग तलाक को भी
मानने को तैयार नहीं थे जबकि डॉ आंबेडकर तलाक को ज़रूरी बताकार उसको महिलाओं
के निर्णय लेने की आजादी से जोड़ रहे थे .
आंबेडकर का ज़बरदस्त विरोध हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू उनके साथ खड़े रहे.
डॉ आंबेडकर ने हिन्दू की परिभाषा भी बहुत व्यापक बताई थी. उन्होंने कहा कि
जो लोग मुस्लिम, ईसाई , यहूदी नहीं है वह हिन्दू है. कट्टरपंथियों ने इसका
घोर विरोध किया. संविधान सभा में पचास घंटे तक बहस हुयी लेकिन कट्टरपंथी
भारी पड़े और कानून पर आम राय नहीं बन सकी. नेहरू ने सलाह दी कि विवाह और
तलाक़ के बारे में फैसला ले लिया जाए और बाकी वाले जो भी प्रावधान हैं उनको
जब भारत की नए संविधान लागू होने के बाद जो संसद चुनकर आ जायेगी उसमें बात
कर ली जायेगी लेकिन कांग्रेस में पुरातनपंथियों के बहुमत ने इनकी एक न चलने
दी .बाद में डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद संसद ने हिन्दू कोड बिल में
बताये गए कानूनों को पास तो किया लेकिन हिन्दू कोड बिल को नेहरू की सरकार
ने कई हिस्सों में तोड़कर पास करवाया. उसी का नतीजा है कि हिन्दू मैरिज
एक्ट, हिन्दू उत्तराधिकार एक्ट, हिन्दू गार्जियनशिप एक्ट, और हिन्दू एडापशन
एक्ट बने . यह सारे कानून डॉ आंबेडकर की मूल भावना के हिसाब से नहीं थे
लेकिन इतना तो सच है कि कम से कम कोई कानून तो बन पाया था.
इसलिए डॉ आंबेडकर के मंत्रिमंडल के इस्तीफे का कारण जवाहरलाल नेहरू को
बताने वाले बिकुल गलत हैं .उनको समकालीन इतिहास को सही तरीके से समझने की
ज़रुरत है .
यह सवाल किसी को
भी बेतुका और अटपटा लग सकता है कि भारत माता कहां रहती हैं. पंत ने जब
भारत माता को 'ग्रामवासिनी' कहा था, तो उन्होंने इसे किसानों से जोड़ा था.
साल 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में अंगरेजों से जो सिपाही लड़े थे, वे
किसानों के ही बेटे थे. भारत माता का बिंब उन्नीसवीं सदी में निर्मित हुआ.
कांग्रेस की स्थापना (1885) के पहले 1873 में किरनचंद्र बनर्जी के नाटक
'भारत माता' और 1883 में बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' में से उपस्थित हो चुकी
थीं. मुसलिम लीग (1906) और आरएसएस (1925) का गठन बहुत बाद में हुआ. 'भारत
माता की जय' का नारा स्वाधीनता-आंदोलन से जुड़ा है. आधुनिक भारतीय चित्रकला
के जनक अवनींद्रनाथ ठाकुर ने 1905 में जो चित्र बनाया, उसका शीर्षक पहले
'बंग माता' था. बाद में उसे 'भारत माता' का शीर्षक दिया गया. उस चित्र में
उनके चार हाथ-शिक्षा, दीक्षा, अन्न और वस्त्र हैं.
ब्रिटिश भारत में उनका 'आंचल' 'मैला' नहीं था. 1905 में ही कन्हैयालाल
मुंशी ने अरविंद घोष से किसी के भी राष्ट्रभक्त होने के तरीकों के बारे में
पूछा था. अरविंद ने उन्हें ब्रिटिश भारत का नक्शा दिखा कर उसे भारत माता
का चित्र बताया था. हिंदू राष्ट्रवाद के पिताओं में से एक अरविंद घोष ने
पर्वतों, नदियों, जंगल आदि को भारत माता का शरीर कहा था.
उनकी सभी संतानों
को उन्होंने उस शरीर की तंत्रिका बताया था. जीवित मां के रूप में उसे वे
देख रहे थे और उसकी पूजा करने को कह रहे थे. हमलावरों के खिलाफ 'भारत माता
की जय' के नारे लगाये जाते थे. आज भारत पर किसने हमला किया है? हमलावर कौन
है? कहां है? किस देश में है? भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक लालकृष्ण
आडवाणी इससे जुड़े विवाद को 'व्यर्थ का विवाद' कह रहे हैं और
व्यवसायी-संन्यासी रामदेव अनिवार्य रूप से इस नारे को लगाने के लिए कानून
बनाने की सलाह दे रहे हैं.
भारत माता में भारत कहां है? उनकी संतानों ने उनकी रक्षा के लिए उसके
'मैला आंचल' को स्वच्छ करने के लिए क्या किया है? वे सिर्फ हिंदुओं की माता
हैं या मुसलमान, सिख, ईसाई, जो भारतीय हैं, उनकी भी माता हैं? अंगरेजों से
लड़ाई में सभी शामिल थे- दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, मुसलमानों,
कंगालों, फटेहालों, बेरोजगारों, किसानों, मजदूरों, श्रमजीवियों के यहां वह
भारत माता हैं या अंबानी-अडानी के यहां? दलितों में वे रामविलास पासवान और
उदित राज के यहां हैं या मायावती के यहां? वे 'देशभक्तों' के यहां हैं या
'देशद्रोहियों' के यहां? वे जेएनयू में रह रही हैं या उन अनेक
विश्वविद्यालयों में, जहां छात्र-छात्राएं शांत हैं? वे ईमानदारों के यहां
हैं या भ्रष्टाचारियों के यहां? वे हत्यारों के साथ हैं या निर्दोषों के
साथ? वे 'ग्रामवासिनी' हैं या 'नगरवासिनी'? क्या वे मात्र नक्शे में हैं?
भारत का नक्शा बार-बार बदला है.
महाराष्ट्र में विधायक वारिस पठान, जिसने 'भारत माता की जय' नहीं कहा था,
क्या उनका शत्रु है? भारत माता एक विशेष राजनीतिक दल से जोड़ दी गयी हैं या
सभी राजनीतिक दल उनके अपने हैं? क्या भारत माता 'कांग्रेस मुक्त भारत'
चाहती हैं? भारतीय संविधान में उनका कहीं जिक्र नहीं है. उनकी संतानें
संविधान को मानें या उनकी जय-जयकार करनेवालों के साथ चलें. भारत माता की
काल्पनिक छवि और वास्तविक छवि में अंतर है. वे नागपुर के साथ कानपुर में भी
निवास करती हैं. भारत माता को 'धर्मतंत्रात्मक हिंदू राज्य का संकेत शब्द'
(कोड वर्ड) बना दिया गया है. 'राष्ट्रवाद' के बाद अब 'भारत माता' को क्या
एक हथियार के रूप में नहीं अपनाया जा रहा है? पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर
की संतानें क्या उनकी संतानें नहीं हैं?
