Friday, 28 August 2015

चेन्नई : 376 साल का एक शहर जो दोनों विश्वयुद्धों में दुश्मनों का निशाना बना था @पवन वर्मा


22 अगस्त को अपनी स्थापना के 376 साल पूरे करने वाले चेन्नई (मद्रास) के इतिहास में यह विचित्र संयोग भी दर्ज है कि यह शहर दोनों विश्वयुद्धों में दुश्मन देशों के निशाने पर आया था.
दुनिया के कई देशों में इन दिनों दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने की 70वीं वर्षगांठ से जुड़े कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं. इन्हीं दिनों भारत का एक शहर भी अपनी स्थापना के 376 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है. इसी शहर के इतिहास में यह विचित्र संयोग भी दर्ज है कि यह न सिर्फ दूसरे बल्कि पहले विश्वयुद्ध में भी दुश्मन देशों का निशाना बना. यह शहर है तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई.
कोरोमंडल तट पर बसा चेन्नई और उसके आसपास का इलाका भारत के उन गिनेचुने क्षेत्रों में से हैं जिसे यूरोप के सबसे ज्यादा देशों ने उपनिवेश बनाने की कोशिश की थी. यहां पंद्रहवी शताब्दी में सबसे पहले पुर्तगाली आए. 1522 में आए इन यूरोपवासियों ने यहां सबसे पहले बंदरगाह बनाया था. सौ साल बाद हॉलैंडवासी यहां आ गए और तकरीबन उसी समय यहां अंग्रेज भी आए. 1749 में अंग्रेजों के दोबारा यहां काबिज होने से पहले तीन साल तक मद्रास फ्रांसीसियों के अधीन भी रहा है. हालांकि विदेशियों के बीच इस जगह को मद्रास के नाम से बसाने और प्रसिद्ध करने का श्रेय अंग्रेजों को ही जाता है.
यह रात के तकरीबन साढ़े नौ बजे की बात है जब जर्मन युद्धपोत ने तट के पास गोले बरसाने शुरू किए. कुछ ही मिनटों में इसने अंग्रेजों के तेल भंडारगृह को नष्ट कर दिया था
हाल ही में 22 अगस्त को मद्रास (1998 में इसका नाम बदलकर चेन्नई रखा गया) ने अपना 376वां जन्मदिन मनाया है. इसी दिन 1639 में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक हाकिम फ्रांसिस डे ने विजयनगर साम्राज्य के नायक (स्थानीय प्रशासक) दमार्ला वेंकटआद्री नायक से समुद्र तट के पास तीन किमी की पट्टी लीज पर ली थी. अंग्रेजों ने यहां सेंट जॉर्ज फोर्ट (तमिलनाडु का वर्तमान विधानसभा भवन) बनवाया था. इसे भारत में अंग्रेजों द्वारा निर्मित पहला किला भी कहा जाता है. इसके परिसर में अंग्रेजों के आवास और गोदाम बने हुए थे. अंग्रेजों ने कुछ ही सालों में इसे भारत और यूरोप के बीच एक प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में प्रसिद्ध कर दिया. उन्होंने इसे भारत में अपनी जलसेना का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी बना लिया. कुल मिलाकर चाहे व्यापारिक वजह हो या सैन्य, यूरोपीय देशों की नजर में मद्रास हमेशा रहा. शायद यही वजह थी कि प्रथम विश्व युद्ध की जो थोड़ी बहुत आंच हिंद महासागर तक आई तो उसकी जलन मद्रास को भी महसूस करनी पड़ी.
जर्मनी के युद्धपोत ने मद्रास को विश्व युद्ध में शामिल किया
जर्मनी ने बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में एसएमएस एमदेन नाम का एक युद्धपोत बनाया था और यह उस समय यूरोप के सबसे घातक युद्धपोतों में शुमार था. प्रथम विश्व युद्ध के समय यह जर्मन जल सेना के पूर्वी एशिया बेड़े का हिस्सा रहा. इस इलाके में एमदेन दो महीने तक तैनात रहा और इस दौरान उसने शत्रु पक्ष के एक दर्जन से ज्यादा युद्धपोतों पर कब्जा किया या उन्हें नष्ट कर दिया. मद्रास पर हमला भी इस युद्धपोत ने किया था.
यह 22 सितंबर 1914 की बात है. नवरात्रि का तीसरा दिन था. शाम को आम लोगों के बीच त्योहार का उल्लास था. उस दौर में अंग्रेजों की जलसेना का बंगाल की खाड़ी में काफी मजबूत बेड़ा हुआ करता था और किसी को जरा भी अंदाजा नहीं था कि एमदेन इसको चकमा देते हुए मद्रास तट के नजदीक आ सकता है. यह रात के तकरीबन साढ़े नौ बजे की बात है जब इस युद्धपोत ने तट के पास गोले बरसाने शुरू किए. कुछ ही मिनटों में इसने अंग्रेजों के तेल भंडार गृह को नष्ट कर दिया. हमले में कुछ व्यापारिक जहाज भी डूब गए. इतिहासकार वी दिवाकर एक रिपोर्ट में बताते हैं, ‘जर्मनी के युद्धपोत ने 10 मिनट के भीतर 125 गोले दागे और अंग्रेजों के चार तेल टैंक नष्ट कर दिए.’ दिवाकर ने इस घटना के आधार पर एक उपन्यास – एसएमएस एमदेन 22-09-1914 – भी लिखा है.
सन 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध अपने शिखर पर था. जापान का आतंक दक्षिण एशिया तक छा चुका था और नौ अप्रैल को कोलंबो पर 75 जापानी विमानों के हमले से यह लगने लगा कि अब भारत भी इनका निशाना बनेगा
