फ़िरोज गांधी को आप भूल तो नहीं गए हैं? @रेहान फ़ज़ल
आज अगर लोगों के सामने फ़िरोज़ गांधी का ज़िक्र किया जाए तो ज़्यादातर लोगों के मुंह से यही निकलेगा- 'फ़िरोज़ गाँधी कौन?'
बहुत
कम लोग फ़िर इस बात को याद कर पाएंगे कि फ़िरोज़ गांधी न सिर्फ़ जवाहरलाल
नेहरू के दामाद, इंदिरा गांधी के पति और राजीव और संजय गाँधी के पिता थे.
फ़िरोज़
- द फ़ॉरगॉटेन गाँधी के लेखक बर्टिल फ़ाल्क, जो इस समय दक्षिणी स्वीडन के
एक गाँव में रह रहे हैं, बताते हैं, "जब मैंने 1977 में इंदिरा गांधी का
इंटरव्यू किया तो मैंने देखा उनके दो पुत्र और एक पौत्र और पौत्री थे.
मैंने अपने आप से पूछा, 'इनका पति और इनके बच्चों का बाप कहाँ हैं?"
जब
मैंने लोगों से ये सवाल किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनका नाम फ़िरोज़
था, और उनकी कोई ख़ास भूमिका नहीं थी. लेकिन जब मैंने और खोज की जो मुझे
पता चला कि वो न सिर्फ़ भारतीय संसद के एक अहम सदस्य थे, बल्कि उन्होंने
भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने का बीड़ा उठाया था.
मेरे
विचार से उनको बहुत अनुचित तरीके से इतिहास के हाशिए में ढ़केल दिया गया
था. इस जीवनी के लिखने का एक कारण और था कि कोई दूसरा ऐसा नहीं कर रहा था.
दुनिया में ऐसा कौन सा शख़्स होगा जिसका ससुर दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र का पहला प्रधानमंत्री हो और बाद में उसकी पत्नी और उसका
पुत्र भी इस देश का प्रधानमंत्री बना हो.
नेहरू परिवार पर नज़दीकी
नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, "इंदिरा गाँधी के
प्रधानमंत्री बनने से पहले 1960 में फ़िरोज का निधन हो गया और वो एक तरह
से गुमनामी में चले गए. लोकतंत्र में ऐसे बहुत कम शख़्स होंगे जो खुद एक
सांसद हों, जिनके ससुर देश के प्रधानमंत्री बने, जिनकी पत्नी देश की
प्रधानमत्री बनीं और उनका बेटा भी प्रधानमंत्री बना."
"इसके अलावा
उनके परिवार से जुड़ी हुई मेनका गाँधी केंद्रीय मंत्री हैं, वरुण गाँधी
सांसद हैं और राहुल गाँधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं. इन सबने लोकतंत्र में
इतनी बड़ी लोकप्रियता पाई. तानाशाही और बादशाहत में तो ऐसा होता है लेकिन
लोकतंत्र में जहाँ जनता लोगों को चुनती हो, ऐसा बहुत कम होता है. जिस नेहरू
गांधी डाएनेस्टी की बात की जाती है, उसमें फ़िरोज़ का बहुत बड़ा योगदान
था, जिसका कोई ज़िक्र नहीं होता और जिस पर कोई किताबें या लेख नहीं लिखे
जाते."
फ़िरोज़ गांधी का आनंद भवन में प्रवेश इंदिरा गांधी की माँ
कमला नेहरू के ज़रिए हुआ था. एक बार कमला नेहरू इलाहाबाद के गवर्नमेंट
कालेज में धरने पर बैठी हुई थीं. बर्टिल फ़ाक बताते हैं, "जब कमला ब्रिटिश
सरकार के खिलाफ़ नारे लगा रही थीं, तो फ़िरोज़ गाँधी कालेज की दीवार पर बैठ
कर ये नज़ारा देख रहे थे. वो बहुत गर्म दिन था. अचानक कमला नेहरू बेहोश हो
गईं." "फ़िरोज़ दीवार से नीचे कूदे और कमला के पास दौड़ कर
पहुंच गए. सब छात्र कमला को उठा कर एक पेड़ के नीचे ले गए. पानी मंगवाया
गया और कमला के सिर पर गीला कपड़ा रखा गया. कोई दौड़ कर एक पंखा ले आया और
फ़िरोज़ उनके चेहरे पर पंखा करने लगे. जब कमला को होश आया, तो वो सब कमला
को ले कर आनंद भवन गए. इसके बाद कमला नेहरू जहाँ जाती, फ़िरोज़ गांधी उनके
साथ ज़रूर जाते."