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में केवल 'वंदे मातरम' और 'भारत माता की जय'
के ही नारे नहीं लगते थे. आज जो भगत सिंह का नाम लेते हैं, उन्हें उन दो
नारों को अवश्य गुंजाना चाहिए, जो भगत सिंह लगाते थे- 'इंकलाब जिंदाबाद' और
'साम्राज्यवाद का नाश हो'. अभी के 'राष्ट्रपेमी' ये नारे नहीं लगाते.
नारों का अपने स्वार्थ में किया गया इस्तेमाल नारों के वास्तविक अर्थ को
नष्ट करता है. चालाकी से लगाये गये नारे हमारी स्मृति से गौरवशाली कालखंड
को नष्ट करते हैं, जिसे अपनी सांसों में उतार कर ही हम आगे बढ़ेंगे. किसी
को भी किसी प्रकार का नारा लगाने को बाध्य नहीं किया जा सकता. भारत को
'हिंदू राष्ट्र' बनाने की किसी भी कोशिश के पक्ष में भारत माता कभी नहीं हो
सकतीं. भारतीय संविधान सबसे ऊपर है, जिसमें भारतीय जन सर्वोपरि है. भारत
माता का 'हिंदुत्व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल
उनकी वास्तविक छवि के विरुद्ध है.
प्रणब
मुखर्जी शायद हमारे सर्वाधिक सुविज्ञ यानी जानकार राजनेता हैं। खेद यह है
कि कम से कम हम पत्रकारों के लिए वे सबसे सतर्क रहकर बोलने वाले लोगों में
से हैं। उनसे बतियाने का मौका पाने वाले जानते हैं कि उन्होंने इंदिरा
गांधी की एक तरह से पूजा की है और आज भी उनके प्रशंसक हैं। अचरज नहीं कि वे
बड़ी खुशी से बतातेे हैं कि कैसे इंदिरा गांधी कहती थीं कि एक बार कोई बात
प्रणब के पेट में चली जाए, तो फिर बाहर नहीं आती। सिर्फ उनके पाइप से धुआं
निकलता है।
इसलिए यह बड़ी बात है कि उन्होंने संस्मरण प्रकाशित करने का फैसला लिया। वे
1980-96 की अवधि को उथल-पुथल भरे वर्ष बताते हैं। पहला खंड पिछले साल आया
था, जिसमें इससे पहले के दौर का वर्णन था। इस बार उथल-पुथल भरे दौर का
उनका वर्णन 1996 में पीवी नरसिंह राव के शासन के अंत के साथ खत्म होता है
और यह उनके पाइप पीने के दिनों का भी अंत है। हालांकि, इससे बड़ी उथल-पुथल
तो कांग्रेस ने इसके बाद देखी। 13 दिन की एनडीए सरकार, संयुक्त मोर्चा
सरकार के दो अल्पावधि प्रधानमंत्री, सीताराम केसरी का दौर और फिर सोनिया
गांधी का उत्थान। 1997-2013 के उस दौर के लिए आपको कुछ वर्ष और इंतजार करना
होगा। एक ऐसे समाज में जहां सार्वजिनक शख्सियतों की ईमानदार जीवनियों पर
स्याही के हमले होते हैं तथा पाबंदी लगती है, जहां ज्यादातर राजनेता लिखते
नहीं या लिख नहीं सकते, आत्मकथा चाहे जितनी अधूरी क्यों न हो, मूल्यवान
होती है। जिस दौर की बात की गई है, 1980-96, वह भी कोई कम उथल-पुथल भरा
नहीं था। यह संजय गांधी की मौत के साथ शुरू हुआ, जिसने कांग्रेस की राजनीति
और सत्ता के आंतरिक समीकरण नाटकीय रूप से बदल दिए। राजनीति में लाए गए
राजीव, संजय की तुलना में जरा भी राजनीतिक तेवर वाले नहीं थे।
राजीव की बजाय संजय के साथ प्रणब के रिश्ते बहुत सहज थे। वे बहुत गर्मजोशी
के साथ संजय के बारे में बताते हैं, लेकिन राजीव को लेकर सतर्कता और
अनिश्चितता दिखाई देती है। प्रणब शक की कोई गुंजाइश नहीं रखते कि राजीव
गांधी जो ‘गैर-राजनीतिक’ मित्र लेकर आए थे, उन पर उन्हें संदेह था। खासतौर
पर अरुण नेहरू और विजय धर को लेकर। आप संजय के वफादार के रूप में देखे जाने
वाले लोगों के प्रति राजीव का संदेह और प्रणब व कमलनाथ सहित पुरानी
व्यवस्था के प्रति अधैर्य भी महसूस कर सकते थे। प्रणब बताते हैं कि कैसे
आरके धवन को बाहर किया गया। उन्हें अपने कागजात समेटने का भी वक्त नहीं
दिया गया। उन्हें बताया गया कि उनके कागजात पैक करके घर भेज दिए जाएंगे।
प्रणब का दृष्टिकोण इससे पता चलता है कि वे खुद के लिए ‘आउटकास्ट’
(बहिष्कृत) शब्द का इस्तेमाल करते हैं। तब कमलापति त्रिपाठी और नरसिंह राव
को छोड़कर कांग्रेस का कोई व्यक्ति उनसे रिश्ता नहीं रखना चाहता था। राव को
वे स्नेह के साथ ‘पीवी’ लिखते हैं, जिससे उनके विशेष रिश्ते जाहिर होते
हैं।
राजनीतिक साइबेरिया के वर्षों का वे जिस ईमानदारी के साथ वर्णन करते हैं वह
बहुत ही प्रभावशाली है, फिर चाहे उसमें किस्सों की भरमार न भी हो। वे
बताते हैं कि कैसे कैबिनेट, फिर कार्यसमिति और पार्टी संसदीय बोर्ड से
बाहर कर दिए जाने के बाद वे संसद के केंद्रीय हॉल में अकेले घूमते रहते थे।
1985 में मुंबई के कांग्रेस अधिवेशन में राजीव के ‘सत्ता के दलालों’ के
हलचल मचाने वाले भाषण (जिसे प्रणब सहित कांग्रेस कार्यसमिति ने बहुत कुछ
जोड़ने के बाद मंजूरी दी थी) के बाद उन्हें ही अखिल भारतीय कांग्रेस समिति
के ख्यात प्रस्ताव का समर्थन करने को कहा गया था। प्रणब ने अभी आधा भाषण भी
नहीं दिया था कि लंच की घोषणा हो गई। फिर वहीं उन्हें कार्यसमति से निकाल
दिया गया। अपनी परंपरावादिता को वे स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि हो
सकता है कि आधुनिक व टेक्नोलॉजी प्रेमी राजीव ने इससे असहजता महसूूस करते
हों। प्रणब लिखते हैं, राजीव विदेशी निवेश का स्वागत कर रहे थे,
