Sunday, 30 August 2015

कैसा भारत चाहते थे गांधी? @रामचंद्र गुहा

अपने पिछले कॉलम में अविभाजित भारत के बारे में जो मैंने लिखा, उस पर कई लोगों की टिप्पणियां मुझे मिलीं। कुछ समर्थन में, तो कुछ आलोचना में। हालांकि इसमें अचरज जैसी तो कोई बात है नहीं, क्योंकि विभाजन हमेशा से एक विवादित विषय रहा है। लेकिन इनमें से कुछ प्रतिक्रियाएं वाकई हैरत में डालने वाली थीं। दरअसल, कुछ लोगों ने मुझ पर जवाहरलाल नेहरू का पक्षधर होने, तो कुछ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस का समर्थक होने की तोहमत लगाई। सवाल यह है कि क्या ये दोनों आरोप किसी एक दिल, दिमाग या भारतीय पर लगाए जा सकते हैं। और अगर वाकई ऐसा है, तो यह कुछ दैवीय बात है। मेरा तर्क साफ था कि अगर 1946 के कैबिनेट मिशन को स्वीकार कर लिया जाता, तो हमें एक विभाजित और कमजोर भारत देखने को मिलता। मगर फिर भी, उन शर्तों पर हुए विभाजन के नतीजे कम भयानक साबित होते। मैं इस कॉलम में दो सवाल उठाना चाहता हूं। पहला, क्या विभाजन को कुछ समय पहले रोका जा सकता था? दूसरा, समय का वह कौन-सा बिंदु था, जिसके बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग की मांगों के बीच सामंजस्य बैठाना मुमकिन नहीं रह गया?

कुछ लेखक दावा करते हैं कि 1942 में गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन ने विभाजन की आशंका को बढ़ा दिया था। इस आंदोलन की वजह से अंग्रेजी हुकूमत और कांग्रेस के बीच की दूरी बढ़ गई थी, क्योंकि इसके कई नेता जेल में भर दिए गए थे। वहीं, जिन्ना के पास मुस्लिम लीग के संगठन को मजबूत करने और अंग्रेजों के नजदीक आने का भरपूर मौका था। कुछ गहरी याद्दाश्त वाले लेखक शायद विभाजन की जड़ों को 1940 में ढूंढ सकते हैं, जब मुस्लिम लीग ने अपना कथित पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया था। डेविड गिलमार्टिन और वेंकट धुलिपाला जैसे विद्वान भी मानते हैं कि इस प्रस्ताव से पूरे भारत के मुसलमानों में उत्साह की लहर दौड़ने लगी थी और उनके भीतर एक स्वतंत्र राष्ट्र का सपना पनपने लगा था। इसके बाद पाकिस्तान के लिए समर्थन की आवाजें बढ़ती गईं। हालांकि जिन्ना को सभी मुसलमानों की आवाज नहीं माना जा सकता था। मगर, इसमें दोराय नहीं कि 1946 तक आते-आते वह एक ऐसी मांग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिसका आकर्षण काफी बढ़ चुका था।

इतिहास में थोड़ा और पीछे लौटते हैं। 1937 में कांग्रेस ने संयुक्त प्रांत में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाने से इन्कार कर दिया था। एक दूसरे महत्वपूर्ण प्रांत बॉम्बे में कांग्रेस ने अपने नेता के तौर पर ज्यादा योग्य पारसी की जगह एक हिंदू को चुना। इससे कांग्रेस पर बहुसंख्यकों पर आधारित राजनीति करने का आरोप लगा, जिससे सांप्रदायिक विभाजन की भावना को फैलने का मौका मिला। तो क्या विभाजन की जड़ों की तलाश 1937 पर पहुंचकर रुक जानी चाहिए? या फिर इसके लिए थोड़ा और पीछे 1930 में जाना चाहिए, जब विख्यात कवि मुहम्मद इकबाल मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चुने गए थे? अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था, 'उत्तर-पश्चिम में एक संगठित मुस्लिम राज्य का गठन ही कम से कम इस क्षेत्र के मुसलमानों की अंतिम नियति है।' यह पहली दफा था, जब किसी प्रतिष्ठित मुस्लिम ने इतने साफ लफ्जों में विभाजन का समर्थन किया था। क्या यही पाकिस्तान के बनने का आरंभ बिंदु था, और बाद के विचारक इसी कड़ी में मुस्लिम बहुसंख्यक बंगाल से पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत को जोड़ते चले गए? दरअसल, वह आदरणीय इकबाल नहीं थे, जिन्होंने विभाजन के बीज बोए थे। जिस शख्स ने यह काम किया, वह इकबाल से भी ज्यादा आदरणीय थे। वह गांधी थे। गौरतलब है कि 1920 से 1922 के बीच गांधी ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया। खिलाफत आंदोलन के साथ उलेमा के भी हित जुड़े थे, जिसके चलते आधुनिक सोच वाले मुसलमान इससे अलग रहे। असहयोग आंदोलन में ब्रिटिश राज के खिलाफ सड़कों पर व्यापक प्रदर्शन किया गया, हालांकि यह अहिंसक था। लेकिन इससे नरमपंथी अलग रहे। जिन्ना स्वतंत्र सोच वाले मुस्लिम थे, साथ ही, वह नरमपंथियों के भी अगुआ थे। जिन्ना, गांधी के इन दोनों आंदोलनों के खिलाफ थे। इसी वजह से दिसंबर, 1920 में कांग्रेस के महत्वपूर्ण नागपुर अधिवेशन में गांधी के समर्थकों ने उनका जमकर विरोध किया।

