मैं जुलाई के आखिरी सप्ताह में दिल्ली में था। पिछले आम चुनाव के बाद यह दिल्ली में मेरा पहला लंबा दौरा था। मोदी सरकार को सत्ता में आए एक साल और दो महीने हो गए हैं और इस बीच मोहभंग के संकेत दिखने लगे हैं। विद्वान, अफसर, वेटर और सुरक्षा गार्ड, सभी मोदी और उनकी सरकार के बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करते दिख जाते हैं। कई पुराने भाजपा समर्थक भी प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडलीय सहयोगियों की आलोचना करते दिखे। बहुत साल पहले समाजशास्त्री आशीष नंदी ने 'भारतीय राजनीति के लौह नियम' को परिभाषित किया था। उसके अनुसार, एक चुनी हुई सरकार को मोहभंग की स्थिति तक पहुंचते-पहुंचते लगभग डेढ़ साल लगता है। शाहबानो मामले के साथ यही राजीव गांधी का हुआ। मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने वीपी सिंह के साथ यही किया और पीवी नरसिंह राव की यह स्थिति बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद हुई। ऐसा लगता है कि यह लौह नियम अब गुजरात के नए लौह पुरुष पर भी लागू हो रहा है। इसकी वजह कोई एक बड़ी गलती नहीं है, बल्कि यह कई छोटी-छोटी गलतियों का मिला-जुला परिणाम है। और मैंने पाया कि कई मित्र राजग सरकार के मोहभंग के साथ राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान की चर्चा कर रहे थे।
दिल्ली में एक वकील और एक विद्वान ने अलग-अलग मुझे बताया कि राहुल गांधी अब बदल गए हैं। उनकी लंबी छुट्टी ने उनमें नई ऊर्जा और प्रेरणा भर दी है और वह सन 2019 में कांग्रेस को विजय दिलाने के लिए तैयार हैं। उन्हें यह कैसे महसूस हुआ, मैं नहीं जानता। क्या यह अनुभव के ऊपर उम्मीद की जीत है? या दिल्ली में रहने का नतीजा है, जहां वास्तविकता हमेशा विकृत दिखती है, या यह उस आदत का परिणाम है, जिसमें भाजपा विरोध को कांग्रेस के साथ और कांग्रेस को नेहरू परिवार के साथ जोड़ा जाता है। मुझे बताया गया कि वरिष्ठ कांग्रेस नेतृत्व पुराने अनुभव को याद करके खुश है। इंदिरा गांधी सन 1977 में हारने के तीन साल बाद ही सत्ता में लौट आई थीं। राजीव गांधी 1989 में हार गए थे, लेकिन सन 1991 में अपनी हत्या के पहले वह तेजी से वापसी करते दिख रहे थे।
इतिहास अपने को फिर दोहराएगा, यह उम्मीद कई जमीनी तथ्यों को भुला देती है। कांग्रेस का संगठन आज तार-तार हो चुका है, जिसकी वजह से वह एक के बाद दूसरे राज्य में हारती जा रही है। फिर राहुल गांधी इंदिरा या राजीव की तरह आकर्षक नेता नहीं हैं। अब वोटर किसी राष्ट्रीय नेता से यह नहीं पूछते कि वह किसका बेटा या पोता है, बल्कि यह पूछते हैं कि उसने क्या किया है? ईश्वर जानता है कि भारतीय लोकतंत्र को एक विश्वसनीय विपक्ष की और उसके एक विश्वसनीय नेता की सबसे ज्यादा जरूरत है। नरेंद्र मोदी, इंदिरा गांधी के बाद देश के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री हैं। अपनी पार्टी और सरकार पर नियंत्रण के मामले में सिर्फ इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से ही उनकी बराबरी हो सकती है। लेकिन जहां नेहरू और इंदिरा को बड़े विपक्षी नेताओं का सामना करना पड़ा था, मोदी के सामने फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है।
