Sunday, 30 August 2015

आँखों पर पट्टी बाँध कर भी मार सकते थे गोल @रेहान फ़ज़ल


  • 29 अगस्त 2015
ध्यानचंदImage copyrightwww.bharatiyahockey.org
Image captionबर्लिन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद ध्यानचंद अपनी टीम के साथ.
लोग उन्हें हॉकी का जादूगर कहते थे. किसी खिलाड़ी की महानता को नापने का सबसे बड़ा पैमाना है कि उसके साथ कितनी किवदंतियाँ जुड़ी हैं. उस हिसाब से तो मेजर ध्यानचंद का कोई जवाब नहीं है.
हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है. जापान के लोगों को अंदेशा था कि उन्होंने अपनी स्टिक में गोंद लगा रखी है.
हो सकता है कि इनमें से कुछ बातें बढ़ा-चढ़ा कर कही गई हों, लेकिन अपने ज़माने में इस खिलाड़ी ने किस हद तक अपना लोहा मनवाया होगा इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि विएना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं..मानो वो कोई देवता हों.

पढिए रेहान फ़ज़ल की विवेचना

ध्यानचंद
पूर्व ओलंपियन कमांडर नंदी सिंह ने बीबीसी से बात करते हुए एक बार कहा था, "दुनिया कहती थी कि बॉल ध्यानचंद की हॉकी से चिपक जाता था, लेकिन वो अकेले खिलाड़ी थे जो गेंद को अपने पास रखते ही नहीं थे. ये ग़लत ख़्याल है कि वो बहुत ड्रिबलिंग करते थे."
"वो बिल्कुल ड्रिबलिंग नहीं करते थे. वो एक एक इंच का नापा हुआ पास देते थे ताकि पास लेने वाले को कोई तकलीफ़ न हो. वो किसी भी कोण से गोल कर सकते थे."
ध्यानचंद की पत्नी जानकी देवी ने भी एक बार उनके बारे में दिलचस्प किस्सा सुनाया था, "एक बार वो एक मैच खेलने कलकत्ता गए. मैच के दौरान एक खिलाड़ी ने उनके सिर पर हॉकी मार दी. उन्होंने उसका कंधा थपथपा कर कहा, कोई बात नहीं. खेल ख़त्म होने में दस मिनट रह गए थे. उन्होंने दस मिनट में तीन गोल किए और कहा, मैंने अपनी चोट का बदला ले लिया."

गज़ब का बॉल डिस्ट्रीब्यूशन

ध्यानचंद अपने बेटे अशोक कुमार के साथImage copyrightAshok Kumar
Image captionध्यानचंद अपने बेटे अशोक कुमार के साथ.
1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगज़ीन के एक अंक में लिखा था, "ध्यान के पास कभी भी तेज़ गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे. लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गज़ब की क्षमता थी."
"बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ़्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फ़ायदा मिला. डी में घुसने के बाद वो इतनी तेज़ी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था."
दो बार के ओलंपिक चैंपियन केशव दत्त बताते थे कि बहुत से लोग उनकी मज़बूत कलाइयों ओर ड्रिब्लिंग के कायल थे.
वो बताते हैं, "लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी. वो उस ढंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है."
"उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंद्वी मूव कर रहे हैं."

बाबू को पास

ध्यानचंदImage copyrightwww.bhartiyahockey.org
Image captionभारतीय हॉकी टीम के साथ ध्यानचंद (बाएं से दूसरे).
याद कीजिए 1986 के विश्व कप फुटबॉल का फ़ाइनल. माराडोना ने बिल्कुल ब्लाइंड एंगिल से बिना आगे देखे तीस गज़ लंबा पास दिया था, जिस पर बुरुचागा ने विजयी गोल दागा था.
किसी खिलाड़ी की संपूर्णता का अंदाज़ा इसी बात से होता है कि वो आँखों पर पट्टी बाँध कर भी मैदान की ज्योमेट्री पर महारत हासिल कर पाए.
केशव दत्त कहते हैं, "जब हर कोई सोचता था कि ध्यानचंद शॉट लेने जा रहे हैं, वो गेंद को पास कर देते थे. इसलिए नहीं कि वो स्वार्थी नहीं थे (जो कि वो नहीं थे) बल्कि इसलिए कि विरोधी उनके इस मूव पर हैरान रह जाएं. जब वो इस तरह का पास आपको देते थे तो ज़ाहिर है आप उसे हर हाल में गोल में डालना चाहते थे."
ध्यानचंद Image copyrightbharatiyahockey.org
1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं.
जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, "अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक़ नहीं था."

अभ्यास मैच की हार

1968 में भारतीय ओलंपिक टीम के कप्तान रहे गुरुबख़्श सिंह ने मुझे बताया कि 1959 में भी जब ध्यानचंद 54 साल के हो चले थे, भारतीय हॉकी टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था.
1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई.
मेजर ध्यानचंदImage copyrightBBC World Service
Image captionमेजर ध्यानचंद ने अपने अनुभवों पर क़िताब 'गोल' लिखी है.
ध्यानचंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं, "मैं जब तक जीवित रहूँगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा. इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए. हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए."
दारा सेमीफ़ाइनल मैच तक ही बर्लिन पहुँच पाए.