इसकी वजह से फ़िरोज़ और कमला के बारे में अफ़वाहें
फैलने लगीं. कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा
दिए. जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद
किदवई को इलाहाबाद भेजा.
किदवई ने इस पूरे प्रकरण को पूरी तरह से
बेबुनियाद पाया. बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि एक बार स्वतंत्र पार्टी के नेता
मीनू मसानी ने उन्हें एक रोचक किस्सा सुनाया था. "तीस के दशक में मीनू
मसानी आनंद भवन में मेहमान थे. वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी
तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी
के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके
प्रेम में पड़ सकता हूँ. इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का
चेहरा गुस्से से लाल हो गया." बहरहाल फ़िरोज़ का नेहरू परिवार के साथ उठना बैठना
इतना बढ़ गया कि ये बात उनकी माँ रतिमाई गांधी को बुरी लगने लगी. बर्टिल
फ़ाक बताते हैं कि जब महात्मा गाँधी मोतीलाल नेहरू के अंतिम संस्कार में
भाग लेने इलाहाबाद आए तो रतीमाई उनके पास गईं और उनसे गुजराती में बोलीं कि
वो फ़िरोज़ को समझाएं कि वो ख़तरनाक कामों में हिस्सा न ले कर अपना जीवन
बरबाद न करें. गांधी ने उनको जवाब दिया, "बहन अगर मेरे पास फ़िरोज़ जैसे
सात लड़के हो जाए तो मैं सात दिनों में भारत को स्वराज दिला सकता हूँ."
1942
में तमाम विरोध के बावजूद इंदिरा और फ़िरोज़ का विवाह हुआ. लेकिन साल भर
के अंदर ही दोनों के बीच मतभेद होने शुरू हो गए. इंदिरा गाँधी ने फ़िरोज़
के बजाए अपने अपने पिता के साथ रहना शुरू कर दिया.. इस बीच फ़िरोज़ का नाम
कई महिलाओं के साथ जोड़ा जाने लगा.
रशीद किदवई बताते हैं, "इसमें
उनके एकाकीपन की भूमिका ज़रूर रही होगी, क्योंकि इंदिरा गांधी दिल्ली में
रहती थीं, फ़िरोज़ लखनऊ में रहते थे. दोनों के बीच एक आदर्श पति पत्नी का
संबंध कभी नहीं पनप पाया. फ़िरोज़ गांधी स्मार्ट थे. बोलते बहुत अच्छा थे.
उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा था. इसलिए महिलाएं उनकी तरफ़ खिंची चली
आती थी. नेहरू परिवार की भी एक लड़की के साथ जो नेशनल हेरल्ड में काम करती
थी, उनके संबंधों की अफवाह उड़ी." "उसके बाद उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ मुस्लिम मंत्री
की बेटी के साथ भी फ़िरोज़ गांधी का नाम जुड़ा. नेहरू इससे बहुत विचलित हो
गए. उन्होंने केंद्र में मंत्री रफ़ी अहमद किदवई को लखनऊ भेजा. रफ़ी अहमद
किदवई ने उन मंत्री, उनकी बेटी और फ़िरोज़ को बहुत समझाया, ऐसा भी सुनने
में आया है कि उस समय फ़िरोज़ गांधी इंदिरा गाँधी से अलग होकर उस लड़की से
शादी भी करने को तैयार थे. लेकिन वो तमाम मामला बहुत मुश्किल से सुलझाया
गया."