1920 तक गांधी और जिन्ना के रिश्ते काफी मधुर थे। मगर उसके बाद उनमें दरार दिखने लगी। तो, वह शायद कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन था, जहां विभाजन की जड़ों की अपनी तलाश को हम विराम दे सकते हैं। शायद नहीं। इस यात्रा में हमारा अंतिम पड़ाव 1920 नहीं, बल्कि 1906 होगा, जब मुसलमान जमीदारों और सामंतों का एक समूह वॉयसराय लॉर्ड मिंटो से मिला और उसने हिंदुओं के प्रभुत्व से बचाने के लिए मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मांग की। उनकी यह मांग मंजूर कर ली गई। 1909 से मुस्लिम मतदाताओं को दूसरी अन्य आबादी से अलग कर दिया गया। विभाजनकारी राजनीति के लिए इसने उत्प्रेरक का काम किया और जिसकी तार्किक परिणति पृथक राष्ट्रों के निर्माण के रूप में सामने आई।

तर्क-वितर्क, साजिश की कहानियां और काफी पहले दिवंगत हो चुके नेताओं के खिलाफ विषवमन निरंतर जारी रहेगा। लेकिन मैं इस कॉलम का अंत विभाजन से आगे जाकर करना चाहता हूं। दो राष्ट्रों के निर्माण से भारतीयों के सामने एक बुनियादी सवाल पैदा हुआ कि जिन मुसलमानों ने भारत में ही रहना स्वीकार किया उनके साथ सरकार का बर्ताव कैसा होना चाहिए?

1947 के बाद भारत में पाकिस्तान से आने वाले हिंदू और सिख शरणार्थियों की बाढ़ जैसी आ गई। उनकी तकलीफों से प्रतिकार की भावना पैदा हुई और फिर दिल्ली सहित उत्तर भारत में मुस्लिमों के विरुद्ध हिंसा भड़क गई। गांधी ने इसका विरोध किया। 15 नवंबर, 1947 को गांधी ने एक भाषण में कहा, 'मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि भारत हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों का है। जो कुछ हो रहा है, उसके लिए आप मुस्लिम लीग पर यह दोष मढ़ सकते हैं और कह सकते हैं कि इसके लिए दो राष्ट्र का सिद्धांत इसकी जड़ में है। आप यह भी कह सकते हैं कि मुस्लिम लीग ने यह जहर बोया। इसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूं कि यदि हम भी दूसरों के साथ ऐसा बुरा बर्ताव करें तो यह हिंदू धर्म के साथ विश्वासघात होगा।'

अपने भाषणों और रेडियो प्रसारणों में गांधी अपने हिंदू भाइयों से कहते थे कि पाकिस्तान में चाहे जो हो रहा हो, आपकी यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि आप मुस्लिमों के साथ भाइयों जैसा व्यवहार करें। और जब उनकी कही बातों का असर नहीं हुआ, तो उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी, जिससे दिल्ली में हिंसा भड़क गई। और फिर 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या कर दी गई। हिंदू, उनकी ही बिरादरी के एक शख्स द्वारा राष्ट्रपिता की हत्या किए जाने से हतप्रभ रह गए। मुस्लिमों के खिलाफ हमले रुक गए।

भारत के विभाजन के सात दशक बाद इस पर होने वाली बहस का सिर्फ अकादमिक महत्व है। लेकिन इसके अवशेषों को कैसे नियंत्रित किया जाए, यह प्रश्न उतना ही अहम है। हिंदुत्व के पैरोकार अब भी भारतीय मुसलमानों से उनकी वफादारी साबित करने की मांग करते हैं। यहीं पर गांधी के शब्द प्रासंगिक लगते हैं, पाकिस्तान (या बांग्लादेश) अपने अल्पसंख्यकों के साथ चाहे जैसा व्यवहार करते हों, भारत की सरकार और यहां के नागरिकों को प्रतिशोध की नीति से निजात पानी होगी

एक छापाख़ाना, और हिंदू इंडिया बनाने की मुहिम @विनीत खरे



  • 29 अगस्त 2015
गीता प्रेस
गीता प्रेस से कौन परिचित नहीं?
1920 के दशक में दो मारवाड़ी व्यापारियों जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने गीता प्रेस और ‘कल्याण’ पत्रिका की स्थापना की थी.
वर्ष 2014 तक गीता प्रेस ने भगवद्गीता की सात करोड़ से ज़्यादा प्रतियां, तुलसीदास की कृतियों की करीब सात करोड़ प्रतियां और पुराण और उपनिषद् की दो करोड़ प्रतियां बेचीं.
ये कहना ग़लत नहीं होगा कि सनातन हिंदुत्व की मान्यताओं को गीता प्रेस ने घर-घर तक पहुंचाया और हिंदुत्व पुनरुत्थानवादियों के मिशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
आज की राजनीति में जब हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान की बात होती है या घर वापसी पर बहस छिड़ती है, या गोमांस पर प्रतिबंध की मांग गर्म होती है तो इसे सीधे गीता प्रेस, कल्याण से, उनकी स्थापना के दिनों से जोड़कर देखा जा सकता है.
मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ की आज भी दो लाख से ज़्यादा प्रतियां बिकती हैं. अंग्रेज़ी मासिक संस्करण ‘कल्याण कल्पतरु’ की एक लाख से ज़्यादा प्रतियां घरों तक पहुंचती हैं.
गीता प्रेसImage copyrighthttpwww.kalyangitapress.org
पत्रकार अक्षय मुकुल ने किताब ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ हिंदू इंडिया’ में विस्तार से गीता प्रेस के आक्रामक हिंदुत्व पर लिखा है.
सनातन हिंदुत्व के विस्तार में गीता प्रेस सबसे पुराना और कामयाब प्रिंट उपक्रम है. इसका सबसे बड़ा योगदान है हिंदू धार्मिक ग्रंथों को आम लोगों तक सस्ते दाम में पहुंचाना.
साथ ही गीता प्रेस ने 1920 के दशक में हिंदुत्व को राष्ट्रीयता से जोड़ा और न सिर्फ़ देश के भीतर रहने वाले बल्कि विदेशों में रहने वाले हिंदुओं को जोड़ने का काम किया.
भगवद्गीता, रामचरितमानस, उपनिषद् आदि हिंदू धर्म ग्रंथों के अलावा ‘कल्याण’ ने सनातन हिंदू धर्म के बिंदुओं और उसकी प्राचीन विचारधारा को आम लोगों तक पहुंचाया, हालांकि वेदों को छापने से गीता प्रेस ने खुद को दूर रखा!