नेहरू को तो 1947 और 1950 के बीच अपनी ही पार्टी और सरकार में एक समानांतर सत्ता केंद्र का सामना करना पड़ा था। वल्लभभाई पटेल के सामने कांग्रेस अध्यक्ष या देश के राष्ट्रपति के चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नेहरू को झुकना पड़ा था। जब सरदार पटेल की दिसंबर 1950 में मृत्यु हो गई, तो नेहरू के लिए पार्टी और सरकार में कोई चुनौती नहीं रही, लेकिन संसद में उनकी नीतियों का प्रभावशाली विरोध करने वाले कई नेता थे। दक्षिणपंथी श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर वामपंथी हीरेन मुखर्जी और एके गोपलन तक। लेकिन उनके सबसे प्रभावशाली विरोधी पूर्व कांग्रेसी नेता थे। इनमें लोकलुभावन नीतियों वाले जेबी कृपलानी, समाजवादी राममनोहर लोहिया और स्वतंत्र पार्टी के नेता सी राजगोपालाचारी। नेहरू इन्हें बहुत गंभीरता से लेते थे, क्योंकि उनके राष्ट्रवादी रुझान नेहरू जितने ही विश्वसनीय थे। जेबी कृपलानी गांधी जी के साथ चंपारण के उनके आंदोलन में साथी थे। राजाजी को गांधी का दक्षिणी सेनापति कहा जाता था और गांधीजी उन्हें अपने विवेक के रखवाले कहते थे। लोहिया भारत छोड़ो आंदोलन के बड़े नेता थे। ये तीनों बहुत चमकदार, मुखर और ईमानदार थे। ये नेहरू की जैसी तीखी आलोचना करते थे, उससे प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षा और अहंकार पर लगाम लगती थी।
बाद में इंदिरा गांधी उतनी ही ताकतवर थीं, लेकिन फिर भी उनका राज चुनौतियों से मुक्त नहीं था। जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी और माकपा के पी राममूर्ति और ज्योतिर्मय बसु संसद में उतने ही प्रभावशाली थे, जितने श्यामा प्रसाद मुखर्जी या गोपालन कभी थे। समूचे देश में मोरारजी देसाई और के कामराज अपनी ईमानदारी, काबिलियत और कांग्रेस के पुराने उसूलों के प्रति निष्ठा के लिए सम्मानित थे। इन सबके अलावा जयप्रकाश नारायण थे, जो इस देश के विवेक की आवाज थे। वह चाहते, तो नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से कश्मीर और नगालैंड के सीमावर्ती इलाकों और मध्य भारत के अपराधग्रस्त इलाकों में काम करना पसंद किया। जयप्रकाश नारायण ने ही इंदिरा गांधी के खिलाफ सन 1974-75 में राष्ट्रव्यापी आंदोलन का नेतृत्व किया। तत्कालीन प्रधामनंत्री ने उन्हें जेल में डाल दिया और अपने कई आलोचकों को भी जेल की हवा खिलाई। इससे इंदिरा गांधी की विश्वसनीयता बहुत घट गई। और जब सन 1977 में आखिरकार चुनाव हुए, तो कांग्रेस पार्टी बुरी तरह हार गई।
नरेंद्र मोदी खुद को बड़ा समझने के मामले में जवाहरलाल नेहरू की तरह हैं और लोकतंत्र के संस्थानों की स्वायत्तता के प्रति उनकी उपेक्षा इंदिरा गांधी जैसी है। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता में ऐसी प्रवृत्तियों का होना खतरनाक है। इसे रोकने के लिए विश्वसनीय और सक्षम विपक्ष चाहिए। नेहरू को कृपलानी और राजा जी जैसे लोगों का सामना करना पड़ा। इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण ने चुनौती दी, लेकिन नरेंद्र मोदी को प्रभावशाली चुनौती दे सकने वाला कौन है? राजग सरकार की इस बात के लिए आलोचना की जा सकती है कि उसने ऊंचे-ऊंचे वायदे किए, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं था। उसने कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों में अयोग्य लोगों को बिठा दिया है, भाजपा के सांसद और मंत्रियों के कट्टर धार्मिक रुझान को प्रोत्साहित किया है और प्रशासनिक नियुक्तियों में काबिलियत की बजाय वफादारी को तरजीह दी।
