Saturday, 15 August 2015

यदि भारत का विभाजन नहीं होता... @रामचंद्र गुहा

अड़सठ साल किसी व्यक्ति के जीवन के लिहाज से काफी ज्यादा होते हैं, लेकिन एक राष्ट्र के लिए यह छोटी अवधि है। इसलिए अक्सर किसी पुस्तक या लेख में भारत के विभाजन पर अफसोस जताया जाता है। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, गांधी, जिन्ना, नेहरू, पटेल-इन सबमें से कभी किसी एक पर, तो कभी कुछ लोगों पर और कभी इन सब पर यह दोष मढ़ा जाता है कि इन्होंने भारत को एकजुट बनाए रखने की पर्याप्त कोशिश नहीं की। फिर इन पुस्तकों और लेखों में व्यापक लोकप्रिय भावनाएं परोसी जाती हैं कि भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के लोग यदि एक ही देश के नागरिक होते, तो उनकी स्थिति बेहतर होती।

एक इतिहासकार और एक नागरिक होने के नाते मैंने इस सवाल पर लंबे समय तक गंभीरता से विचार किया है। और अनिच्छापूर्वक मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि विभाजन से पहले और बाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा को रोका जा सकता था और रोका जाना चाहिए था, पर ब्रिटिश भारत का विभाजन कोई बुरी बात नहीं थी। अगर विभाजन को टाला जा सकता था, तो यह 1946 के कैबिनेट मिशन प्लान के आधार पर होता। उस प्लान में एक कमजोर केंद्र की परिकल्पना थी, जिसका नियंत्रण मुद्रा, विदेश नीति और बाह्य सुरक्षा पर ही होता। बाकी तमाम चीजें प्रांतों के नियंत्रण में होतीं।

कैबिनेट मिशन प्लान का यह पहलू सामान्य रूप से सर्वविदित है। जो बात लोगों को पता नहीं है और जिस पर शायद ही साहित्य में चर्चा हुई है, वह यह कि उस प्लान में रियासतों की स्थिति को अस्पष्ट छोड़ दिया गया था। वे स्वयं अपनी सीमा से सटे राज्यों में शामिल होने का फैसला कर सकते थे, लेकिन इसकी शर्तें स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं की गई थीं। इसके अलावा, अगर कोई रियासत स्वतंत्र रहने का दावा करे, तो उस पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था।

यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि अंग्रेजों ने जब इस महाद्वीप को छोड़ा था, तो वे अपने पीछे मात्र दो नहीं, बल्कि पांच सौ से ज्यादा राजनीतिक संस्थाएं छोड़ गए थे। वे रियासतों की समस्या का कोई समाधान निकाले बिना ही चले गए। इनमें से ज्यादातर राज्य भारत में सन्निहित थे और बहुत कम पाकिस्तान में। वल्लभभाई पटेल, वीपी मेनन और उनकी टीम पर बड़ी मेहनत से एक के बाद एक इन रियासतों को भारत में शामिल करने का दायित्व छोड़ा गया था, जो अब भारतीय गणराज्य का हिस्सा हैं।

अगर कैबिनेट मिशन प्लान को अपनाया गया होता, तो कोई नहीं कह सकता कि महाराजाओं और नवाबों के साथ क्या होता। वास्तव में 15 अगस्त, 1947 के बाद केंद्र का इन पर कोई नियंत्रण नहीं होता। इन रियासतों के प्रधान काफी कठिन सौदा करते और यहां तक कि बड़ी रियासतें स्वतंत्र रहने का भी फैसला कर सकती थीं। अपने अहंकार में वे अपने स्टांप (डाक टिकट) और अपनी रेल प्रणाली को बनाए रखने की इच्छा जता सकते थे। उनमें से कुछ संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए भी आवेदन कर सकते थे। और ब्रिटेन की राजनीतिक पार्टी, जो भारत की आजादी के विचार से ही नफरत करती थी, उनके इस प्रयास में सक्रिय मदद करती।

यही वह पहला कारण है, जिसके चलते हमें अविभाजित भारत के प्रति लालायित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने पर भारत पूरी तरह एक नहीं हो पाता। न केवल प्रांत, बल्कि रियासतों के भी स्वतंत्र रहने, ब्लैकमेल करने या संघ से अलग होने का खतरा रहता। फिर भला हम कैसे एक संविधान, साझा रेल प्रणाली और सन्निहित क्षेत्र (कश्मीर से कन्याकुमारी तक) के साथ एकीकृत गणराज्य का निर्माण कर सकते, जैसा कि अभी है?