नंगे पांव मैदान में

जर्मनी के ख़िलाफ फाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था. लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई. इसलिए मैच अगले दिन यानी 15 अगस्त को खेला गया.
मैच से पहले मैनेजर पंकज गुप्ता ने अचानक कांग्रेस का झंडा निकाला. उसे सभी खिलाड़ियों ने सेल्यूट किया (उस समय तक भारत का अपना कोई झंडा नहीं था. वो गुलाम देश था इसलिए यूनियन जैक के तले ओलंपिक खेलों में भाग ले रहा था).
ध्यानचंदImage copyrightwww.bhartiyahockey.org
Image captionबर्लिन ओलंपिक में गोल दागते हुए ध्यानचंद.
बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन 40 हज़ार लोग फ़ाइनल देखने के लिए मौजूद थे.
देखने वालों में बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेगम के साथ साथ जर्मन नेतृत्व के चोटी के लोग मौजूद थे.
ताज्जुब ये था कि जर्मन खिलाड़ियों ने भारत की तरह छोटे छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी.
हाफ़ टाइम तक भारत सिर्फ़ एक गोल से आगे था. इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोज़े उतारे और नंगे पांव खेलने लगे. इसके बाद तो गोलों की झड़ी लग गई.

स्केटिंग रिंक पर दौड़

ध्यानचंद डाक टिकट
दारा ने बाद में लिखा, "छह गोल खाने के बाद जर्मन रफ़ हॉकी खेलने लगे. उनके गोलकीपर की हॉकी ध्यानचंद के मुँह पर इतनी ज़ोर से लगी कि उनका दांत टूट गया. उपचार के बाद मैदान में वापस आने के बाद ध्यानचंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए."
"सिर्फ़ जर्मन खिलाड़ियों को ये दिखाया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है. इसके बाद हम बार-बार गेंद को जर्मन डी में ले कर जाते और फिर गेंद को बैक पास कर देते. जर्मन खिलाड़ियों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है."
भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया और इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए.
एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा, "बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा. भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों. उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया."
अशोक कुमार, रेहान फ़ज़ल के साथ
Image captionध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ.
ध्यानचंद के पुत्र और म्यूनिख ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाले अशोक कुमार याद करते हैं, "1972 में म्यूनिख में हम लोग प्रैक्टिस कर रहे थे. तभी मैंने देखा एक स्ट्रेचर पर बहुत बुज़ुर्ग शख़्स चले आ रहे हैं. आते ही उन्होंने पूछा कि अशोक कुमार कहाँ है?"
"जब उन्हें मुझसे मिलवाया गया तो उन्होंने इतने भावपूर्ण तरीके से ध्यानचंद के बारे में बातें की कि मैं बता नहीं सकता. उनके पास 1936 की जर्मन अख़बारों की कतरनें थीं, जिनमें मेरे पिता के खेल की तारीफ़ की गई थी."

ध्यानचंद और सहगल

भारत लौटने के बाद ध्यानचंद के साथ एक मज़ेदार घटना हुई. फ़िल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ध्यानचंद के फ़ैन थे.
एक बार मुंबई में हो रहे एक मैच में वो अपने साथ नामी गायक कुंदन लाल सहगल को ले आए.
हाफ़ टाइम तक कोई गोल नहीं हो पाया. सहगल ने कहा कि "दोनों भाइयों का बहुत नाम सुना है. मुझे ताज्जुब है कि आप में से कोई आधे समय तक एक गोल भी नहीं कर पाया."
कुंदन लाल सहगल
रूप सिंह ने तब सहगल से पूछा कि क्या हम जितने गोल मारें उतने गाने हमें आप सुनाएंगे? सहगल राज़ी हो गए.
दूसरे हाफ़ में दोनों भाइयों ने मिल कर 12 गोल दागे. लेकिन फ़ाइनल व्हिसिल बजने से पहले सहगल स्टेडियम छोड़ कर जा चुके थे. अगले दिन सहगल ने अपने स्टूडियो तक आने के लिए ध्यानचंद के पास अपनी कार भेजी.
लेकिन जब ध्यानचंद वहाँ पहुंचे तो सहगल ने कहा कि गाना गाने का उनका मूड उखड़ चुका है.
ध्यानचंद बहुत निराश हुए कि सहगल ने नाहक ही उनका समय ख़राब किया. लेकिन अगले दिन सहगल खुद अपनी कार में उस जगह पहुँचे जहाँ उनकी टीम ठहरी हुई थी और उन्होंने उनके लिए 14 गाने गाए.

न सिर्फ़ गाने बल्कि उन्होंने हर खिलाड़ी को एक एक घड़ी भी भेंट की!

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