Thursday, 5 July 2018

बटुकेश्वर दत्त

नाम याद है या भूल गए ??
हाँ, ये वही बटुकेश्वर दत्त हैं जिन्होंने भगतसिंह के साथ दिल्ली असेंबली में बम फेंका था और गिरफ़्तारी दी थी।
अपने भगत  पर तो जुर्म संगीन थे लिहाज़ा उनको सजा-ए-मौत दी गयी । पर बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काला पानी (अंडमान निकोबार) भेज दिया गया और मौत उनको करीब से छू कर गुज़र गयी।  वहाँ जेल में भयंकर टी.बी. हो जाने से मौत फिर एक बार बटुकेश्वर पर हावी हुई लेकिन वहाँ भी वो मौत को गच्चा दे गए। कहते हैं जब भगतसिंह, राजगुरु सुखदेव को फाँसी होने की खबर जेल में बटुकेश्वर को मिली तो वो बहुत उदास हो गए।
इसलिए नहीं कि उनके दोस्तों को फाँसी की सज़ा हुई,,, बल्कि इसलिए कि उनको अफसोस था कि उन्हें ही क्यों ज़िंदा छोड़ दिया गया !
1938 में उनकी रिहाई हुई और वो फिर से गांधी जी के साथ आंदोलन में कूद पड़े लेकिन जल्द ही फिर से गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए और वो कई सालों तक जेल की यातनाएं झेलते रहे।
बहरहाल 1947 में देश आजाद हुआ और बटुकेश्वर को रिहाई मिली। लेकिन इस वीर सपूत को वो दर्जा कभी ना मिला जो हमारी  सरकार और भारतवासियों से इसे मिलना चाहिए था।
आज़ाद भारत में बटुकेश्वर नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सिगरेट बेची तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। कभी बिस्किट बनाने का काम शुरू किया लेकिन सब में असफल रहे।
कहा जाता है कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे ! उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया ! परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने इस 50 साल के अधेड़ की  पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं..!!!  भगत के साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती भारत में ही संभव है।
हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी ! 1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया । लेकिन इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर  गुमनामी में जीवन बिताते रहे । सरकार ने इनकी कोई सुध ना ली।
1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी-
"कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।"
इनकी दशा पर इनके मित्र चमनलाल ने एक लेख लिख कर देशवासियों का ध्यान इनकी ओर दिलाया कि-"किस तरह एक क्रांतिकारी  जो फांसी से बाल-बाल बच गया जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा , वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।"
बताते हैं कि इस लेख के बाद सत्ता के गलियारों में थोड़ी हलचल हुई ! सरकार ने इन पर ध्यान देना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
भगतसिंह की माँ भी अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँची।
भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही-"मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए।उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई.
17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया !
भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ ये गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है।
मुझे लगता है भगत ने बटुकेश्वर से पूछा तो होगा- दोस्त मैं तो जीते जी आज़ाद भारत में सांस ले ना सका, तू बता कैसा है मेरा आजाद भारत.

Tuesday, 23 January 2018

जैसा बताया जाता है, क्या नेताजी और महात्मा गांधी के बीच वैसी ही दूरियां थीं?

1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर नेताजी की जीत को लेकर महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया का पूरा संदर्भ जाने बिना इनके आपसी संबंधों को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता

आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर जब आप ये शब्द पढ़ रहे होंगे, उसी समय सोशल मीडिया से लेकर अन्य मंचों पर नेताजी के बरक्स महात्मा गांधी की भी चर्चा चल रही होगी. ठीक है कि भारत की आज़ादी का कोई भी विमर्श महात्मा गांधी का नाम लिए बिना पूरा नहीं हो पाता. लेकिन आज नेताजी को महात्मा के खिलाफ ऐसे ही खड़ा किया जा रहा है मानो ये दोनों ही व्यक्तित्व आज के राजनेताओं की तरह एक-दूसरे के प्रति मनभेद और द्वेषभाव रखने वाले लोग हों.
