Monday, 25 April 2016

'चंद्रशेखर टू नवाज़: भाईजान, क्या बदमाशी है?' @ रेहान फ़ज़ल

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संजय गांधी में धैर्य नाम के गुण की काफ़ी कमी थी. वो अक्सर एक छोटे जहाज़ से धीरेंद्र ब्रह्मचारी से मिलने जम्मू जाया करते थे. वो अपना एक मिनट का समय भी ज़ाया नहीं करना चाहते थे.
उन्होंने रक्षा मंत्री बंसी लाल से निश्चित हवाई रास्ता छोड़ सीधी लाइन में जम्मू जाने की अनुमति मांगी. संयुक्त सचिव शशिकांत मिस्रा ने ये अनुरोध वायु सेनाध्यक्ष एयर चीफ़ मार्शल ह्रषिकेश मुलगांवकर तक पहुंचा दिया.
उन्होंने तुरंत जवाब दिया कि इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे भारतीय वायु सेना का अभ्यास प्रभावित होगा.
जब मिस्रा ने ये बात संजय गांधी को बताई तो वो उनका मुंह ग़ुस्से से लाल हो गया. मिस्रा ने जब उन्हें वायुसेना अध्यक्ष का नोट दिखाया तो उन्होंने गुस्से में वो नोट मिस्रा के ऊपर फेंक कर कहा, "स्टुपिड नोट."
मिस्रा ने कहा, "संजय, ये स्टुपिड नोट हो सकता है, लेकिन हम इसकी अवहेलना नहीं कर सकते हैं."
शशिकांत मिस्रा ने बीबीसी को बताया कि संजय का ग़ुस्सा शाँत करने की कोशिश में मैंने उनसे कहा कि कि अगर आप चाहें तो मैं पुनर्विचार को लिए ये नोट दोबारा वायुसेनाध्यक्ष के पास भेज सकता हूँ. इस पर संजय का जवाब था, "मुझे मालूम है आप फिर उसी स्टुपिड जवाब के साथ वापस आएंगे."
ये सुनना था कि मिस्रा का सारा धीरज जाता रहा. वो बताते हैं, "मैंने संजय से कहा मैं इस तरह की भाषा का आदी नहीं हूँ. मुझे आपके पास रक्षा मंत्री ने भेजा है. अगली बार से आप मुझे यहाँ नहीं पाएंगे. मैंने अपने काग़ज उठाए और ज़ोर से दरवाज़ा बंद करता हुआ कमरे से बाहर हो गया."
इस बीच कांग्रेस की सरकार गिर गई और जनता पार्टी का शासन आ गया. नई सरकार संजय को तंग करने लगी. इंदिरा गाँधी के डाक्टर के पी माथुर की बेटी की शादी में संजय और शशिकांत मिस्रा को आमंत्रित किया गया. हर कोई संजय से मिलने से बच रहा था.
शशिकाँत ख़ुद उनके पास गए और बोले, "आप अच्छा मुक़ाबला कर रहे हैं. इसी तरह डटे रहिए." मिस्रा बताते हैं, "संजय ने मुझसे कहा मुझे आपसे माफ़ी मांगनी है. उस दिन मैं आपसे बिना वजह नाराज़ हो गया था. ये शायद पहला मौक़ा था जब संजय ने किसी से माफ़ी माँगी थी."
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हरियाणा के तीन लालों बंसीलाल, देवीलाल और भजनलाल की दुश्मनी किसी से ढकी-छिपी नहीं है, लेकिन एस के मिस्रा ने इन धुर विरोधी राजनीतिज्ञों के प्रधान सचिव होने की भूमिका बख़ूबी निभाई. इन्हीं एसके मिस्रा ने अपने अनुभवों पर एक किताब लिखी है - फ़्लाइंग इन हाई विंड्स, जो हाल ही में प्रकाशित हुई है.
कानपुर में जन्मे 1956 बैच के आईएएस एसके मिस्रा कहते हैं कि बंसीलाल पूरी तरह से राजनीतिक इंसान थे, लेकिन "मैं उनकी पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेता था."
मिस्रा की दूसरी चीज़ जिसकी कद्र बंसी लाल और हरियाणा के दूसरे मुख्यमंत्री भी करते थे कि उनका फॉलो अप एक्शन बहुत तेज़ होता था. जो भी काम होता था एस के मिस्रा की कोशिश होती थी कि वो काम आज नहीं कल हो जाना चाहिए था. कल यानी आने वाला कल नहीं बल्कि बीता हुआ कल.
