दिसंबर का पहला हफ्ता डॉ भीमराव आंबेडकर के
महापरिनिर्वाण का है और अप्रैल का दूसरा हफ्ता उनके जन्मदिन का. यह दोनों
ही अवसर इस देश के वोट के याचकों के लिए पिछले 20 वर्षों से बहुत
महत्वपूर्ण हो गया है. डॉ आंबेडकर का महत्व भारत की अस्मिता में बहुत
ज़्यादा है लेकिन उनको इस देश की जातिवादी राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों ने
आम तौर पर नजरअंदाज ही किया. लेकिन जब डॉ भीमराव आंबेडकर के नाम पर
राजनीतिक अभियान चलाकर उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनने
का अवसर मिला तब से डॉ आंबेडकर के अनुयायियों को अपनी तरफ खींचने की होड़
लगी हुयी है. इसी होड़ में बहुत सारी भ्रांतियां भी फैलाई जा रही हैं. उन
भ्रांतियों को दुरुस्त करने की ज़रुरत आज से ज़्यादा कभी नहीं रही थी.
डॉ बी आर आंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण काम मिला था. वे ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे. उनको भी उम्मीद नहीं थी कि उनको इतना महत्वपूर्ण कार्य मिलेगा लेकिन संविधान सभा के गठन के समय महात्मा गांधी जिंदा थे और उनको मालूम था कि राजनीतिक आज़ादी के बाद आर्थिक आज़ादी और सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को संविधान के दायरे में ही लड़ा जाना है और उसके लिए डॉ आंबेडकर से बेहतर कोई नहीं हो सकता .
संविधान सभा की इस महत्वपूर्ण कमेटी के अध्यक्ष के रूप में डा.अंबेडकर का काम भारत को बाकी दुनिया की नज़र में बहुत ऊपर उठा देता है. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि संविधान सभा कोई ऐसा मंच नहीं था जिसको सही अर्थों में लोकतान्त्रिक माना जा सके.
उसमें 1943 के चुनाव में जीतकर आये लोग शामिल थे. इस बात में शक नहीं है कि कुछ तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे लेकिन एक बड़ी संख्या ज़मींदारों , राजाओं , बड़े सेठ साहूकारों और अंग्रेजों के चापलूसों की थी. 1943 के चुनाव में वोट देने का अधिकार भी भारत के हर नागरिक के पास नहीं था. इनकम टैक्स, ज़मींदारी और ज़मीन की मिलकियत के आधार पर ही वोट देने का अधिकार मिला हुआ था. इन लोगों से एक लोकतांत्रिक और जनपक्षधर संविधान पास करवा पाना बहुत आसान नहीं था. महात्मा गांधी का सपना यह भी था कि सामाजिक न्याय भी हो , छुआछूत भी खत्म हो . इस सारे काम को अंजाम दे सकने की क्षमता केवल डॉ आंबेडकर में थी और उनका चुनाव किया गया. कोई एहसान नहीं किया गया था .
डॉ आंबेडकर ने आज से करीब सौ साल पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने शोधपत्र में जो बातें कह दी थीं उनका उस दौर में भी बहुत सम्मान किया गया था और वे सिद्धांत आज तक बदले नहीं हैं. उनकी सार्थकता कायम है. जिन लोगों ने डॉ भीमराव आंबेडकर को सम्मान दिया था उसमें जवाहरलाल नेहरू का नाम सरे-फेहरिस्त है लेकिन आजकल एक फैशन चल पड़ा है कि नेहरू को हर गलत काम के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाय. कुछ लोग यह भी कहते पाए जा रहे हैं कि डॉ भीमराव आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा नेहरू से परेशान हो कर दिया था. यह सरासर गलत है . 21 सितम्बर 1951 के अखबार हिन्दू में छपा है कि कानून मंत्री डॉ बी आर आंबेडकर ने 27 सितम्बर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था.