तो आइये आज जान ही लेते हैं कि अहिंसा और हिंसा के प्रश्नों के साथ-साथ व्यक्तिगत रूप से नेताजी बोस और महात्मा गांधी एक-दूसरे के बारे में असल में क्या सोचते थे.
सुभाष चंद्र बोस को देशबंधु चित्तरंजन दास से मिलाने का काम महात्मा गांधी ने ही किया था. लेकिन असहयोग आंदोलन को अचानक समाप्त किए जाने से नाराज मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास ने जब कांग्रेस से अलग होकर स्वराज पार्टी बना ली, तो सुभाष बाबू भी स्वराजियों के साथ ही गए. लेकिन गांधी का व्यक्तित्व ऐसा था कि एक बार जब वे किसी व्यक्ति में गुणदर्शन कर लेते थे, तो फिर कोई भी वैचारिक मतभिन्नता उन्हें उनसे अलग नहीं कर सकती थी. और कमोबेश यह गुण सुभाष बाबू में भी था.

इसलिए हम आगे लिखे जाने वाले प्रसंगों में देखेंगे कि लगभग पच्चीस वर्षों के दरम्यान दोनों के संबंधों में तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद परस्पर प्रेम और ज्यादा प्रगाढ़ होता गया. दो पीढ़ियों के बीच वैचारिक स्तर पर होने वाले पारदर्शी और सम्मानजक बहस का यदि कोई सुंदर नमूना आपको देखना हो, तो वह आप नेहरू और सुभाष बाबू के साथ गांधी के हुए संवादों में देख सकते हैं. राजनीतिक संवाद या पॉलिटिकल कम्यूनिकेशन का आज जो स्वरूप हो गया है, उसे देखते हुए आज के युवाओं को ऐसे संवादों को बार-बार पढ़ना चाहिए.
4 जून, 1925 को ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी जब बाढ़ राहत के संदर्भ में एक लेख लिखते हैं, तो ऐसे कार्यों में सबसे दक्ष नेतृत्व के रूप में उन्हें सबसे पहले सुभाष चंद्र बोस की याद आती है. सितंबर, 1922 में उत्तर बंगाल में आई बाढ़ के दौरान सुभाष बाबू की भूमिका की प्रशंसा करते हुए गांधी लिखते हैं- ‘जिन्हें आपदा-राहत के काम का जरा भी ज्ञान है, वे जानते हैं कि केवल सेवा करने की इच्छा या रुपये होने से ही काम नहीं चल सकता. उसके लिए ज्ञान और योग्यता की भी जरूरत होती है. (1922 की बाढ़ राहत) के दौरान यथोचित कार्यप्रणाली के द्वारा दो बुराइयां रोकी जा सकीं — एक तो एक ही काम दोबारा करना और दूसरा अकुशल प्रबंधन. समूचे बाढ़ पीड़ित प्रदेश को 50 केन्द्रों में बांट दिया गया था. इस विशाल संगठन के अध्यक्ष और कोई नहीं श्रीयुत सुभाष चंद्र बोस थे, जो आज माण्डले के किले में सम्राट के मेहमान हैं.’
कलकत्ता नगर निगम के अध्यक्ष रहने के दौरान जब सुभाष बाबू को बिना कोई कारण बताए गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में उन्हें बहुत ही गंभीर बीमारी की हालत में रिहा किया गया, तो महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के इस रवैये के खिलाफ एक जबरदस्त आलेख लिखा था. 26 मई, 1927 को यंग इंडिया में लिखे इस आलेख में गांधी कहते हैं, ‘इस दुःखद मामले से भी अगर जनता कोई सांत्वना की चीज ढूंढ़ निकालना चाहे, तो उसे एक चीज जरूर मिल जाएगी और वह यह कि अंतिम क्षण तक श्रीयुत सुभाषचन्द्र बोस सरकार द्वारा समय-समय पर रखी गई उन अपमान भरी शर्तों को बड़ी जवांमर्दी के साथ मानने से इन्कार करते रहे. अब हमें आशा और प्रार्थना करनी चाहिए कि परमात्मा उन्हें ही फिर स्वस्थ करे और वे चिरकाल तक अपने देश की सेवा करते रहें.’