मौजूदा भारत के अस्तित्व के लिए कैबिनेट मिशन प्लान को खारिज करना बहुत जरूरी था। इसने अंबेडकर और उनके सहयोगियों को एक प्रगतिशील, एकीकृत संविधान का मसौदा तैयार करने की अनुमति दी, जिसमें बहुदलीय लोकतंत्र, न्यायिक स्वतंत्रता, वस्तुओं और लोगों की मुक्त आवाजाही और सामाजिक विषमता से निपटने के कार्यक्रम अनिवार्य हैं।

आज भारत में तेरह फीसदी मुसलमान हैं, यानी सात में से एक। अविभाजित भारत में मुसलमानों की आबादी करीब तैंतीस फीसदी होती, यानी तीन में से एक। ऐसे में जनसांख्यिकीय संतुलन और नाजुक होता और सांप्रदायिक आधार पर शोषण का खतरा दोनों तरफ होता। औपनिवेशिक भारत के आखिरी दौर की राजनीति में पहले से ही धार्मिक कट्टरपंथियों का हौसला काफी बढ़ गया था, चाहे मुस्लिम हों या हिंदू। हालांकि भारत के विभाजन ने गांधी, नेहरू और पटेल को सांप्रदायिक बहुमत को मजबूती से परास्त करने और गणराज्य में अल्पसंख्यकों को स्वतंत्र एवं बराबर की जगह के प्रति आश्वस्त करने की अनुमति दी।

इन्हीं महान नेताओं की वजह से भारत, कम से कम अब तक, एक 'हिंदू पाकिस्तान' नहीं है। लेकिन अगर यह दो के बजाय एक देश होता, तो सांप्रदायिक हिंसा को रोकना कठिन हो गया होता। हिंदू और मुसलमानों के बीच पहला गृहयुद्ध राष्ट्र की भाषा और लिखने के लिए कौन-सी लिपि अपनाई जाए, इसके सवाल पर हो सकता था। उसके बाद दूसरे और ज्यादा खूनी संघर्ष हो सकते थे। फिर तो भारत के लेबनान से भी भयानक स्थिति में होने की आशंका होती।

तीसरा कारण, जो मुझे अविभाजित भारत के प्रति मोहग्रस्त होने से रोकता है, वह यह कि तब शीतयुद्ध में हम एक सीमावर्ती देश होते। अफगानिस्तान से सीमा साझा करने के साथ न केवल हमें रूस और अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ता, बल्कि अभी जितना जेहाद और जिहादियों से जूझना पड़ता है, उससे ज्यादा जूझना पड़ता।

अविभाजित भारत के विचार को खारिज करते हुए विभाजन के दौरान हुई हिंसा को नजरंदाज करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। विभाजन को और अधिक बुद्धिमानी से अंजाम दिया जा सकता था। अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन बहुत जल्दी में थे और उन्हें भारतीयों की तुलना में अंग्रेजों की जान बचाने की ज्यादा चिंता थी। वह पंजाब में ज्यादा सैनिकों को तैनात करने की सलाह पर ध्यान देने में विफल रहे और भीतरी इलाकों में चाय बागानों के मैनेजरों और मिशनरियों की रक्षा के लिए उन्होंने सैन्य टुकड़ी भेजी, जबकि दंगे देश के हृदयस्थल में भड़के थे।

भारतीय गणराज्य के निर्माण का काम अब भी जारी है। हम काफी हद तक एक और कुछ हद तक लोकतांत्रिक हैं। फिर भी लैंगिक और जातिगत असमानता बरकरार है। धार्मिक और जातीय हिंसा खत्म नहीं हुई है। बेशक अखंड भारत की भावना के लिए तड़प पैदा हो सकती है, पर इतिहास का सामान्य तर्क बताता है कि यदि विभाजन नहीं हुआ होता, तो चीजें और भी बुरी हो सकती थीं।

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