‘हिंदू एकता’

अक्षय मुकुल लिखते हैं कि पत्रिका के लेखों की सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि उनमें हिंदू समाज के आपसी मतभेदों पर बात नहीं होती थी.
आर्य समाज, हिंदू महासभा और अलग-अलग हिंदू संगठन कई विषयों पर अलग-अलग सोच रखते थे, लेकिन पत्रिका मतभेदों के बजाए हिंदुओं की एकता की बात करती थी और उदाहरण इस्लाम का दिया जाता था.
गीता प्रेस के अनुसार, इस्लाम का अनुसरण करने वाले लोग जहां एक सुर में बात करते हैं, हिंदू संप्रदाय अलग-अलग ज़ुबान में बात करते थे - आर्य समाज कुछ कहता है, हिंदू महासभा का रुख़ कुछ और रहता है.
कल्याण पत्रिकाImage copyrightGEETA PRESS
पत्रकार और लेखक अक्षय मुकुल के अनुसार, कल्याण में आर्य समाजियों, हिंदू महासभा और सभी हिंदू संगठनों के नेताओं के लेख छपते थे.
गीता प्रेस दलितों के मंदिर प्रवेश के विरुद्ध था, जबकि हिंदू महासभा इसके पक्ष में था. हिंदू महासभा का कहना था कि दलितों को उच्च जाति के चंगुल से निकलना चाहिए.
कल्याण का कहना था कि मंदिर में प्रवेश ‘अछूतों’ के लिए नहीं है और अगर आप पैदा ही ‘नीची जाति’ में हुए हैं तो ये आपके पिछले जन्म के कर्मों का फल है.
इसके बावजूद गीता प्रेस ने कभी भी हिंदू महासभा की आलोचना नहीं की.
गीता प्रेस की हिंदी पत्रिका ‘कल्याण’ और अंग्रेज़ी पत्रिका ‘कल्याण कल्पतरु’ मध्यम वर्ग, निम्न-मध्यम वर्ग, हर तरह के घरों में पहुंचती थी और इस कारण इसका प्रभाव आम लोगों में बढ़ा.
अक्षय मुकुल कहते हैं कि हिंदू महासभा जैसी संस्थाओं को लगता था कि अगर वो ‘कल्याण’ के माध्यम से अपनी बात रखेंगे तो उनकी बात आम लोगों तक पहुंचेगी.

तीखी भाषा

1940 के दशक में जब लग रहा था कि स्वतंत्रता क़रीब है तो भक्तिज्ञान और वैराग्य की बात करने वाले ‘कल्याण’ ने हिंदू महासभा की भाषा बोलनी शुरू की.
‘जिन्ना चाहे देदे जान, नहीं मिलेगा पाकिस्तान’ जैसे नारों से उसके पन्ने रंगे होते थे.
गीता प्रेसImage copyrightKumar Harsh
शुरुआत में हनुमान प्रसाद पोद्दार के महात्मा गांधी के साथ मधुर संबंध थे, लेकिन धीरे-धीरे संबंधों में गिरावट आती गई.
पत्रिका ने 40 के दशक में महात्मा गांधी पर जमकर हमला बोला. अक्षय मुकुल के अनुसार, 1946 में मदन मोहन मालवीय की मृत्यु के बाद पत्रिका ने मालवीय अंक निकाला लेकिन यूनाइटेड प्रोविंस और बिहार सरकारों ने इसके उत्तेजक विषय वस्तु के कारण इसे ज़ब्त कर लिया.
अक्षय मुकुल बताते हैं कि अंक में हिंदू महिलाओं के बलात्कार, उनके शोषण का चित्रण किया गया था.
‘कल्याण’ का कहना था अगर अगर आप राम-नाम का जप करते हैं तो उसका फल भी मिलेगा. पत्रिका ने राम-नाम जप बैंक की शुरुआत की.
पूरे देश से लोग कॉपियों में राम-नाम लिखकर भेजते हैं और इन कॉपियों को बैंक में जमा किया जाता है.
पत्रिका में पाठकों के पत्र छपते थे जिसमें लोग बताते थे कि कैसे उन्हें राम-नाम जपने से फायदा पहुंचता था. पत्रिका ने रामायण परीक्षा की भी शुरुआत की.

सनातन हिंदुत्व

आज़ादी के बाद जब हिंदू कोड बिल पर बहस चली तो गीता प्रेस ने महीनों तक जवाहरलाल नेहरू और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर पर तीखे हमले किए.
गीता प्रेस ने वर्ण व्यवस्था की वकालत की और उसका मानना था कि हिंदू कोड बिल हिंदुओं के विरुद्ध है और इसके प्रभाव में आने से गैर-हिंदू दामाद बेटियों से शादी कर घर आ जाएंगे.
‘कल्याण’ ने ये मुहिम संविधान सभा के बनने से लेकर उस वक्त तक चलाई जब तक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल को चार हिस्सों में पास नहीं कर दिया.
गीता प्रेस
1951-52 में जब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी चुनाव में नेहरू के खिलाफ़ खड़े हुए तो ‘कल्याण’ ने मुहिम चलाई कि लोग प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को वोट दें क्योंकि ‘कल्याण’ के अनुसार नेहरू अधर्मी थे.
गोरक्षा आंदोलन में भी हनुमान प्रसाद पोद्दार का योगदान ज़बरदस्त था. अक्षय मुकुल बताते हैं कि इस आंदोलन में उनके अलावा कई कांग्रेस सदस्य भी शामिल थे. मदनमोहन मालवीय, सेठ गोविंददास, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जैसे कांग्रेस सदस्यों के गीता प्रेस से नज़दीकी संबंध रहे.
अक्षय मुकुल के अनुसार, 1951-52 गोविंद बल्लभ पंत हनुमान प्रसाद पोद्दार को भारत रत्न देना चाहते थे, ये भूलकर कि 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब 25,000 लोग जिन्हें हिरासत में लिया गया, उनमें पोद्दार भी थे.
चाहे बाबरी मस्जिद हो, सेतुसमुंद्रम परियोजना हो, या फिर 2014 लोकसभा चुनाव ‘कल्याण’ ने बेबाकी से विचार पेश किए हालांकि ये कहना भी ग़लत न होगा कि हनुमान प्रसाद पोद्दार के नेतृत्व में पत्रिका का जो प्रभाव था, वो अब नहीं है.