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जर्मन युद्धपोत का निशाना सेंट जॉर्ज फोर्ट था लेकिन वह इसमें चूक गया. अंग्रेज जब तक उसपर जवाबी हमला कर पाते वह तट रेखा से काफी दूर निकल चुका था.
एसएमएस एमदेन
जर्मनी के युद्धपोत एसएमएस एमदेन ने ही मद्रास पर गोले बरसाए थे
मद्रास पर हुए इस एक हमले ने माहौल को पूरी तरह बदल दिया था. अब यहां उत्सव के माहौल की जगह दुबारा हमले की अफवाहें उड़ने लगीं थीं. लोग जल्दी से जल्दी शहर छोड़ देना चाहते थे. इन अफवाहों को तब और बल मिला जब ऊटी छुट्टियां मनाने गए मद्रास के गवर्नर लॉर्ड पेंटलैंड हमले के बावजूद तुरंत मद्रास वापस नहीं लौटे. वे 25 सितंबर को वापस लौटे. हालांकि उन्होंने आते ही मुनादी करवाई कि जर्मनी की तरफ से नये हमले की आशंका न के बराबर है. फिर भी एक बड़ी आबादी ने शहर खाली कर दिया था.
इसी साल नवंबर में मद्रास के लोगों ने तब राहत की सांस ली जब उन्हें पता चला कि कोकोज द्वीप के नजदीक ऑस्ट्रेलियाई युद्धपोत सिडनी के हमले में एमदेन डूब गया है. मद्रास की सुरक्षा को लेकर तब तक अंग्रेज भी और सतर्क हो गए थे. मद्रास में इस तरह का व्यापक पलायन इस घटना के तीन दशक बाद एक बार फिर देखने को मिला.
12 अप्रैल, 1943 को खुद सरकार ने घोषणा कर दी कि जो लोग शहर छोड़कर जा सकते हैं वे चले जाएं. यह एक तरह की स्वीकारोक्ति थी कि अब मद्रास पर कभी-भी हमला हो सकता है
जब मद्रासवासियों को जापान के आतंक का सामना करना था
सन 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध अपने शिखर पर था. जापान का आतंक दक्षिण एशिया पर भी छा चुका था. नौ अप्रैल को कोलंबो पर 75 जापानी विमानों के हमले से यह लगने लगा था कि अब भारत के कुछ शहर भी इसका निशाना बनेंगे. अगले दिन एक जापानी विमान ने आंध्र प्रदेश के काकीनाडा पर भी बम गिरा दिए जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई. इसके बाद अंग्रेजों को आशंका हुई कि अब जापानी विमानों का दूसरा निशाना मद्रास बन सकता है. इसी के मद्देनजर यहां के प्रशासन ने पहली बार हवाई हमला चेतावनी प्रणाली (एआरपी) बनाई और आम लोगों के बीच हवाई हमले से बचाव का जागरूकता अभियान शुरू कर दिया. सरकार ने यहां बंकर बनाने भी शुरू कर दिए. इन तैयारियों की खबर जैसे-जैसे आम लोगों तक फैली लोगों ने शहर छोड़ना शुरू कर दिया. 12 अप्रैल को खुद सरकार ने घोषणा कर दी कि जो लोग शहर छोड़कर जा सकते हैं वे चले जाएं. यह एक तरह की स्वीकारोक्ति थी कि अब मद्रास पर कभी-भी हमला हो सकता है. द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी किताब फार्देस्ट फील्ड : एन इंडियन स्टोरी ऑफ द सेकंड वर्ल्ड वॉर में रघु कर्नाड लिखते हैं कि सरकारी घोषणा के 48 घंटे के भीतर ही तीन लाख लोगों ने शहर छोड़ दिया था और यह सिलसिला आगे भी चला.
अप्रैल का महीना खत्म होते-होते सरकार ने चेतावनी का स्तर घटा दिया. इसके बाद से स्थिति सामन्य होने लगी और सरकारी कार्यालयों और फैक्टरियों में नियमित काम शुरू हो गया. आने वाले कुछ महीनों में शहर की ज्यादातर आबादी वापस लौट आई थी. हालांकि दूसरा विश्व युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ था. अगले साल 1943 में सरकार ने शहर में रहने वालों के लिए एक बार भी चेतावनी जारी नहीं की. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि खतरा तब भी कम नहीं हुआ था लेकिन सरकार बार-बार चेतावनी देकर आबादी का पलायन नहीं चाहती थी. साल खत्म होते-होते मद्रास में फिर भय का माहौल बन गया. अक्टूबर 1943 में मद्रास द्वितीय विश्वयुद्ध में भी दुश्मन देशों का निशाना बन गया. 11 अक्टूबर को एक जापानी विमान ने शहर के कुछ हिस्सों पर बमबारी कर दी. सरकार का कहना था कि ये हल्के स्तर के बम थे और इनसे कुछ खास नुकसान नहीं हुआ लेकिन इसके बाद फिर से शहर की आबादी पलायन करने लगी. इस बार पलायन करने वालों की संख्या ज्यादा नहीं थी क्योंकि अब लोगों ने सरकार द्वार बनाए गए शिविरों में ही रहना शुरू कर दिया था.
जापान का यह हमला मद्रास के लिए चेतावनी था कि अभी विश्व युद्ध खत्म नहीं हुआ है. फिर अगले दो साल तक मद्रास हाईअलर्ट पर ही रहा. इस बीच फिर कभी जापानी सेना ने मद्रास को निशाना बनाने की कोशिश नहीं की लेकिन सिर्फ उनके एक छोटे से हमले ने इस शहर के इतिहास में यह विचित्र संयोग जोड़ दिया कि भारत का यह शहर दोनों विश्व युद्ध में ‘दुश्मन देशों’ के निशाने पर आया था

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