अर्थव्यवस्था खोलना चाहते थे, जबकि प्रणब की परंपरावादी मानसिकता
सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति झुकाव रखती थी। प्रणब ने भोपाल को लेकर
क्राइसिस ग्रुप की बैठक में राजीव को यूनियन कार्बाइड का राष्ट्रीयकरण न
करने के लिए यह कहकर मनाया था कि चूंकि कार्बाइड बहुराष्ट्रीय कंपनी है तो
इसे जनता पार्टी द्वारा कोकाकोला व आईबीएम को बाहर निकालने की तरह लिया
जाएगा। यह भी कहा कि उनकी अभी कार्यवाहक सरकार है और उन्हें बड़े फैसले नहीं
लेने चाहिए, जिसे उन्होंने मान लिया।
प्रणब बार-बार कहते हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके मन में
अंतरिम प्रधानमंत्री बनने का विचार कभी नहीं आया, हालांकि कानाफूसी करने
वालों ने राजीव के दिमाग में संदेह के बीज बोने के लिए ऐसा कहा होगा। वे
कहते हैं कि सबसे पहले राजीव को शपथ दिलाने का सुझाव देने वालों में वे थे।
हालांकि, संवैधानिकता के अहसास के चलते उन्होंने दो शर्ते रख दी थीं कि
पहले कांग्रेस संसदीय बोर्ड राजीव को चुने और दूसरा, राष्ट्रपति जैल सिंह
का इंतजार किया जाए, जो उस शाम राजधानी लौटने वाले थे। प्रणब लिखते हैं,
‘लेकिन राजीव के आसपास के दरबारियों को जल्दी पड़ी थी।’ प्रधानमंत्री
कार्यालय के प्रधान सचिव पीसी अलेक्जेंडर और राजीव के साथी अरुण नेहरू जैल
सिंह का इंतजार किए बिना तत्काल शपथ विधि चाहते थे, क्योंकि (ब्ल्यू स्टार
ऑपरेशन के बाद) गांधी परिवार से रिश्तों में तनाव के चलते वे जैल सिंह पर
भरोसा नहीं करते थे। यदि जैल सिंह राजीव को नियुक्त करने से इनकार कर दें
तो क्या होगा? प्रणब को भरोसा था कि जैल सिंह ऐसा कुछ नहीं करेंगे, इसलिए
उन्होंने पूछा कि यदि इससे नाराज होकर वे उपराष्ट्रपति की नियुक्ति को
मानने से इनकार कर दें तो क्या होगा, क्योंकि देश के भीतर ही यात्रा पर
होने से उन्होंने उपराष्ट्रपति को यह अधिकार नहीं दिया था।
प्रणब की दलीलों से वह दिन निकल गया। कांग्रेस संसदीय बोर्ड ने राजीव का
‘चयन’ कर लिया, वह भी कांग्रेस संसदीय दल को बुलाए जाने के पूर्व। प्रणब ने
वाकई साहसपूर्वक एक नौकरशाह मात्र (अलेक्जेंडर) के अधिकार और बाहरी
व्यक्ति (अरुण नेहरू) द्वारा नए प्रधानमंत्री के चयन और उनकी नियुक्ति के
तरीके पर सवाल उठाया (खासतौर पर तब जब उनके दो बच्चों ने कांग्रेस के भीतर
ही अपना कॅरिअर चुना था)। किंतु वे सीधे इसकी आलोचना नहीं करते। सिर्फ इतना
कहते हैं कि इस पर विद्वानों व विश्लेषकों को भविष्य में विचार करना
चाहिए। यह कहना बहुत सरलीकरण होगा कि प्रणब आलोचना से बच रहे हैं। वे तो
खास अपनी शैली में बात कह रहे हैं।
बात उन दिनों की है जब पंजाब अलगाववादी खालिस्तान आंदोलन की आंच में झुलस रहा था। स्वर्ण मंदिर में छिपे जरनैल सिंह भिंडरावाले और दूसरे आतंकवादियों के खिलाफ सेना का ऑपरेशन ब्लू स्टार हो चुका था और उसकी हिंसक परिणति इंदिरा गांधी की हत्या और सिख विरोधी दंगों के रूप में देश के सामने आ चुकी थी। सारे प्रमुख अकाली नेताओं को जेल भेजा जा चुका था। राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और अर्जुन सिंह पंजाब के राज्यपाल। हम जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जो समाजवादी विचारधारा के छात्र संगठन समता युवजन सभा से जुड़े थे, दिल्ली से अमृतसर तक की पदयात्रा निकाल कर आतंकवाद सांप्रदायिकता और अलगाववाद के खिलाफ अलख जगा रहे थे।
कांग्रेस उन दिनों वही कर रही थी जो भाजपा अब कर रही है, यानी देश की एकता अखंडता की पूरी जिम्मेदारी उसकी है और जो उसका विरोध करे वह देश की अखंडता के खिलाफ है। उन्हीं दिनों समाजवादी विचारधारा वाले छात्र संगठन समता युवजन सभा की जेएनयू इकाई ने जेल से तत्काली रिहा हुए शीर्ष अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल की जनसभा विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित की। इसे लेकर विश्वविद्यालय में विवाद छिड़ गया। कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई की जेएनयू इकाई ने जनसभा के विरोध में परिसर में पोस्टर और प्रचार अभियान छेड़ दिया। जिनमें लोंगोवाल को बुलाने का मतलब देश की अखंडता से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया गया। लेकिन तब भी आयोजक छात्रों को राष्ट्रविरोधी नहीं कहा गया और न ही किसी के खिलाफ पुलिस कार्रवाई हुई। लोंगोवाल आए और जनसभा जबर्दस्त तरीके से सफल हुई।
दिलचस्प बात यह है कि तब जेएनयू की एबीवीपी इकाई जो नाम मात्र की थी, ने जनसभा का समर्थन किया और एनएसयूआई के सिवा शेष सभी छात्र संगठनों एसएफआई, एआईएसएफ, पीएसओ, फ्री थिंकर्स ने लोंगोवाल की जनसभा में शामिल होकर उसे कामयाब बनाया। आज कमोबेश वही स्थिति फिर है जहां एबीवीपी के सिवा सभी छात्र संगठन एक साथ खड़े हैं।