ये चिंताजनक बातें हैं, लेकिन इससे कहीं ज्यादा चिंताजनक यह है कि विपक्ष का हाल बुरा है। क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट हुई जा रही हैं। जिस आम आदमी पार्टी से कभी बहुत उम्मीद थी, वह अपने सर्वोच्च नेता के अंदाज की वजह से ठहर गई है और कांग्रेस का लगातार पतन हो रहा है। अर्थशास्त्री बताते हैं कि नरेंद्र मोदी इस मायने में सौभाग्यशाली हैं कि उनके राज के पहले ही साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में खनिज तेल की कीमतें इतनी तेजी से गिरीं। लेकिन उनका इससे बड़ा सौभाग्य शायद यह है कि राजनीति में उनको सबसे बड़ा चुनौती राहुल गांधी से मिल रही है
दिल्ली में एक वकील और एक विद्वान ने अलग-अलग मुझे बताया कि राहुल गांधी अब बदल गए हैं। उनकी लंबी छुट्टी ने उनमें नई ऊर्जा और प्रेरणा भर दी है और वह सन 2019 में कांग्रेस को विजय दिलाने के लिए तैयार हैं। उन्हें यह कैसे महसूस हुआ, मैं नहीं जानता। क्या यह अनुभव के ऊपर उम्मीद की जीत है? या दिल्ली में रहने का नतीजा है, जहां वास्तविकता हमेशा विकृत दिखती है, या यह उस आदत का परिणाम है, जिसमें भाजपा विरोध को कांग्रेस के साथ और कांग्रेस को नेहरू परिवार के साथ जोड़ा जाता है। मुझे बताया गया कि वरिष्ठ कांग्रेस नेतृत्व पुराने अनुभव को याद करके खुश है। इंदिरा गांधी सन 1977 में हारने के तीन साल बाद ही सत्ता में लौट आई थीं। राजीव गांधी 1989 में हार गए थे, लेकिन सन 1991 में अपनी हत्या के पहले वह तेजी से वापसी करते दिख रहे थे।
इतिहास अपने को फिर दोहराएगा, यह उम्मीद कई जमीनी तथ्यों को भुला देती है। कांग्रेस का संगठन आज तार-तार हो चुका है, जिसकी वजह से वह एक के बाद दूसरे राज्य में हारती जा रही है। फिर राहुल गांधी इंदिरा या राजीव की तरह आकर्षक नेता नहीं हैं। अब वोटर किसी राष्ट्रीय नेता से यह नहीं पूछते कि वह किसका बेटा या पोता है, बल्कि यह पूछते हैं कि उसने क्या किया है? ईश्वर जानता है कि भारतीय लोकतंत्र को एक विश्वसनीय विपक्ष की और उसके एक विश्वसनीय नेता की सबसे ज्यादा जरूरत है। नरेंद्र मोदी, इंदिरा गांधी के बाद देश के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री हैं। अपनी पार्टी और सरकार पर नियंत्रण के मामले में सिर्फ इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से ही उनकी बराबरी हो सकती है। लेकिन जहां नेहरू और इंदिरा को बड़े विपक्षी नेताओं का सामना करना पड़ा था, मोदी के सामने फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है।
नेहरू को तो 1947 और 1950 के बीच अपनी ही पार्टी और सरकार में एक समानांतर सत्ता केंद्र का सामना करना पड़ा था। वल्लभभाई पटेल के सामने कांग्रेस अध्यक्ष या देश के राष्ट्रपति के चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नेहरू को झुकना पड़ा था। जब सरदार पटेल की दिसंबर 1950 में मृत्यु हो गई, तो नेहरू के लिए पार्टी और सरकार में कोई चुनौती नहीं रही, लेकिन संसद में उनकी नीतियों का प्रभावशाली विरोध करने वाले कई नेता थे। दक्षिणपंथी श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर वामपंथी हीरेन मुखर्जी और एके गोपलन तक। लेकिन उनके सबसे प्रभावशाली विरोधी पूर्व कांग्रेसी नेता थे। इनमें लोकलुभावन नीतियों वाले जेबी कृपलानी, समाजवादी राममनोहर लोहिया और स्वतंत्र पार्टी के नेता सी राजगोपालाचारी। नेहरू इन्हें बहुत गंभीरता