"लेकिन फ़िरोज़ गाँधी के दोस्तों का कहना है कि फ़िरोज़ गाँधी
इन सब मामलों में बहुत गंभीर नहीं थे. वो एक मनमौजी किस्म के आदमी थे.
उन्हें लड़कियों से बात करना अच्छा लगता था. नेहरू कैबिनेट में एक मंत्री
तारकेश्वरी सिन्हा से भी फ़िरोज़ गांधी की काफ़ी नज़दीकियाँ थीं."
"तारकेश्वरी
सिन्हा का खुद का कहना था कि अगर दो मर्द अगर चाय काफ़ी पीने जाएं और साथ
खाना खाएं तो समाज को कोई आपत्ति नहीं होती. लेकिन अगर एक महिला और पुरुष
साथ भोजन करें तो लोग तरह तरह की टिप्पणियाँ करते हैं. उनका कहना था कि लोग
हमेशा महिला और पुरुष की दोस्ती को शकोशुबहे की नज़र से देखते हैं."
बर्टिल
फ़ाक का कहना है कि फ़िरोज के दोस्त सैयद जाफ़र ने उन्हें बताया था कि
फ़िरोज़ अपने अफ़ेयर्स को जितना छिपाने की कोशिश करते थे, उतना ही वो बाहर आ
जाते थे. एक बार सैयद जाफ़र उनके घर गए तो उन्होंने देखा कि वहाँ आम की एक
पेटी रखी हुई है. उन्होंने कहा मुझे भी कुछ आम खिलाइए. फ़िरोज़ का जवाब
था, नहीं ये पंतजी के लिए है. बर्टिल फ़ाक बताते हैं, "उसी शाम फ़िरोज़ अपनी एक
महिला मित्र के यहाँ गए. संयोग से सैयद जाफ़र भी वहाँ मौजूद थे. वहाँ पर
वही आम की पेटी रखी हुई थी. जाफ़र ने कहा, पेटी तो गोविंदवल्लभ पंत के यहाँ
भेजी जानी थी. ये यहाँ कैसे है? फ़िरोज़ बोले, चुप भी रहो. इस बारे में
बात मत करो."
इस बीच इंदिरा गाँधी कांग्रेस की अध्यक्ष बन गईं और
उनकी पहल पर केरल में नंबूदरीपाद की सरकार बर्ख़्वास्त कर राष्ट्रपति शासन
लगा दिया गया. इस मुद्दे पर इंदिरा और फ़िरोज़ के बीच गहरे राजनीतिक मतभेद
भी पैदा हो गए.
कुछ साल पहले मशहूर पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने
बीबीसी से बात करते हुआ कहा था, "1959 में जब इंदिरा ने केरल में
कम्यूनिस्ट सरकार को ग़ैरसंवैधानिक तरीके से गिराया तो मियाँ बीवी में
ज़बरदस्त झगड़ा हुआ. उस शाम को फ़िरोज़ मुझसे मिले. उन्होंने कहा कि इससे
पहले कि लोग तुम्हें बताएं, मैं तुम्हें बताता हूँ कि हमारे बीच तेज़ झगड़ा
हुआ है और आज के बाद मैं कभी प्रधानमंत्री के घर पर नहीं जाउंगा. उसके बाद
वो वहाँ कभी नहीं गए. जब उनकी मौत हुई तब ही उनके पार्थिव शरीर को तीन
मूर्ति ले जाया गया."
इस बीच फ़िरोज़ गांधी अपने भाषणों से सबका
ध्यान खींच रहे थे. मूंदड़ा कांड पर उन्होंने अपने ही ससुर की सरकार पर
इतना ज़बरदस्त हमला बोला कि नेहरू के बहुत करीबी, तत्कालीन वित्त मंत्री
टीटी कृष्णामचारी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
ये कहा जाने
लगा कि कांग्रेस में रहते हुए भी फ़िरोज़ विपक्ष के अनऑफ़िशियल नेता हैं.