इस घटना का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया कि जेएनयू में वाद विवाद मत विभिन्नता और असहमति की लंबी और पुरानी परंपरा है। जेएनयू केबाहर रहने वाले लोग इसे लेकर कई तरह केभ्रम पाले रहते हैं। जिनमें स्वेच्छाचारिता का अड्ड़ा, यौन स्वच्छंदता, मादक पदार्थों केसेवन की बहुतायत, अराजक विचारधारा और अराजक जीवन शैली. नक्सली बनाने की फैक्ट्री जैसे कई आरोप शामिल रहे हैं। इसके बावजूद देश के इस शीर्ष विश्वविद्यालय पर देशद्रोह को पनपाने केआरोप कभी नहीं लगे। हालाकि जेएनयू में आने केबाद जो तस्वीर मिलती है वह बाहरी धारणा से एकदम अलग होती है। एक खुला मुक्त वातावरण। जहां देश के हर हिस्से हर वर्ग और सामाजिक वर्ग के छात्र छात्राएं एकदूसरे से इस कदर घुल मिल जाते हैं मानों वर्षों से एक दूसरे को जानते हों। न जाति की दीवार, न धर्म की न भाषा की न क्षेत्र की उनके बीच आती है। शिक्षकों और छात्रों के बीच न सिर्फ गुरु शिष्य बल्कि साथी जैसे रिश्ते बनते हैं जो आजीवन चलते हैं।
सिर्फ शहरी ही नहीं बल्कि दूर दराज गांवों से आए छात्र छात्राओं के बीच ऐसे सहज सामान्य रिश्ते बनते हैं जो न सिर्फ यौन कुंठाओं को खत्म करते हैं बल्कि नर नारी समानता के विचार को व्यवहारिक भी बनाते हैं। विचारों की आज़ादी, तर्क करने की स्वतंत्रता और देश, समाज और दुनिया भर की समस्याओं की चिंता, अंतर्विरोधों पर बहस, इतिहास और समाज की तमाम तरह की व्याख्याओं के बीच अपनी समझ विकसित करने का मौका जो जेएनयू में मिलता है, वह देश के अन्य विश्वविद्यालयों में कितना मिलता है, कह नहीं सकता।
जहां तक जेएनयू से निकलने वाले छात्रों की वैचारिक निष्ठा और देशभक्ति का प्रश्न है तो यह जानना भी जरूरी है कि परस्पर वैचारिक अंतर्विरोधों के बावजूद इस विश्वविद्यालय केछात्र किसी भी दौर में देश में होने वाले किसी भी सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन में सक्रिय भागीदार रहे हैं।
हिंदी में सबसे पहले शोध निबंध लिखने की अलख जेएनयू में ही जगाई गई। 1971 के भारत पाक युद्ध के दौरान यहां के छात्रों ने सैनिकों के लिए रक्तदान किया। 1974-75 के जयप्रकाश आंदोलन के दौर में जिन जवाहर लाल नेहरू के नाम पर यह विश्वविद्यालय है, उनकी बेटी इंदिरा गांधी के खिलाफ जेएनयू के छात्र सड़कों पर उतरे। जेल गए। देश की राजनीति की हर धारा में उस दौर के छात्र नेता आज मुख्य भूमिका में नजर आते हैं। नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के सिख विरोधी दंगों में जब दिल्ली या तो दुबकी हुई थी, या उनमें शामिल थी, तब सबसे पहले जेएनयू के छात्र बाहर निकले और उन्होंने अपने आसपास के इलाकों में सिखों की सुरक्षा की। शांति मार्च निकाले और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) के युवा डाक्टरों के साथ मिलकर दंगा पीडि़त परिवारों के लिए चिकित्सा और राहत सामग्री लेकर जेएनयू के छात्र और शिक्षक ही विश्वविद्यालय की बसों में बैठकर दिल्ली केउन इलाकों में गए जो दंगों की आग में झुलस रहे थे। यही नहीं दंगों के लिए कथित रूप से दोषी बताए जाने वाले कांग्रेस के बड़े नेताओं और राजीव गांधी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने वाले जेएनयू के ही छात्र थे। तब आज देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाले और आगे चलकर सिख विरोधी हिंसा पर सियासी रोटियां सेंकने वाले घरों में बैठे थे। इसके अगले ही महीने जब दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो सबसे पहले जेएनयू के ही छात्र उसके खिलाफ सड़कों पर उतरे। कई छात्र भोपाल गए। गैस पीडि़तों की मदद केसाथ उनकी आवाज को दिल्ली के दरबार तक पहुंचाने का जरिया बने।
जम्मू कश्मीर में राजीव गांधी ने फारुख अब्दुल्ली की सरकार को बर्खास्त करके उनके बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह को मुख्यमंत्री बनाया तो जेएनयू के छात्रों ने फारुख को बुलाया और उनकी बात सुनी। श्रीलंका में जब तमिल गुटों के बीच हिंसक झड़पें हो रही थीं और लिट्टे दूसरे गुटों के सफाए में जुटा था तब जेएनयू के छात्रों ने फोटो प्रदर्शनी और वहां से बचकर आए तमिल नेताओं की सभाएं कराकर उसे सबके सामने लाने का काम किया। जाफना में तमिल जनता पर श्रीलंकाई फौज के दमन के खिलाफ जेएनयू के ही छात्र सड़क पर उतरे। प्राकृतिक संसाधनों की लूट से लेकर आदिवासियों पर जुल्म केखिलाफ जेएनयू से ही आवाज उठती रही है। बहुत कुछ है गिनाने के लिए। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद से लेकर देश के भीतर सामंतवादी अत्याचार, राजनीति केअपराधीकरण, विचारहीनता और पूंजीवादी शोषण से लेकर बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों की मनमानी का पर्दाफाश करने में जेएनयू के बौद्धिक जगत की अहम भूमिका है। इसके बावजूद अगर जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों की देशभक्ति को संदेहास्पद बनाकर उसे बंद करने की मुहिम इस देश के विरुद्ध एक बड़ी साजिश ही मानी जाएगी। जिसे राष्ट्रवाद की चाशनी में परोसकर पूरे वातावरण को जेएनयू के खिलाफ बनाने की कोशिश की जा रही है। जेएनयू से पढ़कर निकलने वाले छात्र वामपंथी, समाजवादी, गांधीवादी, उन्मुक्त चिंतक, अराजकतावादी और अब हिंदुत्ववादी तो हो सकते हैं, लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकते। जेएनयू की वैचारिक खाद पानी में देशद्रोह का बीज है ही नहीं। जेएनयू से निकले छात्र देश और दुनिया के तमाम क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। मौजूदा केंद्र सरकार में भी केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण से लेकर अनेक अधिकारी जेएनयू केही पूर्व छात्र हैं।