यही वजह रही कि उनका नाम हरियाणा के विकास से जुड़ गया. चाहे पर्यटन हो, सिंचाई की परियोजनाएं हों या सड़कों का विकास. सब के पीछे एस के मिस्रा का नाम लिया जाने लगा. हरियाणा को पर्यटन के मानचित्र पर लाने की शुरुआत चंडीगढ़ से दिल्ली की एक कार ड्राइव के दौरान हुई थी.
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करनाल के पास नहर के पास एक खोखे पर पड़ी चारपाई पर बंसी लाल और एस के मिस्रा चाय पी रहे थे. इसी दौरान मिस्रा ने बंसीलाल से कहा कि इस नहर के बगल में एक अच्छा सा रेस्त्रां खोला जा सकता है और इस नहर का पानी ले कर यहाँ एक कृत्रिम झील बनाई जा सकती है.
बंसीलाल को ये आइडिया जंच गया और उन्होंने मिस्रा को इस पर काम करने की इजाज़त दे दी. एस के मिस्रा कहते हैं, "मैं बढ़ा चढ़ा कर नहीं कह रहा हूँ, लेकिन 70 या 75 फ़ीसदी फ़ाइलें जो मुख्यमंत्री के आदेश से पास होती थीं, मैं ख़ुद ही उन्हें पास कर देता था बिना उन्हें दिखाए हुए. मैं वही फ़ाइलें उनके सामने पेश करता था जिनके बारे में मैं निश्चित नहीं होता था कि उनके बारे में बंसीलाल के विचार क्या होंगे या वो फ़ाइलें जिनके लिए मंत्रिमंडल की मंज़ूरी ज़रूरी होती थीं."
यह बताता है कि बंसीलाल का कितना विश्वास उनमें था और दूसरी तरफ मिस्रा ने इस विश्वास का कभी कोई बेजा फ़ायदा नहीं उठाया. शशिकांत मिस्रा बताते हैं कि एक बार वो बंसी लाल के साथ राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में भाग लेने श्रीनगर गए. वहाँ के मुख्यमंत्री सादिक़ ने उनके लिए बेहतरीन भोज का प्रबंध किया हुआ था. बंसीलाल चूँकि कट्टर वेजेटेरियन थे, इसलिए वो गोश्ताबा जैसे किसी भी मांसाहारी पकवान को देखना भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.
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मिस्रा याद करते है, "बंसीलाल ने कहा आइए चुपके से यहाँ से निकल लिया जाए और बाहर कहीं वेजेटेरियन खाना खाया जाए. शामियाने के मुख्य द्वार पर इंदिरा गाँधी और सादिक़ खड़े थे. इसलिए बंसीलाल कनात के बगल में जगह बनाते हुए बाहर निकले और हेज को फलांग कर सड़क पर आ गए. उनके पीछे पीछे मैं था."
मिस्रा आगे बताते हैं, "सड़क पर घूमते हुए बंसीलाल की नज़र एक बोर्ड पर गई जिस पर लिखा हुआ था गुजराती भोजनालय. हम लोग चार मंज़िल सीढ़ियाँ चढ़ कर उस भोजनालय पहुंचे. वहाँ पर जब उनके सामने गुजराती थाली आई तो बंसी लाल की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. सीढ़ी से उतरते ही बंसी लाल ने एक हलवाई ढ़ूंढ़ निकाला और वहाँ पर हमने रसगुल्लों का आनंद लिया. ये सिलसिला पूरे तीन दिन चला. बंली लाल तो खुश हो गए लेकिन मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ा क्योंकि मैं माँसाहारी पकवानों का बहुत शौकीन था."
बंसीलाल के हारने के बाद जब देवीलाल सत्ता में आए को उन्होंने अपनी पहली ही प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ऐलान किया कि एसके मिस्रा जेल जाएंगे. उनके ख़िलाफ़ क़रीब पचास केस रजिस्टर किए गए और एसके मिस्रा ने स्टडी लीव पर जाने के लिए आवेदन कर दिया.