सफ़ाई

पत्रकार कुमार हर्ष से बातचीत में ‘कल्याण’ के संपादक राधेश्याम खेमका कहते हैं कि उनके सभी प्रकाशन “मनुष्य जीवन के लक्ष्यों और कल्याण की चर्चा करते हैं. हम आध्यात्मिक उन्नति के लिए कृतसंकल्प हैं, किसी आक्रामकता के लिए नहीं.”
वर्ण व्यवस्था, भेदभाव, हिंदुत्व, सनातन परंपरा आदि पर गीता प्रेस की नीतियों पर खेमका कोई सीधा उत्तर नहीं देते.
लेकिन अल्पसंख्यकों के प्रति कथित दुर्भावना पर वो कहते हैं, “मेरी स्मृति के अनुसार विभाजन बेला में नोआखाली सांप्रदायिक संघर्ष के दौरान भी ‘हिन्दू अपनी रक्षा कैसे करें’ जैसे जो लेख छपे भी थे वे भी वैमनस्यता बढ़ने वाले नहीं बल्कि अपनी रक्षा अपनी हिफाज़त पर केन्द्रित थे. साम्प्रदायिकता के आरोप उचित नहीं हैं.

आँखों पर पट्टी बाँध कर भी मार सकते थे गोल @रेहान फ़ज़ल


  • 29 अगस्त 2015
ध्यानचंदImage copyrightwww.bharatiyahockey.org
Image captionबर्लिन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद ध्यानचंद अपनी टीम के साथ.
लोग उन्हें हॉकी का जादूगर कहते थे. किसी खिलाड़ी की महानता को नापने का सबसे बड़ा पैमाना है कि उसके साथ कितनी किवदंतियाँ जुड़ी हैं. उस हिसाब से तो मेजर ध्यानचंद का कोई जवाब नहीं है.
हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है. जापान के लोगों को अंदेशा था कि उन्होंने अपनी स्टिक में गोंद लगा रखी है.
हो सकता है कि इनमें से कुछ बातें बढ़ा-चढ़ा कर कही गई हों, लेकिन अपने ज़माने में इस खिलाड़ी ने किस हद तक अपना लोहा मनवाया होगा इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि विएना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं..मानो वो कोई देवता हों.

पढिए रेहान फ़ज़ल की विवेचना

ध्यानचंद
पूर्व ओलंपियन कमांडर नंदी सिंह ने बीबीसी से बात करते हुए एक बार कहा था, "दुनिया कहती थी कि बॉल ध्यानचंद की हॉकी से चिपक जाता था, लेकिन वो अकेले खिलाड़ी थे जो गेंद को अपने पास रखते ही नहीं थे. ये ग़लत ख़्याल है कि वो बहुत ड्रिबलिंग करते थे."
"वो बिल्कुल ड्रिबलिंग नहीं करते थे. वो एक एक इंच का नापा हुआ पास देते थे ताकि पास लेने वाले को कोई तकलीफ़ न हो. वो किसी भी कोण से गोल कर सकते थे."
ध्यानचंद की पत्नी जानकी देवी ने भी एक बार उनके बारे में दिलचस्प किस्सा सुनाया था, "एक बार वो एक मैच खेलने कलकत्ता गए. मैच के दौरान एक खिलाड़ी ने उनके सिर पर हॉकी मार दी. उन्होंने उसका कंधा थपथपा कर कहा, कोई बात नहीं. खेल ख़त्म होने में दस मिनट रह गए थे. उन्होंने दस मिनट में तीन गोल किए और कहा, मैंने अपनी चोट का बदला ले लिया."

गज़ब का बॉल डिस्ट्रीब्यूशन

ध्यानचंद अपने बेटे अशोक कुमार के साथImage copyrightAshok Kumar
Image captionध्यानचंद अपने बेटे अशोक कुमार के साथ.
1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगज़ीन के एक अंक में लिखा था, "ध्यान के पास कभी भी तेज़ गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे. लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गज़ब की क्षमता थी."
"बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ़्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फ़ायदा मिला. डी में घुसने के बाद वो इतनी तेज़ी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था."
दो बार के ओलंपिक चैंपियन केशव दत्त बताते थे कि बहुत से लोग उनकी मज़बूत कलाइयों ओर ड्रिब्लिंग के कायल थे.
वो बताते हैं, "लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी. वो उस ढंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है."
"उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंद्वी मूव कर रहे हैं."

बाबू को पास

ध्यानचंदImage copyrightwww.bhartiyahockey.org
Image captionभारतीय हॉकी टीम के साथ ध्यानचंद (बाएं से दूसरे).
याद कीजिए 1986 के विश्व कप फुटबॉल का फ़ाइनल. माराडोना ने बिल्कुल ब्लाइंड एंगिल से बिना आगे देखे तीस गज़ लंबा पास दिया था, जिस पर बुरुचागा ने विजयी गोल दागा था.
किसी खिलाड़ी की संपूर्णता का अंदाज़ा इसी बात से होता है कि वो आँखों पर पट्टी बाँध कर भी मैदान की ज्योमेट्री पर महारत हासिल कर पाए.
केशव दत्त कहते हैं, "जब हर कोई सोचता था कि ध्यानचंद शॉट लेने जा रहे हैं, वो गेंद को पास कर देते थे. इसलिए नहीं कि वो स्वार्थी नहीं थे (जो कि वो नहीं थे) बल्कि इसलिए कि विरोधी उनके इस मूव पर हैरान रह जाएं. जब वो इस तरह का पास आपको देते थे तो ज़ाहिर है आप उसे हर हाल में गोल में डालना चाहते थे."
ध्यानचंद Image copyrightbharatiyahockey.org
1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं.
जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, "अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक़ नहीं था."