जेएनयू या किसी भी विश्वविद्यालय में भारत विरोधी नारेबाजी या कोई अन्य गतिविधि की जानकारी होते ही उसके खिलाफ तत्काली कानूनी कार्रवाई से किसे इनकार है। लेकिन अभी तक वह कथित छात्र नहीं पकड़े जा सके जिन्होंने भारत विरोधी नारेबाजी की। उन्हें पकडऩे की बजाय छात्रसंघ अध्यक्ष को आनन फानन में गिरफ्तार करके पुलिस अब उसके खिलाफ देशद्रोह के सबूत तलाश रही है। सरकार यह सब मौन होकर देख रही है। आखिर किस और किसके एजेंडे के तहत यह सब हो रहा है, यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब तलाशना होगा।
क़ुदरत ने सियाचिन को इंसानों के रहने के लिए नहीं बनाया. हालाँकि सियाचिन के बर्फ़ में जो अपार जल और जैविक सम्पदा है उसका सबसे बड़ा सुख इंसानों के लिए ही है. सदियों तक इस तथ्य का सम्मान हुआ. मुल्क के बँटवारे के वक़्त भी सियाचिन पर सीमा की काल्पनिक लक़ीर नहीं खींची गयी. 1949 के कराची समझौते और 1972 के शिमला समझौते में भी इसका लिहाज़ रहा. लेकिन बांग्लादेश युद्ध में मिली ऐतिहासिक और शर्मनाक हार के बाद पाकिस्तानी सेना ने सभी उसूलों से तौबा कर लिया. सियाचिन को लेकर सदियों से चली आ रही सोच तार-तार हो गयी.
पाकिस्तान के जन्म के वक़्त से ही उसके हुक़्मरानों में ये बीमारी घर कर गयी कि किसी भी तरह से भारत को नीचा दिखाया जाए. हर बार मुँह की ख़ाने से पाकिस्तान और ढीठ होता गया. नीयतख़ोर पाकिस्तान का क़ुदरत और क़िस्मत दोनों ने कभी साथ नहीं दिया. फिर भी वो हमेशा नयी ख़ुराफ़ात में ही लगा रहा. इसी फ़ितरत की वजह से 1975 में पाकिस्तान ने गुपचुप तरीक़े से सियाचिन में पर्वतारोहण की गतिविधियाँ शुरू की. उसकी मंशा थी कि पर्वतारोहण की बदौलत वो सियाचिन को अपने कब्ज़े वाला इलाक़ा बताने लगेगा. विदेशियों को आकर्षित करने के लिए पाकिस्तान ने सियाचिन से जुड़े लेख पर्वतारोहण सम्बन्धी पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाये.
1978 में ऐसे ही एक लेख पर भारतीय सेना के कर्नल नरेन्द्र कुमार उर्फ़ ‘Bull’ की नज़र पड़ी. अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ पर्वतारोही कर्नल नरेन्द्र उस वक़्त जम्मू-कश्मीर में गुलमर्ग स्थित High Altitude Warfare School के कमांडर थे. उन्होंने एक अमरीकी प्रकाशन में सियाचिन को पाकिस्तान की सीमा में देखा. 1981 में कर्नल नरेन्द्र ने सियाचिन के मुहाने तक गयी नियंत्रण रेखा के आख़िरी छोर NJ9842 से आगे की सरहद तय करने के लिए पर्वतारोही अभियान शुरू किया.
कर्नल नरेंद्र कुमार
इसमें उन्होंने पाया कि शिमला समझौते की अनदेखी करके पाकिस्तान सियाचिन में अवैध रूप से पर्वतारोही गतिविधियाँ चला रहा है. लेकिन अभियान के दौरान उन्होंने सियाचिन के सुदूर छोर पर भारतीय तिरंगा फ़हराकर नियंत्रण रेखा की सरहद तय कर दी. कर्नल नरेन्द्र कूड़ा रूपी उन पुख़्ता सबूतों के साथ अभियान से लौटे, जो विदेशी पर्वतारोहियों ने वहाँ फेंके थे.
1933 में रावलपिंडी में जन्मे कर्नल नरेन्द्र का परिवार विभाजन के बाद भारत आ गया. सेना में वो कुमायूँ रेज़ीमेंट की शान बने. पर्वतारोहण का उन्हें प्रचंड शौक़ था. इसी ने 1961 में उनके दोनों पैरों के अँगूठे छीन लिये. इसके बावजूद 20 बार कर्नल नरेन्द्र ने 8000 मीटर से ऊँची चोटियों को फ़तह किया. इस ऊँचाई को Death Zone कहा जाता है. उन्होंने एवरेस्ट (1965), नन्दादेवी (1964) और कंचनजंगा (1976) की दुर्गम चोटियों के अलावा पीर पंजाल, ज़ंसकार, लद्दाख, सालटोरो, कोराकोरम, हिमालय और अगिल जैसे सात ग्लेशियर रेंज को भी फ़तह किया. भारत को सियाचिन के रूप में श्वेत मुकुट देने का श्रेय कर्नल नरेन्द्र को ही है. इन्हीं उपलब्धियों की वजह से पर्वतारोही बिरादरी ने उन्हें ‘Bull’ उपनाम दिया.
1981 वाले कर्नल नरेन्द्र के सियाचिन अभियान की बदौलत भारतीय सेना बहुत चौकन्नी हो चुकी थी. तब सियाचिन की दुर्दान्त चोटियों पर पैनी नज़र रखने की रणनीति बनी. 1984 में सेना को लन्दन से ख़ुफ़िया जानकारी मिली कि पाकिस्तान ने अत्यधिक ऊँचाई वाली जगहों पर तैनात होने के लिए ज़रूरी पोशाकों और साज़ों-सामान का भारी आर्डर दिया है. ये आर्डर उसी कम्पनी को दिये गये जिससे भारत ऐसे सामान की ख़रीदारी करता था. इससे पहले पाकिस्तान को सियाचिन से भारतीय ब्रांड के सिगरेट के कुछ ख़ाली पैकेट मिले थे. इससे उसे लगा कि भारतीय लोग सियाचिन में आना-जाना कर रहे हैं.