नेताजी बोस और महात्मा गांधी के बीच के वैचारिक भेद को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करनेवाले लोग अक्सर 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव वाला प्रसंग जरूर याद दिलाएंगे. हमें बचपन से किताबों में एक ही वाक्य बार-बार पढ़ाया गया है जहां गांधी को इस अवसर पर यह कहते हुए दिखाया जाता है कि ‘पट्टाभि की हार मेरी हार है’. बस केवल यही एक वाक्य पढ़ा-पढ़ाकर एक भ्रम पैदा किया जाता रहा है. आइये हम 31 जनवरी, 1939 को बारडोली में लिखे गए गांधी के उस संदेश के कुछ और जरूरी हिस्से को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ते हैं. यह संदेश चार फरवरी, 1939 को ‘यंग इंडिया’ में छपा था. इसमें गांधी कहते हैं, ‘...तो भी मैं उनकी (सुभाष बाबू की) विजय से खुश हूं और चूंकि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा अपना नाम वापस ले लेने के बाद डॉ पट्टाभि को चुनाव से पीछे न हटने की सलाह मैंने दी थी, इसलिए यह हार उनसे ज्यादा मेरी है.’
गांधी आगे लिखते हैं, ‘इस हार से मैं खुश हूं....सुभाष बाबू अब उन लोगों की कृपा के सहारे अध्यक्ष नहीं बने हैं जिन्हें अल्पमत गुट वाले लोग दक्षिणपंथी कहते हैं, बल्कि चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बने हैं. इससे वे अपने ही समान विचार वाली कार्य-समिति चुन सकते हैं और बिना किसी बाधा या अड़चन के अपना कार्यक्रम अमल में ला सकते हैं. ...सुभाष बाबू देश के दुश्मन तो हैं नहीं. उन्होंने उसके लिए कष्ट सहन किए हैं. उनकी राय में उनका कार्यक्रम और उनकी नीति दोनों अत्यंत अग्रगामी हैं. अल्पमत के लोग उसकी सफलता ही चाहेंगे.’
अगस्त, 1939 में जब नेताजी पटना के दौरे पर थे तो उनके खिलाफ काले झंडे दिखाकर प्रदर्शन किया गया. महात्मा गांधी ने इसकी कड़ी आलोचना की थी. 1940 में जब नेताजी ने कांग्रेस कार्यसमिति के फैसलों से अलग होकर अकेले ही अपनी योजना पर काम शुरू कर दिया और गिरफ्तार हो गए, तब भी गांधीजी से पूछा गया कि गांधी और कांग्रेस कार्यसमिति सुभाष बाबू के बचाव में आगे क्यों नहीं आ रहे हैं.
नौ जुलाई, 1940 को सेवाग्राम में इस पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए गांधीजी ने कहा था- ‘...सुभाष बाबू जैसे महान व्यक्ति की गिरफ्तारी कोई मामूली बात नहीं है. लेकिन सुभाष बाबू ने अपनी लड़ाई की योजना काफी सोच-समझकर और हिम्मत के साथ सामने रखी है. वे मानते हैं कि उनका तरीका सबसे अच्छा है....उन्होंने मुझे बड़ी आत्मीयता से कहा कि जो कुछ कार्यसमिति नहीं कर पाई, वे वह सब करके दिखा देंगे. वे विलंब से ऊब चुके थे. मैंने उनसे कहा कि अगर आपकी योजना के फलस्वरूप मेरे जीवन-काल में स्वराज्य मिल गया तो आपको बधाई का सबसे पहला तार मेरी ओर से ही मिलेगा. आप जब अपना संघर्ष चला रहे होंगे उस दौरान अगर मैं आपके तरीके का कायल हो गया तो मैं पूरे दिल से अपने नेता के रूप में आपका स्वागत करूंगा और आपकी सेना में भरती हो जाऊंगा. लेकिन मैंने उन्हें आगाह कर दिया था कि उनका रास्ता गलत है.’