अभ्यास मैच की हार

1968 में भारतीय ओलंपिक टीम के कप्तान रहे गुरुबख़्श सिंह ने मुझे बताया कि 1959 में भी जब ध्यानचंद 54 साल के हो चले थे, भारतीय हॉकी टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था.
1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई.
मेजर ध्यानचंदImage copyrightBBC World Service
Image captionमेजर ध्यानचंद ने अपने अनुभवों पर क़िताब 'गोल' लिखी है.
ध्यानचंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं, "मैं जब तक जीवित रहूँगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा. इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए. हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए."
दारा सेमीफ़ाइनल मैच तक ही बर्लिन पहुँच पाए.

नंगे पांव मैदान में

जर्मनी के ख़िलाफ फाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था. लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई. इसलिए मैच अगले दिन यानी 15 अगस्त को खेला गया.
मैच से पहले मैनेजर पंकज गुप्ता ने अचानक कांग्रेस का झंडा निकाला. उसे सभी खिलाड़ियों ने सेल्यूट किया (उस समय तक भारत का अपना कोई झंडा नहीं था. वो गुलाम देश था इसलिए यूनियन जैक के तले ओलंपिक खेलों में भाग ले रहा था).
ध्यानचंदImage copyrightwww.bhartiyahockey.org
Image captionबर्लिन ओलंपिक में गोल दागते हुए ध्यानचंद.
बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन 40 हज़ार लोग फ़ाइनल देखने के लिए मौजूद थे.
देखने वालों में बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेगम के साथ साथ जर्मन नेतृत्व के चोटी के लोग मौजूद थे.
ताज्जुब ये था कि जर्मन खिलाड़ियों ने भारत की तरह छोटे छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी.
हाफ़ टाइम तक भारत सिर्फ़ एक गोल से आगे था. इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोज़े उतारे और नंगे पांव खेलने लगे. इसके बाद तो गोलों की झड़ी लग गई.

स्केटिंग रिंक पर दौड़

ध्यानचंद डाक टिकट
दारा ने बाद में लिखा, "छह गोल खाने के बाद जर्मन रफ़ हॉकी खेलने लगे. उनके गोलकीपर की हॉकी ध्यानचंद के मुँह पर इतनी ज़ोर से लगी कि उनका दांत टूट गया. उपचार के बाद मैदान में वापस आने के बाद ध्यानचंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए."
"सिर्फ़ जर्मन खिलाड़ियों को ये दिखाया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है. इसके बाद हम बार-बार गेंद को जर्मन डी में ले कर जाते और फिर गेंद को बैक पास कर देते. जर्मन खिलाड़ियों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है."
भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया और इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए.
एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा, "बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा. भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों. उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया."
अशोक कुमार, रेहान फ़ज़ल के साथ
Image captionध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ.
ध्यानचंद के पुत्र और म्यूनिख ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाले अशोक कुमार याद करते हैं, "1972 में म्यूनिख में हम लोग प्रैक्टिस कर रहे थे. तभी मैंने देखा एक स्ट्रेचर पर बहुत बुज़ुर्ग शख़्स चले आ रहे हैं. आते ही उन्होंने पूछा कि अशोक कुमार कहाँ है?"
"जब उन्हें मुझसे मिलवाया गया तो उन्होंने इतने भावपूर्ण तरीके से ध्यानचंद के बारे में बातें की कि मैं बता नहीं सकता. उनके पास 1936 की जर्मन अख़बारों की कतरनें थीं, जिनमें मेरे पिता के खेल की तारीफ़ की गई थी."

ध्यानचंद और सहगल

भारत लौटने के बाद ध्यानचंद के साथ एक मज़ेदार घटना हुई. फ़िल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ध्यानचंद के फ़ैन थे.
एक बार मुंबई में हो रहे एक मैच में वो अपने साथ नामी गायक कुंदन लाल सहगल को ले आए.
हाफ़ टाइम तक कोई गोल नहीं हो पाया. सहगल ने कहा कि "दोनों भाइयों का बहुत नाम सुना है. मुझे ताज्जुब है कि आप में से कोई आधे समय तक एक गोल भी नहीं कर पाया."
कुंदन लाल सहगल
रूप सिंह ने तब सहगल से पूछा कि क्या हम जितने गोल मारें उतने गाने हमें आप सुनाएंगे? सहगल राज़ी हो गए.
दूसरे हाफ़ में दोनों भाइयों ने मिल कर 12 गोल दागे. लेकिन फ़ाइनल व्हिसिल बजने से पहले सहगल स्टेडियम छोड़ कर जा चुके थे. अगले दिन सहगल ने अपने स्टूडियो तक आने के लिए ध्यानचंद के पास अपनी कार भेजी.
लेकिन जब ध्यानचंद वहाँ पहुंचे तो सहगल ने कहा कि गाना गाने का उनका मूड उखड़ चुका है.
ध्यानचंद बहुत निराश हुए कि सहगल ने नाहक ही उनका समय ख़राब किया. लेकिन अगले दिन सहगल खुद अपनी कार में उस जगह पहुँचे जहाँ उनकी टीम ठहरी हुई थी और उन्होंने उनके लिए 14 गाने गाए.

न सिर्फ़ गाने बल्कि उन्होंने हर खिलाड़ी को एक एक घड़ी भी भेंट की!

अमरीकी क्यों भड़क गए थे ओशो कम्यून पर?