1984 में ख़ुफ़िया तंत्र से भारत को पाकिस्तान की मंशा की भनक लग चुकी थी. लिहाज़ा, कर्नल नरेन्द्र के नेतृत्व में ऑपरेशन मेघदूत की तैयारी हुई. सेना की विशेष टुकड़ियों का सघन प्रशिक्षण तेज़ हुआ. लेकिन विशेष पोशाकों की कमी तो भारत में भी थी. इसीलिए 13 अप्रैल को ज़रूरी पोशाकों के भारत पहुँचने के अगले दिन ही कर्नल नरेन्द्र और उनके साथी सियाचिन की उन चोटियों पर जा जमे, जो सामरिक दृष्टि से बेहद अहम थीं.
इस तरह कर्नल नरेन्द्र ने ख़ून की एक बूँद बहाये बगैर सियाचिन के दो-तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. कुछ दिनों बाद जब पाकिस्तानी सेना वहाँ पहुँची तो उसने पाया कि सारी प्रमुख चोटियों पर भारतीय सेना क़ाबिज़ है. ये पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर पानी फेरने और उसका ग़ुरूर तोड़ने के लिए काफ़ी था.
सियाचिन में दोनों सेनाओं के बीच कई झड़पें हुई हैं. पाकिस्तान को हमेशा मुँह-तोड़ जवाब मिला है. क्योंकि भारतीय सीमा चौकियों का स्थान, सैनिकों की क्षमता और प्रशिक्षण का स्तर हमेशा पाकिस्तानियों के मुक़ाबले बहुत बेहतर रहा है. भारतीय सेना की ऐसी श्रेष्ठता के पीछे कर्नल नरेन्द्र की बहुत बड़ी भूमिका रही है. यही वजह है कि उनके जैसा सम्मान सेना में कभी किसी और को नहीं मिला. कर्नल होने के बावज़ूद सेना ने उन्होंने जनरल की हैसियत दी. उन्हें तीनों सेनाओं के सर्वोच्च सम्मान मैकग्रेगर पदक (MacGregor Medal) से भी नवाज़ा गया. जनरलों को मिलने वाला सर्वोच्च सम्मान परम विशिष्ट सेवा पदक (PVSM) और युद्धकाल का सर्वोच्च सम्मान अति विशिष्ट सेना पदक (AVSM) पाने वाले अपने रैंक के वो इकलौते सैनिक हैं.
कर्नल नरेन्द्र के सीने पर चमचमाते कीर्ति चक्र और पदमश्री भी उनकी शोभा बढ़ाते हैं. लेकिन मज़े की बात ये भी है कि कर्नल नरेन्द्र की ये सारी उपलब्धियाँ उस दौर के बाद की हैं जब 1961 में पैर के अँगूठों को गँवाने की वजह से उन्हें अपाहिज़ माना गया था. इसके बाद फ़ौज में बने रहने के लिए कर्नल नरेन्द्र को उस ‘Non-Liability Form’ पर दस्तख़त करने पड़े जिसका मतलब था कि यदि उन्हें कुछ हो गया तो उनकी पत्नी क्षतिपूर्ति की हक़दार नहीं होंगी. हालाँकि, ग्लेशियरों को चुनौती देने के अपने शौक़ की वजह से देश के इस वीर सैनिक को आगे चलकर अपने पैर की बाक़ी अँगुलियों से भी हाथ धोना पड़ा.
सभी ग्लेशियरों की तरह सियाचिन का भी सबसे बड़ा दुश्मन वहाँ का बेरहम मौसम ही है. वहाँ मुख्य रूप से मौसम ने ही सैनिकों को शहीद बनाया है. भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को क़रीब दोगुने सैनिकों को सियाचिन में गँवाना पड़ा है. इसी ज़मीनी सच्चाई को देखते हुए 1988 में पाकिस्तान ने सियाचिन को हथियाने के लिए नया पैंतरा तैयार किया. उसने सियाचिन के विसैन्यीकरण (Demilitarization) की पेशकश की. दलील दी गयी कि सियाचिन जैसे दुर्दान्त इलाके से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता. लिहाज़ा, दोनों देशों के ग़रीबों की तरक़्क़ी की क़ीमत पर सियाचिन में सेनाएँ रखने का भारी ख़र्च उठाना कोई समझदारी नहीं है.
1989 में भारत, सियाचिन को शान्ति क्षेत्र में तब्दील करने पर राज़ी भी हो गया. बशर्ते पाकिस्तान ये लिखकर दे कि वो सेना की मौजूदा स्थिति को ही नियंत्रण रेखा मानेगा. पाकिस्तान राज़ी नहीं हुआ. क्योंकि भीतरख़ाने उसकी बदनीयत ये है कि एक बार सियाचिन से भारतीय सेना हट जाएँ तो फिर वो मौक़ा देखकर ऊँची चोटियों पर कब्ज़ा कर लेगा. यदि एक बार ऐसा हो गया तो भारतीय सेना के लिए फिर से वहाँ क़ाबिज़ होना लगभग असम्भव होगा. यही वजह है कि सियाचिन को शान्ति क्षेत्र बनाने की कोशिशें नाक़ाम रही हैं. अलबत्ता, इसका एक ख़ुशगवार नतीज़ा ये ज़रूर रहा कि 2003 से सियाचिन में युद्ध-विराम लागू है.
युद्ध-विराम की वजह से अभी सियाचिन में सैनिकों पर गोलीबारी का क़हर तो बरपा नहीं होता, लेकिन वहाँ का ज़ालिम मौसम तो हमेशा अपने तेवर दिखाता रहता है. मौसम को हर क़ीमत पर मातृभूमि की रक्षा करने वाले जाँबाज़ों से कोई हमदर्दी नहीं रहती. इसीलिए लॉन्स नायक हनुमनथप्पा भी उन रणबाँकुरों में शामिल हो गये, जिन्हें कृतज्ञ राष्ट्र कभी नहीं भूलेगा. हनुमनथप्पा को गर्वोक्तिपूर्ण श्रद्धांजलि! उनके जुझारूपन ने सियाचिन के गौरवशाली इतिहास में एक और सुनहरा पन्ना जोड़ दिया. इससे पहले, सियाचिन की गौरवगाथा में नायब सुबेदार बाना सिंह ने 26 जून 1987 को बेजोड़ उपलब्धि हासिल की.