आईसीसीआर के एक प्रोजेक्ट पर जाने के लिए स्टडी लीव देने के उनके आवेदन पर हरियाणा सरकार कोई निर्णय नहीं ले रही थी. एस के मिस्रा ने तब देवीलाल से मुलाक़ात करने का फ़ैसला किया.
हालांकि मिस्रा को डर था कि अगर वो मुलाक़ात का समय मांगेंगे तो देवीलाल उसके लिए कतई राज़ी नहीं होंगे. इसलिए वो विना अपॉएंटमेंट के गए.
देवीलाल से एस के मिस्रा ने कहा कि उन्हें छुट्टी चाहिए तो देवीलाल बोले, "वापस आ जाओ." मिस्रा ने कहा, "आप तो मुझे जेल भेज रहे थे. आपको अगर विश्वास है तो मैं वापस आ जाता हूँ. जहाँ मर्ज़ी आए लगा दीजिए." इस पर देवीलाल ने कहा कि आप मेरे प्रधान सचिव के तौर पर वापस आइए.
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शशिकाँत मिस्रा याद करते हैं, "एक बार मुझे देवी लाल के साथ चीन जाने का मौका मिला. मुझे ये तो पता था कि देवीलाल माँसाहारी है क्योंकि एक बार मैं उन्हें दिल्ली के गेलार्ड रेस्तराँ ले कर गया था जहाँ उन्होंने चिकन का आनंद लिया था, लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि वो शराब भी पीते हैं. फ़्लाइट में मैं उनकी पिछली सीट पर बैठा हुआ सो रहा था. मेरी हल्की सी आँख खुली तो देखता क्या हूँ कि एयर होस्टेस देवी लाल के गिलास में शैंम्पेन डाल रही थी."
मिस्रा आगे कहते हैं, "मैंने जब दोबारा आँख बंद की तो देवीलाल ने अपने पीए को आवाज़ लगाई और कहा कि ज़रा छोरी से कहो अंगूर का रस फिर ले आए. पूरी फ़्लाइट के दौरान देवीलाल ने शैंम्पेन की दो बोतलें ख़त्म कीं. जब हम बीजिंग पहुंचे तो हम दोनों के कमरे अग़ल-बग़ल में थे. एक दिन शाम को अपनी रौ में मेरे साथ चलते हुए बार पहुंच गए. बार मैन ने पूछा वही सर्व करूँ जो आप रोज़ लेते हैं. देवीलाल सकपका गए. मुझे वो नहीं बताना चाहते थे कि वो शराब पीते हैं. उन्होंने हड़बड़ा कर कहा आइस क्रीम खिलाओ."
थोड़े दिनों में उनकी सरकार गिर गई और भजन लाल नए मुख्यमंत्री बने. उन्होंने भी एसके मिस्रा को इस पद पर बने रहने के लिए कहा. इसके बाद इंदिरा गाँधी उन्हें भारतीय पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक बना कर दिल्ली ले आईं.
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लेकिन यहाँ एसके मिस्रा के पर्यटन मंत्री अजीत प्रसाद शर्मा से गहरे मतभेद हो गए. दोनों के मतभेद सुलझाने की कोशिशें हुईं लेकिन जब शर्मा अपने को बदलने को तैयार नहीं हुए तो इंदिरा गांधी ने उन्हें मंत्रिमंडल से बर्ख़ास्त कर दिया और मिस्रा को फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया के निदेशक की नई ज़िम्मेदारी दी गई.
उनकी देखरेख में अमरीका, फ़्रांस, सोवियत संघ और जापान में फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया आयोजित किए गए. नेशनल जियोग्राफ़िक ने अपने चार अंकों में फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया को कवर पेज पर रखा. इसके अलावा टाइम, न्यूज़ वीक और आर्किटेक्चरल डाइजेस्ट ने भी इसे कवर किया. संयोग की बात थी कि गाँधी फ़िल्म उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई.