धर्मगुरु भगवान रजनीशImage copyrightAP
पर अमरीकी अधिकारियों को रजनीश के शिष्यों की बढ़ती तादाद ने चौंका दिया.
डेन डेरो कहते हैं, “रजनीश के चेलों की संख्या बस बढ़ती ही गई, यह तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. हम चाहते थे कि कम्यून में ठहरने वालों की संख्या पर कहीं एक लगाम लगे.”
दरअसल रजनीश के शिष्य कहीं दूर की सोच रहे थे. एन कहती हैं, “हमने वहां खेती तो की ही, झील बना दिए, शॉपिंग मॉल खोल दिए, ग्रीन हाउस और हवाई अड्डे बना दिए, एक बड़ा और आत्मनिर्भर शहर बसा दिया. हमने उस रेगिस्तान को बदल कर रख दिया.”
उनके चेलों ने 1982 में रजनीशपुरम नामक शहर का पंजीकरण कराना चाहा. स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया.
गैरेट यहां प्रेम और शांति के लिए आई थीं, पर उन्हें लगने लगा कि कम्यून दुश्मनों से घिर चुका है. वो कहती हैं, “प्रेम, शांति और सद्भाव से हमारा रहना मानो राज्य को पसंद नहीं था.”
स्थानीय लोगों ने कम्यून पर मुक़दमा कर दिया. दो साल बाद वहां स्थानीय चुनाव हुए.
पर कम्यून के पास उतने मतदाता नहीं थे कि वे चुनाव के नतीजों पर असर डालते.

ज़हरीले बैक्टीरिया

धर्म गुरु भगवान रजनीश अपने भक्तों के साथImage copyrightAP
अमरीका के दूसरे राज्यों और शहरों से हज़ारों लोगों को लाकर रजनीशपुरम में बसाया गया.
ऐन कहती हैं, “हमने बाहरी लोगों को रोज़गार, भोजन, घर और एक बेहतरीन भविष्य की संभावनाएं दीं. हमने उन लोगों से कहा कि वे हमारी पसंद के लोगों को वोट दें. पहली बार मुझे लगा कि हम लोग ठीक नहीं कर रहे हैं.”
बाद की जांच से पता चला कि रजनीश के शिष्यों ने ज़हरीले सालमोनेला बैक्टीरिया पर तरह तरह के प्रयोग करने शुरू कर दिए.
अमरीकी अधिकारी कहते हैं, “पहले तो रजनीश के शिष्यों ने कई जगहों पर सालमोनेला का छिड़काव कर दिया, कुछ ख़ास असर नहीं देखे जाने पर उन्होंने दूसरी बार यही काम किया."
"इसके बाद उन्होंने सलाद के पत्तों पर इस बैक्टीरिया का छिड़काव कर दिया. जल्द ही लोग बीमार पड़ने लगे. डारयरिया, उल्टी और कमज़ोरी की शिकायत लेकर लोग अस्पताल पंहुचने लगे.”
कुल मिला कर 751 लोग बीमार हो कर अस्पतालों में दाख़िल कराए गए.
रजनीश के चेलों को लगने लगा कि सारे लोग उनके ख़िलाफ़ हैं. आश्रम के अंदर ऐन जैसे लोगों पर शक किया जाने लगा. ऐन को कम्यून से निकाल दिया गया.

जांच के आदेश

ओशो  मेडिटेशन सेंटरImage copyrightOSHO.COM
सितंबर 1985 में सैकड़ों लोग कम्यून छोड़ कर यूरोप चले गए. कुछ दिनों के बाद रजनीश ने लोगों को संबोधित किया.
उन्होंने अपने शिष्यों पर टेलीफ़ोन टैप करने, आगज़नी और सामूहिक तौर पर लोगों को ज़हर देने के आरोप लगाते हुए ख़ुद को निर्दोष बताया.
उन्होंने कहा कि इन बातों की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी.
सरकार ने रजनीश के कम्यून की जांच के आदेश दे दिए. जांच में कम्यून के अंदर सालमोनेला बैक्टीरिया पैदा करने वाला प्रयोगशाला और टेलीफ़ोन टैप करने के उपकरण पाए गए.
रजनीश के शिष्यों पर मुक़दमा चला. उनके चेलों ने ‘प्ली बारगेन’ के तहत कुछ दोष स्वीकार कर लिए. उनके तीन शिष्यों को जेल की सज़ा हुई.
रजनीश पर नियम तोड़ने के आरोप लगे और उन्हें भारत भेज दिया गया, जहां 1990 में उनकी मौत हो गई.
रजनीश की शिष्या ऐन काफ़ी निराश हुईं. उन्होंने अपने आपको इन सारी चीज़ों से अलग कर लिया.
बाद में उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर एक किताब लिखी.


Saturday, 29 August 2015

पटेल कौन हैं, उनका अतीत क्या है @कल्पेश याग्निक


हीरा, नुकीले औजारों की चुभन के बिना तराशा नहीं जा सकता। वैसे ही मनुष्य स्पर्धा से बचकर निखर नहीं सकता।’
-पुरानी कहावत
तीन हिस्सों में बांटकर देखा जा सकता है गुजरात के पटेल-पराक्रम को।
पहला : वह देश का एक ऐसा जाति समूह है जो किसी भी अन्य जाति की तुलना में कहींं अधिक शक्तिशाली पहचान बनाने में सफल रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तर पर। 
दूसरा : वह देश की एकमात्र जाति है जिसने खेती करते-करते, शहरों में पनप रहे उद्योग-कारोबार में हिस्सेदारी प्राप्त की। कठोर परिश्रम किया। बड़ी सफलता हासिल की।
तीसरा : वह एकमात्र ऐसा समुदाय है जो राजनीतिक रूप से बहुत ही प्रभावशाली, आर्थिक तौर पर बहुत ही सम्पन्न-समृद्ध और सामाजिक रूप से चारों दिशाओं में फैले-फले और बहुत ही काम के व्यक्तियों-हस्तियों से जुड़ा हुआ है।