बाना सिंह ने ऑपरेशन राजीव के तहत पाकिस्तान के कब्ज़े से क़ायदे-आज़म जिन्ना के नाम पर बनी उस बेहद महत्वपूर्ण क़ायद चौकी को छीना था, जो 21,000 फ़ीट (6500 मीटर) की ऊँचाई वाली सियाचिन की सबसे ऊँची चोटी है. ये उपलब्धि इतनी शानदार थी कि बाना सिंह को सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से नवाज़ा गया. क़ायद चौकी से पाकिस्तान के कब्ज़े वाले सियाचिन के सालटोरो रेंज़ पर नज़र रखी जा सकती है.
वो पाँच सौ मीटर ऊँची बर्फ़ से चट्टानों से घिरे एक क़िले की तरह थी. 18 अप्रैल 1987 को क़ायद से गोलीबारी ने उस सोनम चौकी पर तैनात दो भारतीय सैनिकों को मार गिराया, जिस क्षेत्र में 3 फरवरी 2016 को लॉन्स नायक हनुमनथप्पा के दस साथियों के साथ जानलेवा हादसा हुआ. तब भारत ने क़ायद को अपने हाथ में लेने का फ़ैसला किया.
29 मई को सेकेंड लेफ़्टिनेंट राजीव पांडेय की टुकड़ी ने नाक़ाम कोशिश की. इसमें दस भारतीय सैनिक शहीद हो गये. फिर महीने भर की तैयारी के बाद उनकी याद में 23 जून को ऑपरेशन राजीव की अगुवाई मेज़र वीरेन्द्र सिंह ने की. वीरेन्द्र भी कई बार विफल हुए. तब 26 जून को बाना सिंह, चुन्नी लाल (अशोक चक्र, वीर चक्र, सेवा मैडल) और उनके तीन साथियों ने क़ायदा तक पहुँचने के लिए बेहद लम्बे और कठिन रास्ते को चुना.
बर्फ़ीले तूफ़ान के बीच बाना सिंह और साथियों ने क़ायदा चौकी पहुँचकर बंकर में हथगोला फेंका. इसमें छह पाकिस्तानी सैनिक मारे गये. कई चोटियों से क़ूदकर भागे. तब से वो चौकी ‘बाना पोस्ट’ के नाम से जानी जाती है. बाना के साथी नायब सुबेदार चुन्नी लाल उस ऑपरेशन के 20 साल बाद 2007 में कुपवाड़ा में आतंकियों से हुई एक मुठभेड़ में शहीद हो गये.
भगत सिंह किसके? जब जब भारत देश को किसी तरह के उपदेवता की आवश्यकता हुई है उसने भगत सिंह को खोज निकाला. भगत सिंह में वे सारे गुण थे जो उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त बनाता है.
नौजवान थे, लिखने पढ़ने में माहिर, विचार संप्रेषण में अग्रणी, जवान उम्र में ही शहीद हो गए और वह भी कुछ इस तरह का घटनाचक्र रच कर कि देश में हर किसी के हृदय को झकझोर दिया.
जैसा कि हर हीरो के साथ होता है भगत सिंह को भी लोग तभी याद करते हैं जब समस्याएं बढ़ती नज़र आ रही हों और कोई मददगार न दिखे.
जिस भगत सिंह की जीते-जी राजनैतिक गठबंधनों ने अवहेलना की उसे ही अब सब अपना कहने पर आमादा हैं.
भगत सिंह जब अंग्रेज़ सरकार के हाथ लगे तो अख़बारों ने रिपोर्ट किया कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ़्तार हुआ है. पर भारत के वामपंथी आमतौर पर भगत सिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे.
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आख़िर पार्टी के सदस्य जो नहीं थे. वामपंथियों की तुलना में, कम से कम आज, भारत में, कांग्रेस और भाजपा में होड़ लगी है कि किसी तरह भगत सिंह को अपना लें.
जिहाद के जाल में फँसे पाकिस्तान में भी कुछ लोग भगत सिंह की याद को ताज़ा करने में लगे हैं. आख़िर भगत सिंह की कर्म भूमि भी तो वह ज़मीन थी जो आज पाकिस्तान है.
वैसे कांग्रेस का भगत सिंह के साथ संबंध कुछ उलझाव भरा रहा है. कांग्रेस के नेता भगत सिंह के कार्यकलापों से इतना प्रभावित थे कि जब पहली बार भगत सिंह का नाम 1929 में सार्वजनिक हुआ, जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के मुखपत्र, कांग्रेस बुलेटिन में कोर्ट के समक्ष दी हुई भगत सिंह की संपूर्ण उद्घोषणा ही छाप डाली.
असहयोग आंदोलन के मंद पड़ने के बाद (1920-1922) कांग्रेस किसी बड़ी घटना को अंजाम देने के फ़िराक़ में थी.
समस्या यह थी कि देश में कई लोग यह मानते थे कि आंदोलन में जनता और कांग्रेस की हार हुई.
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साथ ही तेज़ी से फैलते हुए सांप्रदायिक ज़हर ने कांग्रेस को काफ़ी अकर्मण्य बना दिया था. देश के युवा, कांग्रेस से विमुख, क्रांति की लहर की तरफ़ झुकाव दिखाने लगे.
इस माहौल में जब 1928, में कुछ लोग लाहौर में अंग्रेज़ पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या कर के भाग गए तो महात्मा गांधी ने तुरंत अपने लेख में इस कांड की भर्त्सना की और कहा कि इस तरह की हरकत हिंदुस्तानियों को शोभा नहीं देती.
गांधी जी ने लिखा कि इस तरह से मारपीट, ख़ून खराबा करने को वीरतापूर्ण क़रार देना अंग्रेज़ों की परंपरा रही है, भारतीयों की नहीं.
क्रांतिकारियों के लिए सांडर्स की हत्या तो बहरहाल एक अतिरिक्त कार्य था. प्रमुख कार्य तो लोगों को क्रांति के लिए प्रोत्साहित करना था. पिछले तीन सालों से भगत सिंह और साथी इस प्रयास में लगे थे.
भगत सिंह तो वैसे भी विचार संप्रेषण में अपनी महारत दिखा चुके थे. छात्र जीवन में ही उन्हें हिंदी निबंध में पुरस्कार मिल चुका था. पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हो चुके थे.