उनके इस्तीफे का कारण यह था कि संविधान के लागू हो जाने के बाद तत्कालीन संसद में लगातार हिन्दू कोड बिल पर बहस को टाला जा रहा था और डॉ बी आर आंबेडकर इससे बहुत निराश थे. उन दिनों कांग्रेस के अन्दर जो पोंगापंथियों का बहुमत था वह जवाहरलाल नेहरू और डॉ आंबेडकर की चलने नहीं दे रहा था. इस्तीफ़ा देने के कई दिन बाद तक जवाहरलाल ने मंज़ूर नहीं किया था. लेकिन जब डॉ आंबेडकर ने बार बार आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि 6 अक्टूबर को जब संसद का सत्रावसान हो जाएगा तब बात करेगें. तब तक इस बात को सार्वजनिक न किया जाए .
डॉ बी आर आंबेडकर की 125वीं जयन्ती पर इस बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है कि जिस तरह की विचारधारा के लोग आज बीजेपी में बड़ी संख्या में मौजूद हैं , उस विचारधारा के बहुत सारे लोग उन दिनों कांग्रेस के संगठन और सरकार में भी थे. सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी और जवाहरलाल अकेले पड़ गए थे. प्रगतिशील और सामाजिक बराबारी की उनकी सोच को डॉ आंबेडकर का पूरा समर्थन मिलता था लेकिन डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद कम से कम हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में तो वे बिलकुल अकेले थे. यह भी समझना ज़रूरी है कि हिन्दू कोड बिल इतना बड़ा मसला क्यों था कि देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता, इसको पास कराने को लेकर अकेले पड़ गए थे .
हिन्दू कोड बिल पास होने के पहले महिलाओं के प्रति घोर अन्याय का माहौल था. हिन्दू पुरुष जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकता था और यह महिलाओं को अपमानित करने या उनको अधीन बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार था. आजादी की लड़ाई के दौरान यह महसूस किया गया था कि इस प्रथा को खत्म करना है. कांग्रेस के 1941 के एक दस्तावेज़ में इसके बारे में विस्तार से चर्चा भी हुयी थी. कानून मंत्री के रूप में संविधान सभा में डॉ आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल का जो मसौदा रखा उसमें आठ सेक्शन थे . इसके दो सेक्शनों पर सबसे ज़्यादा विवाद था. पहले तो दूसरा सेक्शन जहां विवाह के बारे में कानून बनाने का प्रस्ताव था. इसके अलावा पांचवें सेक्शन पर भी भारी विरोध था. डॉ बी आर आंबेडकर ने महिलाओं और लड़कियों को साझा संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार देने की बात की थी. इसके पहले विधवाओं को संपत्ति का कोई अधिकार नहीं होता था. डॉ आंबेडकर ने प्रस्ताव किया था कि उनको भी अधिकार दिया जाए. बेटी को वारिस मानने को भी पोंगापंथी राजनेता तैयार नहीं थे . यह कट्टर लोग तलाक को भी मानने को तैयार नहीं थे जबकि डॉ आंबेडकर तलाक को ज़रूरी बताकार उसको महिलाओं के निर्णय लेने की आजादी से जोड़ रहे थे .
आंबेडकर का ज़बरदस्त विरोध हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू उनके साथ खड़े रहे. डॉ आंबेडकर ने हिन्दू की परिभाषा भी बहुत व्यापक बताई थी. उन्होंने कहा कि जो लोग मुस्लिम, ईसाई , यहूदी नहीं है वह हिन्दू है. कट्टरपंथियों ने इसका घोर विरोध किया. संविधान सभा में पचास घंटे तक बहस हुयी लेकिन कट्टरपंथी भारी पड़े और कानून पर आम राय नहीं बन सकी. नेहरू ने सलाह दी कि विवाह और तलाक़ के बारे में फैसला ले लिया जाए और बाकी वाले जो भी प्रावधान हैं उनको जब भारत की नए संविधान लागू होने के बाद जो संसद चुनकर आ जायेगी उसमें बात कर ली जायेगी लेकिन कांग्रेस में पुरातनपंथियों के बहुमत ने इनकी एक न चलने दी .बाद में डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद संसद ने हिन्दू कोड बिल में बताये गए कानूनों को पास तो किया लेकिन हिन्दू कोड बिल को नेहरू की सरकार ने कई हिस्सों में तोड़कर पास करवाया. उसी का नतीजा है कि हिन्दू मैरिज एक्ट, हिन्दू उत्तराधिकार एक्ट, हिन्दू गार्जियनशिप एक्ट, और हिन्दू एडापशन एक्ट बने . यह सारे कानून डॉ आंबेडकर की मूल भावना के हिसाब से नहीं थे लेकिन इतना तो सच है कि कम से कम कोई कानून तो बन पाया था.