से लेते थे, क्योंकि उनके राष्ट्रवादी रुझान नेहरू जितने ही विश्वसनीय थे। जेबी कृपलानी गांधी जी के साथ चंपारण के उनके आंदोलन में साथी थे। राजाजी को गांधी का दक्षिणी सेनापति कहा जाता था और गांधीजी उन्हें अपने विवेक के रखवाले कहते थे। लोहिया भारत छोड़ो आंदोलन के बड़े नेता थे। ये तीनों बहुत चमकदार, मुखर और ईमानदार थे। ये नेहरू की जैसी तीखी आलोचना करते थे, उससे प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षा और अहंकार पर लगाम लगती थी।
बाद में इंदिरा गांधी उतनी ही ताकतवर थीं, लेकिन फिर भी उनका राज चुनौतियों से मुक्त नहीं था। जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी और माकपा के पी राममूर्ति और ज्योतिर्मय बसु संसद में उतने ही प्रभावशाली थे, जितने श्यामा प्रसाद मुखर्जी या गोपालन कभी थे। समूचे देश में मोरारजी देसाई और के कामराज अपनी ईमानदारी, काबिलियत और कांग्रेस के पुराने उसूलों के प्रति निष्ठा के लिए सम्मानित थे। इन सबके अलावा जयप्रकाश नारायण थे, जो इस देश के विवेक की आवाज थे। वह चाहते, तो नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से कश्मीर और नगालैंड के सीमावर्ती इलाकों और मध्य भारत के अपराधग्रस्त इलाकों में काम करना पसंद किया। जयप्रकाश नारायण ने ही इंदिरा गांधी के खिलाफ सन 1974-75 में राष्ट्रव्यापी आंदोलन का नेतृत्व किया। तत्कालीन प्रधामनंत्री ने उन्हें जेल में डाल दिया और अपने कई आलोचकों को भी जेल की हवा खिलाई। इससे इंदिरा गांधी की विश्वसनीयता बहुत घट गई। और जब सन 1977 में आखिरकार चुनाव हुए, तो कांग्रेस पार्टी बुरी तरह हार गई।
नरेंद्र मोदी खुद को बड़ा समझने के मामले में जवाहरलाल नेहरू की तरह हैं और लोकतंत्र के संस्थानों की स्वायत्तता के प्रति उनकी उपेक्षा इंदिरा गांधी जैसी है। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता में ऐसी प्रवृत्तियों का होना खतरनाक है। इसे रोकने के लिए विश्वसनीय और सक्षम विपक्ष चाहिए। नेहरू को कृपलानी और राजा जी जैसे लोगों का सामना करना पड़ा। इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण ने चुनौती दी, लेकिन नरेंद्र मोदी को प्रभावशाली चुनौती दे सकने वाला कौन है? राजग सरकार की इस बात के लिए आलोचना की जा सकती है कि उसने ऊंचे-ऊंचे वायदे किए, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं था। उसने कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों में अयोग्य लोगों को बिठा दिया है, भाजपा के सांसद और मंत्रियों के कट्टर धार्मिक रुझान को प्रोत्साहित किया है और प्रशासनिक नियुक्तियों में काबिलियत की बजाय वफादारी को तरजीह दी।
ये चिंताजनक बातें हैं, लेकिन इससे कहीं ज्यादा चिंताजनक यह है कि विपक्ष का हाल बुरा है। क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट हुई जा रही हैं। जिस आम आदमी पार्टी से कभी बहुत उम्मीद थी, वह अपने सर्वोच्च नेता के अंदाज की वजह से ठहर गई है और कांग्रेस का लगातार पतन हो रहा है। अर्थशास्त्री बताते हैं कि नरेंद्र मोदी इस मायने में सौभाग्यशाली हैं कि उनके राज के पहले ही साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में खनिज तेल की कीमतें इतनी तेजी से गिरीं। लेकिन उनका इससे बड़ा सौभाग्य शायद यह है कि राजनीति में उनको सबसे बड़ा चुनौती राहुल गांधी से मिल रही है
No comments:
Post a Comment