और पटेलों के क्रोध को भी तीन आंदोलनों में देखा जा सकता है।
पहला, 1981 का, जिसमें उन्होंने अनुसूचित जाति को आरक्षण देने का, बढ़ाने का विरोध किया। दूसरा, 1985 का हिंसक प्रदर्शन जो उन्होंने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विरुद्ध किया। तीसरा, 25 अगस्त 2015 का अचानक भड़का आंदोलन। और आश्चर्यजनक रूप से यह उन्होंने स्वयं को पिछड़ा वर्ग में शामिल कर, आरक्षण देने की मांग को लेकर किया! यानी जो पटेल आरक्षण के घनघोर विरोधी थे, वे आज अपने लिए आरक्षण मांगते हुए सड़कों पर उग्र अभियान चला रहे हैं।

क्यों हुआ ऐसा?
कोई तात्कालिक कारण बताना पूर्ण सत्य नहीं होगा। किन्तु सारा देश जिस बात पर बहुत ही आश्चर्यचकित है, वह है पटेलों की समृद्धि और तिस पर एेसी मांग! तो कोई न कोई कारण तो होगा ही। बार-बार बताया तो यही जा रहा है कि स्वयं मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल, वित्त मंत्री सौरभ पटेल सहित आठ मंत्री, 44 विधायक पटेल समुदाय से हैं। देश में सत्ता में इतनी बड़ी भागीदारी किसी एक जाति की शायद ही हो। फिर भी वे ऐसा संभवत: इसलिए कर रहे होंगे कि ताकतवर पटेलों की संख्या है तो बहुत बड़ी - किन्तु कमज़ोर पटेलों की संख्या उनकी तुलना में कहीं अधिक है। वे त्रस्त हो रहे हैं। ये वो पटेल-पाटीदार हैं, जो नाम के ही पाटीदार बचे हैं। पाटीदार यानी भूमि के पट्‌टे के मालिक।

पटेल तीन वर्गों में बांट कर देखे जा सकते हैं : 
पहले, जो शहरों में बस गए, पढ़-लिखकर आगे बढ़े और विदेशों तक फैल गए। हालांकि पढ़ाई में उनसे कहीं ऊंची शिक्षा गुजराती ब्राह्मणों ‌व अन्य सवर्णों ने ली है। किन्तु पटेलों के पास तीक्ष्ण बुद्धि है जो अपने आप भारी पैसा कमा कर दे रही है। अमेरिका में होटल, बल्कि मोटल कारोबार पटेलों के ही तो अाधिपत्य में हैं। दूसरे, जो गांवों में ही रह गए। किन्तु लम्बी-चौड़ी ज़मीन के मालिक हैं। तीसरे, जो अब बड़ी संख्या में हैं - गांव में बसे, ज़मीन नहीं रही, खेती जो करते थे, उससे वैसी आमदनी नहीं बची। कुछ हीरा कारोबारियों के पास काम करने चले गए। इनके बच्चों को अच्छे, ऊंचे स्कूलों में पढ़ने को नहीं मिला, इसलिए वो बड़े प्लेसमेंट या पैकेज वाले प्रोफेशनल कॉलेज का तो प्रश्न ही कहां? जैसे खेती में लाभ कम से कमतर हो गया, वैसे ही हीरा उद्योग में भी ध्यान से देखें तो कई प्रतिष्ठान बंद हो गए/जा रहे हैं। पॉलिशिंग-कटिंग के काम कम हो गए। ढेर सारी नौकरियां चली गईं।

वो जो हर वर्ष हम खबर पढ़ते हैं कि हीरा कारोबारी ने अपने सभी सवा सौ या कि ग्यारह सौ कर्मचारियों को बोनस में कार और न जाने क्या-क्या दिया- वो होती एकदम सच्ची है। मालिक भी पटेल ही होते हैं, धनी बने कर्मचारी भी अधिकांश पटेल होते हैं। किन्तु ऐसी खबर एक या दो ही तो होती है। चूंकि पटेलों को ‘शो ऑफ’ करना पसंद होता है, वे अच्छी समृद्ध ज़िंदगी चाहते हैं, जीते भी हैं। दिखता भी है- इसलिए देश में आश्चर्य है। वरना कहां ऊंची नौकरियां हैं? कहां अवसर हैं? किन्तु यह भी पूर्ण सत्य नहीं है।

देश में पटेलों से सहस्त्रों गुना अधिक ऐसे दारुण दु:ख में जीवन जी रहे अनेक जाति-समूह के निरीह नागरिक हैं- जिनके बारे में अभी और पहले सोचा जाना आवश्यक है। अनिवार्य है। अपरिहार्य है। किन्तु नहीं सोचा जा रहा।

क्योंकि वे राजनीतिक रूप से जागरूक और जानकार नहीं हैं। जैसे कि पटेल हैं।
पटेलों के प्रारम्भ, प्रादुर्भाव, प्रभाव और प्रतिक्रियाओं को तीन तरह के दौर में विभाजित करके समझा जा सकता है।
पहला, 1967 का दौर। जब पहली बार भाईलाल पटेल के नेतृत्व में ‘पक्ष’ की स्थापना की गई। गज़ब की राजनीतिक सूझबूझ दिखाते हुए। पटेल से ‘प’ और क्षत्रिय से ‘क्ष’ लेकर बना पक्ष। 60 सीटें जीते थे। ख्यात गुजराती इतिहासकार अच्युत भाई याग्निक (*मुझसे दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं) ने गहन व्याख्या की है कि सरदार पटेल के कारण पटेलों की ताकत तो गुजरात में आरंभ से थी ही। 1960 में मुंबई राज्य के हिस्से से हटकर स्वतंत्र राज्य बनते ही पटेल सत्ता के अभिन्न अंग बन गए। बने रहे। और अब तो छह करोड़ गुजरातियों में सवा करोड़ पटेल होने के कारण और भी ताकतवर हैं।