इसलिए डॉ आंबेडकर के मंत्रिमंडल के इस्तीफे का कारण जवाहरलाल नेहरू को बताने वाले बिकुल गलत हैं .उनको समकालीन इतिहास को सही तरीके से समझने की ज़रुरत है .
डॉ बी आर आंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण काम मिला था. वे ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे. उनको भी उम्मीद नहीं थी कि उनको इतना महत्वपूर्ण कार्य मिलेगा लेकिन संविधान सभा के गठन के समय महात्मा गांधी जिंदा थे और उनको मालूम था कि राजनीतिक आज़ादी के बाद आर्थिक आज़ादी और सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को संविधान के दायरे में ही लड़ा जाना है और उसके लिए डॉ आंबेडकर से बेहतर कोई नहीं हो सकता .
संविधान सभा की इस महत्वपूर्ण कमेटी के अध्यक्ष के रूप में डा.अंबेडकर का काम भारत को बाकी दुनिया की नज़र में बहुत ऊपर उठा देता है. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि संविधान सभा कोई ऐसा मंच नहीं था जिसको सही अर्थों में लोकतान्त्रिक माना जा सके.
उसमें 1943 के चुनाव में जीतकर आये लोग शामिल थे. इस बात में शक नहीं है कि कुछ तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे लेकिन एक बड़ी संख्या ज़मींदारों , राजाओं , बड़े सेठ साहूकारों और अंग्रेजों के चापलूसों की थी. 1943 के चुनाव में वोट देने का अधिकार भी भारत के हर नागरिक के पास नहीं था. इनकम टैक्स, ज़मींदारी और ज़मीन की मिलकियत के आधार पर ही वोट देने का अधिकार मिला हुआ था. इन लोगों से एक लोकतांत्रिक और जनपक्षधर संविधान पास करवा पाना बहुत आसान नहीं था. महात्मा गांधी का सपना यह भी था कि सामाजिक न्याय भी हो , छुआछूत भी खत्म हो . इस सारे काम को अंजाम दे सकने की क्षमता केवल डॉ आंबेडकर में थी और उनका चुनाव किया गया. कोई एहसान नहीं किया गया था .
डॉ आंबेडकर ने आज से करीब सौ साल पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने शोधपत्र में जो बातें कह दी थीं उनका उस दौर में भी बहुत सम्मान किया गया था और वे सिद्धांत आज तक बदले नहीं हैं. उनकी सार्थकता कायम है. जिन लोगों ने डॉ भीमराव आंबेडकर को सम्मान दिया था उसमें जवाहरलाल नेहरू का नाम सरे-फेहरिस्त है लेकिन आजकल एक फैशन चल पड़ा है कि नेहरू को हर गलत काम के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाय. कुछ लोग यह भी कहते पाए जा रहे हैं कि डॉ भीमराव आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा नेहरू से परेशान हो कर दिया था. यह सरासर गलत है . 21 सितम्बर 1951 के अखबार हिन्दू में छपा है कि कानून मंत्री डॉ बी आर आंबेडकर ने 27 सितम्बर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था.
उनके इस्तीफे का कारण यह था कि संविधान के लागू हो जाने के बाद तत्कालीन संसद में लगातार हिन्दू कोड बिल पर बहस को टाला जा रहा था और डॉ बी आर आंबेडकर इससे बहुत निराश थे. उन दिनों कांग्रेस के अन्दर जो पोंगापंथियों का बहुमत था वह जवाहरलाल नेहरू और डॉ आंबेडकर की चलने नहीं दे रहा था. इस्तीफ़ा देने के कई दिन बाद तक जवाहरलाल ने मंज़ूर नहीं किया था. लेकिन जब डॉ आंबेडकर ने बार बार आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि 6 अक्टूबर को जब संसद का सत्रावसान हो जाएगा तब बात करेगें. तब तक इस बात को सार्वजनिक न किया जाए .