17 जनवरी, 1941 को जब बोस कलकत्ता के अपने एल्गिन रोड वाले मकान से किसी को कुछ बताए बिना गायब हो गए, तो गांधीजी ने उनके बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को तार में लिखा- ‘सुभाष के बारे में खबर चौंकाने वाली है. कृपया सच्चाई तार से सूचित करें. चिंतित हूं. उम्मीद है सब ठीक होगा.’ इसके जवाब में शरतचन्द्र बोस ने अपने जवाबी तार में गांधीजी को लिखा था - ‘सुभाष के बारे में जनता की तरह हमें भी कोई जानकारी नहीं है. वे कहां हैं और उनके क्या इरादे हैं और वे किस समय घर छोड़कर गए थे, इसका कुछ पता नहीं. पिछले तीन दिनों से बहुत कोशिश करने के बावजूद कोई सफलता नहीं मिली. परिस्थितियों से लगता है कि उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया है.’
23 अगस्त, 1945 को जब यह खबर फैल गई कि विमान-दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु हो गई, तो अगले ही दिन अमृत कौर को पत्र में गांधी लिखते हैं- ‘सुभाष बोस अच्छे उद्देश्य के लिए मरे. वे निस्संदेह एक देशभक्त थे, भले ही वे गुमराह थे.’ 24 फरवरी, 1946 को ‘हरिजन’ में गांधी लिखते हैं- ‘आज़ाद हिंद फौज का जादू हमपर छा गया है. नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है. वे अनन्य देशभक्त हैं (वर्तमान काल का उपयोग मैं जान-बूझकर कर रहा हूं.) उनकी बहादुरी उनके सारे कामों में चमक रही है. उनका उद्देश्य महान था, पर वे असफल रहे. असफल कौन नहीं रहा? हमारा काम तो यह देखना है कि हमारा उद्देश्य महान हो और सही हो. सफलता यानी कामयाबी हासिल कर लेना हर किसी के किस्मत में नहीं लिखा होता. इससे ज्यादा तारीफ मैं नहीं कर सकता, क्योंकि मैं जानता था कि उनका काम विफल होने ही वाला है. और अगर वह अपनी आजाद हिंद फौज को विजयी बनाकर हिंदुस्तान में ले आए होते, तो भी मैंने यही कहा होता, क्योंकि इस तरह आम जनता में जागृति नहीं फैल पाती...’
‘...नेताजी और उनकी फौज हमें जो सबक सिखाती है, वह तो त्याग का, जाति-पाति के भेद से रहित एकता का और अनुशासन का सबक है. अगर उनके प्रति हमारी भक्ति समझदारी की और विवेकपूर्ण होगी तो हम उनके इन तीनों गुणों को पूरी तरह अपनाएंगे, लेकिन हिंसा का उतनी ही सख्ती से सर्वथा त्याग कर देंगे....इसलिए मैं कैप्टन शाहनवाज के इस बयान का स्वागत करता हूं कि नेताजी का योग्य अनुयायी बनने के लिए हिन्दुस्तान की धरती पर आने के बाद, वे कांग्रेस की सेना में एक विनीत, अहिंसक सिपाही बनकर काम करेंगे.’