दूसरा 1981 का दौर। जब कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने पटेलों को पीछे छोड़ते हुए ‘खाम’ की राजनीति शुरू की। केएचएएम यानी क्षत्रिय, ‘हरिजन’, आदिवासी, मुस्लिम। पहली बार पटेल सत्ता से बाहर किए गए। कोई पटेल मंत्री नहीं बनाया गया। कांग्रेस नेता झीनाभाई दर्जी के फॉर्मूले पर हुए प्रयोगों को सोलंकी सरकार लागू करती गई। 80 जातियों को पिछड़ी-ओबीसी घोषित कर दिया गया। 
नौजवान पटेलों ने क्रुद्ध विरोध किया। किन्तु राजनीति को जातिगत बांटने वाला पहला प्रयोग ‘पक्ष’ था तो दूसरा उससे कहीं बड़ा और डरावना ‘खाम’, जो लोगों को जोड़ने की जगह तोड़ने का काम कर रहा था।
हालांकि, ये 1985 के चुनाव में कांग्रेस को सर्वोच्च सफलता दे गया। रिकॉर्ड 149 सीटें जीतीं। किन्तु फिर हुए उग्र आरक्षण-विरोधी आंदोलन ने गुजरात को हिंसा की आग में झोंक दिया। 100 से अधिक जानें गईं। चिमनभाई पटेल की जनता पार्टी के आंदोलनकारी शंकरभाई पटेल ने आरक्षण के विरुद्ध आक्रामक आंदोलन किया। जो फिर देशभर में फैल गया। किन्तु आगजनी, असुरक्षा, आतंकित आम आदमी और आरक्षण अभियान का अपयश और अनंत अपमान आज भी अतीत से उठकर आकार लेता रहता है। इसी के कारण आज सब डर रहे हैं।
इसके बाद सोलंकी को जाना पड़ा। कांग्रेस बाहर हो गई। चिमनभाई पटेल’ 90 में मुख्यमंत्री बने।’ 95 में केशुभाई पटेल। पटेल समुदाय भाजपा के साथ हो ही चुका था। कांग्रेस से लम्बी नाराज़गी हो गई। और फिर पटेलों ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा।

तीसरा, 2001 में नरेन्द्र मोदी का आना। और फिर पूरी राजनीति, जाति से हटकर, सम्प्रदाय पर चली गई। पहली बार गुजरात में ऐसा हुआ। गोधरा से गांधीनगर तक घृणा-ही-घृणा। यही हेडलाइन थी, मेरी चुनावी रिपोर्ट की। बाकी चर्चा, इतिहास है। सब जानते हैं। सच जानते हैं।

25 अगस्त 2015 का आंदोलन 22 वर्षीय युवा हार्दिक पटेल के नाम है। इसे तीन प्रश्नों में पूछा जा सकता है : 
पहला, हार्दिक पटेल न तो टिकैत जैसे नैसर्गिक नेता हैं, जिन्हें स्वयं की ही कोई सुध-बुध नहीं थी- फिर भी सूरत में 5-6 लाख और अहमदाबाद में तो कोई 15 लाख तो कोई 19 लाख तक के आंकड़े लिख रहा है जनसमुदाय के- कैसे इकट्‌ठे हुए? हार्दिक अरविंद केजरीवाल को पसंद करते हैं। समर्थन भी है। किन्तु लाख जिम्मेदारियां लेकर उनसे बचने की विचित्र प्रवृत्ति के बावजूद केजरीवाल की एक आंदोलनकारी पृष्ठभूमि तो रही है। विस्मयकारी भूमिका रही है। चमत्कारी उत्थान हुआ है। हार्दिक एकदम अलग हैं। करिश्माई नहीं हैं। किन्तु करिश्माई अपार भीड़ जुटा ली। न वे अन्ना हजारे जैसे कोई गांधीवादी हैं कि भरोसा कर लाखों आ जाएं। न बालासाहब ठाकरे- कि आवाज़ और अंदाज दोनों ही इतने दमदार कि जुटना ही है। फिर कैसे हार्दिक इतने बड़े नेता बने? उत्तर पता नहीं है।
दूसरा, बिना किसी बहुत बड़े व कुशल बाहरी समर्थन के इतने बड़े आंदोलन, रैली को इतनी सुनियोजित ढंग से कैसे चला पाए? या कि कोई गुप्त सहयोगी है? चूंकि करोड़ों खर्च भी तो हो रहे होंगे इसमें?

तीसरा, इतना बड़ा जनसमुदाय एक भरोसा लेकर जुटा। जबकि आरक्षण तो मिलना ही नहीं है, ऐसा सरकार का स्पष्ट कथन है। फिर, आगे क्या? और, मिलना चाहिए भी क्यों?
संघर्ष की कसौटी पर अब तीन नाम कसे जाएंगे : 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जिनके शांत गुजरात में ऐसी स्थिति पैदा हो गई। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल, जिन्होंने पहली ही परीक्षा में कमज़ोर प्रशासक की अपनी छवि साक्षात कर दी। तीसरा, छह करोड़ गुजरातियों के गौरव को अक्षुण्ण रखने वाले मेहनतकश, सफल कारोबारी बुद्धि वाले, पारिवारिक मूल्यों वाले गुजराती नागरिक। उन्हें ठगा जा रहा है। आग लगा कर। और आग बुझाने वाले भी अागे रहकर आग लगने दे रहे हैं। वो अलग।

गुजरात हो या कि पूरा देश, आरक्षण पर अब नए सिरे से, एकदम नया, क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहिए। आरक्षण की राजनीति व हिंसा बंद हो, असंभव है। किन्तु करनी ही होगी। क्योंकि संघर्ष सभी को करना अनिवार्य है। गुजरात के लिए तो मोदी स्वयं ज्वलंत उदाहरण हैं। एक साल पहले किसी को पता तक न था कि वे किस वर्ग से हैं। चुनाव में पहली बार उन्होंने पिछड़ा कार्ड खेला था