फ़िरोज़ के नज़दीक रहे ओंकारनाथ भार्गव याद करते हैं, "मुझे अच्छी तरह याद
है फ़िरोज़ के निधन के बाद मैं संसद भवन गया था. वहाँ के सेंट्रल हाल में
एक लॉबी थी जो फ़िरोज़ गाँधी कार्नर कहलाता था. वहाँ फ़िरोज़ गांधी और
दूसरे सांसद बैठ कर बहस की रणनीति बनाते थे. आज की तरह नहीं कि बात- बात पर
शोर मचाना शुरू कर दिया." "फ़िरोज़ गाँधी का सबसे बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने
संसदीय बहस के स्तर को बहुत ऊँचा किया है. मैं बर्टिल फ़ाक के इस कथन से
सहमत नहीं हूँ कि फ़िरोज़ गांधी को भुला दिया गया है. जैसे- जैसे भारतीय
प्रजातंत्र परिपक्व होगा, फ़िरोज़ गांधी को बेहतरीन संसदीय परंपराएं शुरू
करने के लिए याद किया जाने लगेगा."
फ़िरोज़ को हर चीज़ की गहराई में
जाना पसंद था. 1952 में वो रायबरेली से बहुत बड़े अंतर से जीत कर लोकसभा
पहुंचे थे. 1957 के चुनाव के दौरान उन्हें पता चला कि उनके पुराने
प्रतिद्वंदी नंद किशोर नाई के पास चुनाव में ज़मानत भरने के लिए भी पैसे
नहीं हैं. उन्होंने नंदकिशोर को बुला कर उन्हें अपनी जेब से ज़मानत के पैसे
दिए.
ओंकारनाथ भार्गव बताते हैं, "वो हमारे सांसद तो थे ही. सोने
पर सुहागा ये था कि उनका संबंध जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी से था. वो
अपने क्षेत्र में बराबर घूमते थे. कहीं लाई चना खा लेते थे. कहीं चाट खाते
थे. कहीं किसी की चारपाई पर जा कर बैठ जाते थे. इससे ज़्यादा सादा शख़्स
कौन हो सकता है."
कहा जाता है कि राजीव गांधी और संजय गांधी में वैज्ञानिक सोच पैदा करने में फ़िरोज़ गाँधी का बहुत बड़ा योगदान था. रशीद किदवई बताते हैं, 'फ़िरोज़ गाँधी एक अलग किस्म के
बाप थे.. उन्हें बच्चों को खिलौने देने में यकीन नहीं था. अगर कोई उन्हें
तोहफ़े में खिलौने दे भी देता था, तो वो कहते थे कि इन्हें तोड़ कर फिर से
जोड़ो. राजीव और संजय दोनों का जो टैक्निकल बेंड ऑफ़ माइंड था, वो फ़िरोज़
गाँधी की ही देन था. संजय ने बाद में जो मारुति कार बनाने की पहल की, उसके
पीछे कहीं न कहीं फ़िरोज़ गाँधी की भी भूमिका थी."
फ़िरोज़ बागबानी और बढ़ई का काम करने के भी शौकीन थे. उन्होंने ही इंदिरा गाँधी को शियेटर और पश्चिमी संगीत का चस्का लगाया था.
बर्टिल
फ़ाक बताते हैं, "उन्होंने इंदिरा गाँधी को बीतोवन सुनना सिखाया. लंदन
प्रवास के दौरान वो इंदिरा और शाँता गाँधी को ऑपेरा और नाटक दिखाने ले जाया
करते थे. बाद में इंदिरा गांधी ने लिखा, मेरे पिता ने कविता के प्रति मेरे
मन में प्यार पैदा किया, लेकिन संगीत के लिए मेरे मन में प्रेम फ़िरोज़ की
वजह से जगा. एक बार डॉम मोरेस ने इंदिरा गांधी से पूछा था-आपको
सबसे ज़्यादा तकलीफ़ किसकी मौत से हुई. इंदिरा का जवाब था, "मेरे पति
फ़िरोज़ क्योंकि वो अचानक इस दुनिया से चले गए थे. उनके शब्द थे- मैं शायद
फ़िरोज़ को पसंद नहीं करती थी, लेकिन मैं उन्हें प्यार करती थी."
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