22 मई, 1946 को आजाद हिन्द फौज के 60 अफसरों के साथ अपनी लंबी बातचीत में गांधीजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था- ‘आपने अपने दल के हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, ईसाइयों, आंग्ल-भारतीयों और सिखों के बीच जो पूर्ण एकता स्थापित की वह कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है.’ इनमें से एक अफसर ने गांधीजी से पूछा, ‘अगर सुभाष बाबू विजय प्राप्त करके आपके पास लौटे होते, तो आप क्या करते?’ गांधीजी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मैंने उनसे कहा होता कि वे आपके हथियार छुड़वा दें और उन्हें मेरे सामने जमा कर दें.’
सुभाष बाबू द्वारा सभी धर्मों और जातियों के बीच एकता स्थापित करने की प्रशंसा गांधीजी ने तीन दिसंबर, 1947 को जनरल करिअप्पा के साथ अपनी बातचीत में भी की थी. गांधीजी ने कहा था, ‘नेताजी ने आजाद हिन्द फौज की स्थापना करके एकता का एक सुंदर उदाहरण हमारे सम्मुख रखा कि प्रत्येक हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और पारसी को चाहिए कि वह हिन्दुस्तान को अपना देश माने और एक होकर देश के लिए कार्य करे. उन्होंने इस प्रकार हमारे सम्मुख यह एकता सिद्ध करके दिखाई.’
27 अप्रैल, 1947 को आजाद हिन्द फौज के लोगों को फिर से संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा था, ‘आजाद हिन्द फौज का नाम अहिंसक आजाद हिन्द फौज रखना चाहिए न? (हंसते-हंसते), क्योंकि मुझसे आप कोई दूसरी बात नहीं सुन सकेंगे. सुभाष बाबू तो मेरे पुत्र के समान थे. उनके और मेरे विचारों में भले ही अंतर रहा हो, लेकिन उनकी कार्यशक्ति और देशप्रेम के लिए मेरा सिर उनके सामने झुकता है.’
अब चलते-चलते हमें उस संदेश का एक हिस्सा भी सुन लेना चाहिए जो सुभाषचन्द्र बोस ने गांधीजी के जन्मदिन पर दो अक्तूबर, 1943 को बैंकाक रेडियो से प्रसारित किया था. उसमें नेताजी ने कहा था, ‘...मन की शून्यता के ऐसे ही क्षणों में महात्मा गांधी का उदय हुआ. वे लाए अपने साथ असहयोग का, सत्याग्रह का एक अभिनव, अनोखा तरीका. ऐसा लगा मानो उन्हें विधाता ने ही स्वतंत्रता का मार्ग दिखाने के लिए भेजा था. क्षण भर में, स्वतः ही सारा देश उनके साथ हो गया. हर भारतीय का चेहरा आत्मविश्वास और आशा की चमक से दमक गया. अंतिम विजय की आशा फिर सामने थी....आने वाले बीस वर्षों तक महात्मा गांधी ने भारत की मुक्ति के लिए काम किया और उनके साथ काम किया भारत की जनता ने. ऐसा कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि 1920 में गांधीजी आगे नहीं आते तो शायद आज भी भारत वैसा ही असहाय बना रहता. भारत की स्वतंत्रता के लिए उनकी सेवाएं अनन्य, अतुल्य रही हैं. कोई एक अकेला व्यक्ति उन परिस्थितियों में एक जीवन में उतना कुछ नहीं कर सकता था.’
गांधीजी और नेताजी की चर्चा एक साथ करते समय क्या हम इन आत्मीय प्रसंगों को भी पढ़ने और समझने का जरूरत समझेंगे? गांधीजी और नेताजी जैसे लोगों का दिल तो बहुत बड़ा था. उनके आपसी संबंधों को समझने के लिए हमें भी अपना दिल थोड़ा बड़ा करना पड़ेगा. वही उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

Tuesday, 27 June 2017

सैम मानेकशॉ : बांग्लादेश युद्ध का ऐसा नायक जिससे इंदिरा गांधी भी खौफ खाती थीं

बांग्लादेश युद्ध में भारत को मिली जीत के बाद सैम मानेकशॉ की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई थी और ऐसी अफवाहें उड़ने लगी थीं कि वे तख्तापलट कर सकते हैं

अप्रैल 29, 1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई. मीटिंग में हाज़िर लोग थे - वित्त मंत्री यशवंत चौहान, रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम, कृषि मंत्री फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह और इन राजनेताओं से अलग एक ख़ास आदमी- सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ.