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काकोरी कांड (1925) के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथियों को यह भी समझ आ गया था कि अगर भारत में बदलाव लाना है तो जनता को साथ ले कर चलना होगा.
क्रांति की भाड़ अकेले क्रांतिकारियों से तो झोंकी नहीं जा सकेगी; उन्हें साधारण लोगों का समर्थन भी किसी तरह से हासिल करना होगा. इस प्रसंग से उन्होंने अपने संगठन के नाम के साथ साफ़ तौर पर ‘सोशलिस्ट’ शब्द डाल दिया.
अब वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे. साथ ही भगत सिंह की अगुआई में क्रांतिकारियों ने लोगों तक पहुँचने के नए तरीक़े इस्तेमाल करने शुरू कर दिए.
भगत सिंह के ज़िम्मे जो काम पड़ा वह था मायादीप (मैजिक लैंटर्न) के ज़रिए लोगों को काकोरी कांड जैसे क्रांतिकारी प्रकरणों के बारे में बताना, ताकि साधारण समाज में भी क्रांति की लहर तेज़ी से फैले.
इसी बीच भगत सिंह को विचार आया कि लोगों को उकसाने के लिए एक नए आख्यान की आवश्यकता थी जो नाटकीय भी हो और उत्तेजक भी.
इसलिए भगत सिंह की सलाह पर क्रांतिकारियों ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में बम विस्फोट का प्रोग्राम बनाया.
बम विस्फोट का लोगों पर क्या असर पड़ा यह तो ख़ैर अलग बात है, पर जवाहरलाल नेहरू ज़रूर बहुत प्रभावित हुए.
कोर्ट में भगत सिंह और उनके साथियों ने भारत की दास्तां पर एक बड़ा धाकड़ बयान पेश किया.
साथ ही उन्होंने जेल की व्यवस्था के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया. नेहरू ने अपनी तरफ़ से जून 1929, के कांग्रेस बुलेटिन में असेंबली बम केस पर भगत सिंह के पूरे बयान को छाप दिया.
साथ ही क्रांतिकारियों द्वारा किए जा रहे उपवास के पक्ष में भी नेहरू ने लिख डाला. महात्मा गांधी को बम विस्फोट की इस तरह की प्रशंसा नागवार थी.
उन्होंने तुरंत नेहरू को डाँटते हुए पत्र लिखा (जुलाई 1, 1929). “मेरे प्यारे जवाहरलाल, इस बार का कांग्रेस बुलेटिन पढ़ा.
उस बयान का इस तरह से छापा जाना अनुचित था. वैसे भी वह उनके वक़ील के द्वारा बनाया बयान था ना कि उनकी आत्मा से आने वाली ईमानदार आवाज़.... मुझे तुम्हारे द्वारा उनके अनशन की हिमायत करना भी अच्छा नहीं लगा. मेरे मतानुसार इनका यह अनशन बेकार का है, बात का बतंगड़ बनाने जैसा. तुम ख़ुद ही सोच लो.”
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पता नहीं नेहरू ने क्या सोचा पर हम इतना ज़रूर देख सकते हैं कि गांधी जी बम धमाके से इतने नाराज़ थे कि जिन लोगों के नाम पर बयान जारी हुआ था उनका नाम तक नहीं ले रहे थे.
इसके बाद, कई सालों तक गांधीजी भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों को गौण और असंगत बताते रहे. स्वतंत्रता के बाद के काल में देश अपनी ही समस्याओं में कुछ इस तरह उलझ गया कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों को भूल ही गया.
बस वे ही याद रहे जिनकी याद सरकार को रही. स्वतंत्रता के उत्साह में देश तेज़ी से प्रगति भी कर रहा था. ऐसे माहौल में भगत सिंह की याद कम ही लोगों को आई.
ऐसे ही समय फ़िल्म डायरेक्टर जगदीश गौतम ने 1954 में भगत सिंह पर फ़िल्म बनाई. चली नहीं. नौ साल बाद, 1963 में शम्मी कपूर भगत सिंह बनकर परदे पर आए. लोगों ने नोटिस तक ना किया.
इसी बीच भारत की चीन से लड़ाई हुई और लोगों को लगा की देश कि ख़ूब नाक कटी. नेहरू जी भी चल बसे.
देश की इस हताश हालत में जब अनजान नायकों को लेकर शहीद नाम से भगत सिंह की कहानी को 1965 में पर्दे पर लाया गया तो लोगों ने उसे ख़ूब सराहा.
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पर इसके बाद भी राजनैतिक दलों ने भगत सिंह को अपने से दूर ही रखा. सरकार द्वारा कभी कभी भगत सिंह के नाम की दुहाई ज़रूर दी जाती रही पर उनके विचारों को समझना या लोगों तक पहुँचने की कोई कोशिश नहीं की गई.
भगत सिंह को याद करना महज़ 26 जनवरी और 15 अगस्त को शहीद फ़िल्म के गाने सुनने तक ही रह गया. जैसे जैसे निजी रेडियो और टीवी स्टेशनों का जाल देश पर फैला, यह थोड़ी सी याद भी ख़त्म कर दी गई.
इसके बाद भगत सिंह की याद आई कम्युनिस्टों को 1997 में, देश की आज़ादी कि 50वीं सालगिरह पर. कम्युनिस्टों को लगा कि देश की आज़ादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है.
इतिहासकार प्रोफेसर विपिन चंद्रा 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए.
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इसके बाद कम्युनिस्टों ने भगत सिंह को अपना बताते हुए इक्के दुक्के बयान दिए, भगत सिंह की कुछ पैम्फ़्लेट्स के नए संस्करण छापे गए. फिर शांति छा गई.
दस साल बाद, नई शताब्दी में दक्षिणपंथियों ने भगत सिंह पर अपना हक़ जताया. किसी ने उनको पगड़ी पहना दी. हालाँकि अभी तक भगत सिंह की सबसे ज़्यादा दिखने वाली तस्वीर में वे टोपी पहने दिखाए जाते रहे थे.
किसी ने उन पर गेरुए वस्त्र डाल दिए, तो किसी ने उन्हें भारत की सभ्यता का संरक्षक बना डाला.
इन सब बातों से इतना तो साफ़ ज़ाहिर है: अपनी शहादत के आठ दशक बाद भी भगत सिंह ही एक अकेला शख़्स मिलता है जो हर किसी के दिल को जीत सके.
फ़र्क़ बस इतना है कि जिसकी भावना जैसी हो उसने भगत सिंह की छवि वैसी ही गढ़ ली है.