इस सबका प्रभाव था कि भारत में यूरोपीय देशों से पर्यटकों की संख्या में 80 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. शशिकांत मिस्रा ने ही दिल्ली के पास सूरजकुंड मेले की शुरुआत की. उन्होंने भारत भर के कलाकारों को सूरजकुंड आने के लिए आने-जाने का किराया दिया और उनके रहने की व्यवस्था की. यहां आकर वो अपनी चीज़ें ग्राहकों को सीधे बेचते थे, जिससे बिचौलिए द्वारा कमाया जाने वाला लाभ भी उन्हें मिलता था.
मिस्रा ने ही इस मेले की निश्चित तारीख तय कराई. पहली फ़रवरी से 15 फ़रवरी तक. ट्रेवल एजेंसियाँ इसके बारे में अपने ब्रोशर में लिखने लगीं और लोगों के बीच इस मेले का इंतज़ार शुरु हो गया. 1992 में जब चंद्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री बने जो उन्होंने एस के मिस्रा को अपना प्रधान सचिव बनाया. उस समय मिस्रा अमरीका में थे. उनकी ग़ैर मौजूदगी में ही उनकी नियुक्ति के आदेश जारी हो गए.
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जब वो चंद्रशेखर से मिलने गए तो उन्होंने कहा, ''मैंने तुमसे संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन तुम मिले नहीं. मैंने कहा कि आदेश जारी किए जाएं. मैं तुम्हें मना लूँगा.''
एस के मिस्रा याद करते हैं कि चंद्रशेखर को वो सम्मान नहीं मिला जिसके कि वो हक़दार थे. एक बार गुलमर्ग में कुछ स्वीडिश इंजीनयरों का अपहरण कर लिया गया. स्वीडन के राजदूत चंद्रशेखर से मिलने आए.
उन्होंने कहा, चलो नवाज़ शरीफ़ से बात करते हैं. फ़ोन पर उनके पहले शब्द थे, ''भाई जान, वहाँ बैठे-बैठे क्या बदमाशी करा रहे हो?'' इस पर नवाज़ शरीफ़ बोले कि इससे हमारा कोई वास्ता तो है नहीं. उनको तो मिलिटेंट्स ने पकड़ लिया.
इस पर चंद्रशेखर ने कहा, ''असलियत हमें मालूम है. असलियत आपको भी मालूम है. मुझे प्रेस में जाना नहीं है. मानवता के नाते ये इंजीनियर कल सुबह तक छूट जाने चाहिए और मुझे कुछ सुनना नहीं है.'' एस के मिस्रा कहते हैं कि अगले ही दिन ये इंजीनियर रिहा कर दिए गए.
इसके बाद एसके मिस्रा संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य बने. उनका कहना है कि उन्हें पंद्रह मिनट में ही अंदाज़ा लग जाता था कि सिविल सर्विस के उम्मीदवार में दम है या नहीं.
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एक बार जालंधर की एक लड़की सिविल सर्विस का इंटरव्यू देने आई. उससे बाकी सदस्यों नें छह सवाल पूछे. वो किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे पाई. जब एसके मिस्रा की बारी आई तो उन्होंने कहा, ''तुमने अपने सीवी में लिखा है कि तुम डिबेटर हो. मैं एक प्रीपोसीशन रखता हूँ. तले हुए अंडे ऑमलेट से बेहतर होते हैं. इस पर बहस करो.''
लड़की ने कहा कि मुझे सोचने के लिए क्या दो मिनट का समय दिया जा सकता है. उन्होंने कहा ठीक है. उसके बाद लड़की ने उस विषय पर बेहतरीन भाषण दिया. इसके बाद एसके मिस्रा ने कहा कि अब मोशन के खिलाफ़ बोलो. उसने फिर बहुत अच्छा बोला.
एस के मिस्रा ने उस लड़की को 80 फ़ीसदी अंक दिए. उनके साथियों ने कहा कि उसने किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया. तब भी आप उसे इतने अंक दे रहे हैं. मिस्रा का जवाब था, ''मैंने उससे जो सवाल पूछा उसकी उम्मीद वो नहीं कर रही थी. उसने क्विक रिस्पॉन्स दिया. एक थिंकिंग अफ़सर में और क्या चाहिए?"