‘क्या कर रहे हो सैम?’ इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री की एक रिपोर्ट जनरल की तरफ फेंकते हुए सवालिया लहजे में कहा. इसमें पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों की बढ़ती समस्या पर गहरी चिंता जताई गई थी. सैम बोले, ‘इसमें मैं क्या कर सकता हूं!’ इंदिरा गांधी ने बिना समय गंवाए प्रतिक्रिया दी, ‘आई वॉन्ट यू टू मार्च इन ईस्ट पाकिस्तान.’ जनरल ने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया, ‘इसका मतलब तो जंग है, मैडम.’ प्रधानमंत्री ने भी बड़े जोश से कहा, ‘जो भी है, मुझे इस समस्या का तुरंत हल चाहिए.’ मानेकशॉ मुस्कुराए और कहा, ‘आपने बाइबिल पढ़ी है?’

जनरल के सवाल पर सरदार स्वर्ण सिंह हत्थे से उखड़ गए और बोले, ‘इसका बाइबिल से क्या मतलब है,जनरल?’ मानेकशा ने कहा, ‘पहले अंधेरा था, ईसा ने कहा कि उन्हें रौशनी चाहिए और रौशनी हो गयी. लेकिन यह सब बाइबिल के जितना आसान नहीं है कि आप कहें मुझे जंग चाहिए और जंग हो जाए.’
‘क्या तुम डर गए जनरल!’ यह कहते हुए यशवंत चौहान ने भी बातचीत में दखल दिया. ‘मैं एक फौजी हूं. बात डरने की नहीं समझदारी और फौज की तैयारी की है. इस समय हम लोग तैयार नहीं हैं. आप फिर भी चाहती हैं तो हम लड़ लेंगे पर मैं गारंटी देता हूं कि हम हार जायेंगे. हम अप्रैल के महीने में हैं. पश्चिम सेक्टर में बर्फ पिघलने लग गयी है. हिमालय के दर्रे खुलने वाले हैं, क्या होगा अगर चीन ने पाकिस्तान का साथ देते हुए वहां से हमला कर दिया? कुछ दिनों में पूर्वी पाकिस्तान में मॉनसून आ जाएगा, गंगा को पार पाने में ही मुश्किल होगी. ऐसे में मेरे पास सिर्फ सड़क के जरिए वहां तक पहुंच पाने का रास्ता बचेगा. आप चाहती हैं कि मैं 30 टैंक और दो बख्तरबंद डिवीज़न लेकर हमला बोल दू!’ मीटिंग ख़त्म हो चुकी थी. इस दौरान जनरल ने इस्तीफे की पेशकश भी की, जिसे प्रधानमंत्री ने नकार दिया और उन्हें उनके हिसाब से तैयारी करने का हुक्म दे दिया.
1971 में भारत की पाकिस्तान पर निर्णायक जीत हुई और इस तरह एशिया में एक नए मुल्क का उदय हुआ. बांग्लादेश का निर्माण होना भारत और वहां के नागरिकों की संयुक्त सफलता थी लेकिन अगर हम इस युद्ध में भारत की अपनी एक अहम उपलब्धि की बात करें तो वह थी पाकिस्तान का हमारी शर्तों पर आत्मसमर्पण करना. भारतीय सेना ने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ी को सरेआम ढाका में आत्समर्पण करवाया था. पाकिस्तान की हारी हुई फौज ने हिन्दुस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा को गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दिया था. पाकिस्तान के 26,000 सैनिकों ने हमारे मात्र 3000 सैनिकों के सामने हथियार डाले थे. इसी तरह पश्चिमी सेक्टर में भी भारत की जीत मुकम्मल थी. यूं तो इस जंग में वायु सेना और जल सेना ने भी कमाल का प्रदर्शन किया था पर जीत का सेहरा मानेकशॉ के सिर बंधा और उनकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई. इसके पीछे कई कारण थे.