डॉ बी आर आंबेडकर की 125वीं जयन्ती पर इस बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है कि जिस तरह की विचारधारा के लोग आज बीजेपी में बड़ी संख्या में मौजूद हैं , उस विचारधारा के बहुत सारे लोग उन दिनों कांग्रेस के संगठन और सरकार में भी थे. सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी और जवाहरलाल अकेले पड़ गए थे. प्रगतिशील और सामाजिक बराबारी की उनकी सोच को डॉ आंबेडकर का पूरा समर्थन मिलता था लेकिन डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद कम से कम हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में तो वे बिलकुल अकेले थे. यह भी समझना ज़रूरी है कि हिन्दू कोड बिल इतना बड़ा मसला क्यों था कि देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता, इसको पास कराने को लेकर अकेले पड़ गए थे .
हिन्दू कोड बिल पास होने के पहले महिलाओं के प्रति घोर अन्याय का माहौल था. हिन्दू पुरुष जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकता था और यह महिलाओं को अपमानित करने या उनको अधीन बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार था. आजादी की लड़ाई के दौरान यह महसूस किया गया था कि इस प्रथा को खत्म करना है. कांग्रेस के 1941 के एक दस्तावेज़ में इसके बारे में विस्तार से चर्चा भी हुयी थी. कानून मंत्री के रूप में संविधान सभा में डॉ आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल का जो मसौदा रखा उसमें आठ सेक्शन थे . इसके दो सेक्शनों पर सबसे ज़्यादा विवाद था. पहले तो दूसरा सेक्शन जहां विवाह के बारे में कानून बनाने का प्रस्ताव था. इसके अलावा पांचवें सेक्शन पर भी भारी विरोध था. डॉ बी आर आंबेडकर ने महिलाओं और लड़कियों को साझा संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार देने की बात की थी. इसके पहले विधवाओं को संपत्ति का कोई अधिकार नहीं होता था. डॉ आंबेडकर ने प्रस्ताव किया था कि उनको भी अधिकार दिया जाए. बेटी को वारिस मानने को भी पोंगापंथी राजनेता तैयार नहीं थे . यह कट्टर लोग तलाक को भी मानने को तैयार नहीं थे जबकि डॉ आंबेडकर तलाक को ज़रूरी बताकार उसको महिलाओं के निर्णय लेने की आजादी से जोड़ रहे थे .
आंबेडकर का ज़बरदस्त विरोध हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू उनके साथ खड़े रहे. डॉ आंबेडकर ने हिन्दू की परिभाषा भी बहुत व्यापक बताई थी. उन्होंने कहा कि जो लोग मुस्लिम, ईसाई , यहूदी नहीं है वह हिन्दू है. कट्टरपंथियों ने इसका घोर विरोध किया. संविधान सभा में पचास घंटे तक बहस हुयी लेकिन कट्टरपंथी भारी पड़े और कानून पर आम राय नहीं बन सकी. नेहरू ने सलाह दी कि विवाह और तलाक़ के बारे में फैसला ले लिया जाए और बाकी वाले जो भी प्रावधान हैं उनको जब भारत की नए संविधान लागू होने के बाद जो संसद चुनकर आ जायेगी उसमें बात कर ली जायेगी लेकिन कांग्रेस में पुरातनपंथियों के बहुमत ने इनकी एक न चलने दी .बाद में डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद संसद ने हिन्दू कोड बिल में बताये गए कानूनों को पास तो किया लेकिन हिन्दू कोड बिल को नेहरू की सरकार ने कई हिस्सों में तोड़कर पास करवाया. उसी का नतीजा है कि हिन्दू मैरिज एक्ट, हिन्दू उत्तराधिकार एक्ट, हिन्दू गार्जियनशिप एक्ट, और हिन्दू एडापशन एक्ट बने . यह सारे कानून डॉ आंबेडकर की मूल भावना के हिसाब से नहीं थे लेकिन इतना तो सच है कि कम से कम कोई कानून तो बन पाया था.
इसलिए डॉ आंबेडकर के मंत्रिमंडल के इस्तीफे का कारण जवाहरलाल नेहरू को बताने वाले बिकुल गलत हैं .उनको समकालीन इतिहास को सही तरीके से समझने की ज़रुरत है .
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