Friday, 15 April 2016

नेहरू के कारण डॉ आंबेडकर ने इस्तीफ़ा दिया ऐसी बातें करने वाले बिलकुल गलत @शेष नारायण सिंह

दिसंबर का पहला हफ्ता डॉ भीमराव आंबेडकर के महापरिनिर्वाण का है और अप्रैल का दूसरा हफ्ता उनके जन्मदिन का. यह दोनों ही अवसर इस देश के वोट के याचकों के लिए पिछले 20 वर्षों से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. डॉ आंबेडकर का महत्व भारत की अस्मिता में बहुत ज़्यादा है लेकिन उनको इस देश की जातिवादी राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों ने आम तौर पर नजरअंदाज ही किया. लेकिन जब डॉ भीमराव आंबेडकर के नाम पर राजनीतिक अभियान चलाकर उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला तब से डॉ आंबेडकर के अनुयायियों को अपनी तरफ खींचने की होड़ लगी हुयी है. इसी होड़ में बहुत सारी भ्रांतियां भी फैलाई जा रही हैं. उन भ्रांतियों को दुरुस्त करने की ज़रुरत आज से ज़्यादा कभी नहीं रही थी.
डॉ बी आर आंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण काम मिला था. वे ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे. उनको भी उम्मीद नहीं थी कि उनको इतना महत्वपूर्ण कार्य मिलेगा लेकिन संविधान सभा के गठन के समय महात्मा गांधी जिंदा थे और उनको मालूम था कि राजनीतिक आज़ादी के बाद आर्थिक आज़ादी और सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को संविधान के दायरे में ही लड़ा जाना है और उसके लिए डॉ आंबेडकर से बेहतर कोई नहीं हो सकता .

संविधान सभा की इस महत्वपूर्ण कमेटी के अध्यक्ष के रूप में डा.अंबेडकर का काम भारत को बाकी दुनिया की नज़र में बहुत ऊपर उठा देता है. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि संविधान सभा कोई ऐसा मंच नहीं था जिसको सही अर्थों में लोकतान्त्रिक माना जा सके.

उसमें 1943 के चुनाव में जीतकर आये लोग शामिल थे. इस बात में शक नहीं है कि कुछ तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे लेकिन एक बड़ी संख्या ज़मींदारों , राजाओं , बड़े सेठ साहूकारों और अंग्रेजों के चापलूसों की थी. 1943 के चुनाव में वोट देने का अधिकार भी भारत के हर नागरिक के पास नहीं था. इनकम टैक्स, ज़मींदारी और ज़मीन की मिलकियत के आधार पर ही वोट देने का अधिकार मिला हुआ था. इन लोगों से एक लोकतांत्रिक और जनपक्षधर संविधान पास करवा पाना बहुत आसान नहीं था. महात्मा गांधी का सपना यह भी था कि सामाजिक न्याय भी हो , छुआछूत भी खत्म हो . इस सारे काम को अंजाम दे सकने की क्षमता केवल डॉ आंबेडकर में थी और उनका चुनाव किया गया. कोई एहसान नहीं किया गया था .

डॉ आंबेडकर ने आज से करीब सौ साल पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने शोधपत्र में जो बातें कह दी थीं उनका उस दौर में भी बहुत सम्मान किया गया था और वे सिद्धांत आज तक बदले नहीं हैं. उनकी सार्थकता कायम है. जिन लोगों ने डॉ भीमराव आंबेडकर को सम्मान दिया था उसमें जवाहरलाल नेहरू का नाम सरे-फेहरिस्त है लेकिन आजकल एक फैशन चल पड़ा है कि नेहरू को हर गलत काम के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाय. कुछ लोग यह भी कहते पाए जा रहे हैं कि डॉ भीमराव आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा नेहरू से परेशान हो कर दिया था. यह सरासर गलत है . 21 सितम्बर 1951 के अखबार हिन्दू में छपा है कि कानून मंत्री डॉ बी आर आंबेडकर ने 27 सितम्बर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था.

उनके इस्तीफे का कारण यह था कि संविधान के लागू हो जाने के बाद तत्कालीन संसद में लगातार हिन्दू कोड बिल पर बहस को टाला जा रहा था और डॉ बी आर आंबेडकर इससे बहुत निराश थे. उन दिनों कांग्रेस के अन्दर जो पोंगापंथियों का बहुमत था वह जवाहरलाल नेहरू और डॉ आंबेडकर की चलने नहीं दे रहा था. इस्तीफ़ा देने के कई दिन बाद तक जवाहरलाल ने मंज़ूर नहीं किया था. लेकिन जब डॉ आंबेडकर ने बार बार आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि 6 अक्टूबर को जब संसद का सत्रावसान हो जाएगा तब बात करेगें. तब तक इस बात को सार्वजनिक न किया जाए .

डॉ बी आर आंबेडकर की 125वीं जयन्ती पर इस बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है कि जिस तरह की विचारधारा के लोग आज बीजेपी में बड़ी संख्या में मौजूद हैं , उस विचारधारा के बहुत सारे लोग उन दिनों कांग्रेस के संगठन और सरकार में भी थे. सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी और जवाहरलाल अकेले पड़ गए थे. प्रगतिशील और सामाजिक बराबारी की उनकी सोच को डॉ आंबेडकर का पूरा समर्थन मिलता था लेकिन डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद कम से कम हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में तो वे बिलकुल अकेले थे. यह भी समझना ज़रूरी है कि हिन्दू कोड बिल इतना बड़ा मसला क्यों था कि देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता, इसको पास कराने को लेकर अकेले पड़ गए थे .

हिन्दू कोड बिल पास होने के पहले महिलाओं के प्रति घोर अन्याय का माहौल था. हिन्दू पुरुष जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकता था और यह महिलाओं को अपमानित करने या उनको अधीन बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार था. आजादी की लड़ाई के दौरान यह महसूस किया गया था कि इस प्रथा को खत्म करना है. कांग्रेस के 1941 के एक दस्तावेज़ में इसके बारे में विस्तार से चर्चा भी हुयी थी. कानून मंत्री के रूप में संविधान सभा में डॉ आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल का जो मसौदा रखा उसमें आठ सेक्शन थे . इसके दो सेक्शनों पर सबसे ज़्यादा विवाद था. पहले तो दूसरा सेक्शन जहां विवाह के बारे में कानून बनाने का प्रस्ताव था. इसके अलावा पांचवें सेक्शन पर भी भारी विरोध था. डॉ बी आर आंबेडकर ने महिलाओं और लड़कियों को साझा संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार देने की बात की थी. इसके पहले विधवाओं को संपत्ति का कोई अधिकार नहीं होता था. डॉ आंबेडकर ने प्रस्ताव किया था कि उनको भी अधिकार दिया जाए. बेटी को वारिस मानने को भी पोंगापंथी राजनेता तैयार नहीं थे . यह कट्टर लोग तलाक को भी मानने को तैयार नहीं थे जबकि डॉ आंबेडकर तलाक को ज़रूरी बताकार उसको महिलाओं के निर्णय लेने की आजादी से जोड़ रहे थे .
आंबेडकर का ज़बरदस्त विरोध हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू उनके साथ खड़े रहे. डॉ आंबेडकर ने हिन्दू की परिभाषा भी बहुत व्यापक बताई थी. उन्होंने कहा कि जो लोग मुस्लिम, ईसाई , यहूदी नहीं है वह हिन्दू है. कट्टरपंथियों ने इसका घोर विरोध किया. संविधान सभा में पचास घंटे तक बहस हुयी लेकिन कट्टरपंथी भारी पड़े और कानून पर आम राय नहीं बन सकी. नेहरू ने सलाह दी कि विवाह और तलाक़ के बारे में फैसला ले लिया जाए और बाकी वाले जो भी प्रावधान हैं उनको जब भारत की नए संविधान लागू होने के बाद जो संसद चुनकर आ जायेगी उसमें बात कर ली जायेगी लेकिन कांग्रेस में पुरातनपंथियों के बहुमत ने इनकी एक न चलने दी .बाद में डॉ आंबेडकर के इस्तीफे के बाद संसद ने हिन्दू कोड बिल में बताये गए कानूनों को पास तो किया लेकिन हिन्दू कोड बिल को नेहरू की सरकार ने कई हिस्सों में तोड़कर पास करवाया. उसी का नतीजा है कि हिन्दू मैरिज एक्ट, हिन्दू उत्तराधिकार एक्ट, हिन्दू गार्जियनशिप एक्ट, और हिन्दू एडापशन एक्ट बने . यह सारे कानून डॉ आंबेडकर की मूल भावना के हिसाब से नहीं थे लेकिन इतना तो सच है कि कम से कम कोई कानून तो बन पाया था.


इसलिए डॉ आंबेडकर के मंत्रिमंडल के इस्तीफे का कारण जवाहरलाल नेहरू को बताने वाले बिकुल गलत हैं .उनको समकालीन इतिहास को सही तरीके से समझने की ज़रुरत है .