1857 के ग़दर से लेकर 1947 तक हिन्दुस्तान की अवाम का मनोबल टूट चुका था. आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की शुरू की गईं पंचवर्षीय योजनाएं बेअसर सी दिखाईं पड़ रही थीं. सामाजिक समस्याएं, जनसंख्या के साथ दिनों-दिन बड़ी और भयावह होती जा रही थीं. फिर रही-सही कसर चीन से मिली हार ने पूरी कर दी थी. वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ 1948 और 1965 की लड़ाइयों के नतीजों पर तो आज भी बहस जारी है. 1971 की जंग पाकिस्तान के साथ तीसरी लड़ाई थी. इसके पहले तक देश एक तरह से जूझना और जीतना तकरीबन भूल चुका था. यही वो दौर था जब भारत एक बड़े खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा था. तब देश को इस जीत ने ख़ुद में यकीन करने साहस दिया और इसके केंद्र में थे सैम मानेकशॉ, और यही वजह थी कि जनता को उनमें अपना नायक नजर आया.
तीन अप्रैल, 1913 को एक पारसी परिवार में जन्मे मानेकशॉ डॉक्टर बनना चाहते थे. लेकिन पिता ने मना कर दिया. लिहाज़ा बग़ावत के तौर पर सैम फौज में दाखिल हो गए. दूसरे विश्वयुद्ध में बतौर कप्तान उनकी तैनाती बर्मा फ्रंट पर हुई. उन्हें सित्तंग पुल को जापानियों से बचाने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी. उन्होंने वहां बड़ी बहादुरी से अपनी कंपनी का नेतृत्व किया था. उस लड़ाई में उनके पेट में सात गोलियां लगी थीं और वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे.
सैम के बचने की संभावना कम ही थी. उनकी बहादुरी से मुत्तासिर होकर डिवीज़न के कमांडर मेजर जनरल डीटी कवन ने अपना मिलिट्री क्रॉस (एक सम्मान चिन्ह) उन्हें देते हुए कहा, ‘...मरने पर मिलिट्री क्रॉस नहीं मिलता.’ इसमें कोई दोराय नहीं कि सैम अपनी बहादुरी साबित कर चुके थे और इस सम्मान के हकदार थे. लेकिन उनकी बहादुरी का यह किस्सा यहीं खत्म नहीं होता.
घायल सैम को सेना के अस्पताल ले जाया गया. यहां के एक प्रमुख डॉक्टर ने उनसे पूछा, ‘तुम्हें क्या हुआ है बहादुर लड़के?’ इस पर उनका जवाब, ‘मुझे एक खच्चर ने लात मारी है!’ अब ज़रा सोचिये कि किसी के पेट में सात गोलियां हों और जो मौत के मुहाने पर खड़ा हो, वो ऐसे में भी अपना मजाकिया अंदाज़ न छोड़े तो आप उसे क्या कहेंगे? शायद बहादुर!
आज़ादी के बाद सैम मानिकशॉ पंजाब रेजिमेंट में शामिल हुुए और बाद में गोरखा राइफल्स में कर्नल बने. बताते हैं कि इस दौरान एक बार जब वे गोरखा टुकड़ी की सलामी ले रहे थे तब उसके हवलदार से उन्होंने पुछा, ‘तेरो नाम के छाहे (है)‘ उसने कहा, ‘हरका बहादुर गुरुंग’. सैम ने फिर पूछा, ‘मेरो नाम के छाहे ?’ उसने कुछ देर सोचा और कहा, ‘सैम बहादुर!’ तबसे वे सैम ‘बहादुर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए.
1961 में वीके कृष्ण मेनन ने उनके ख़िलाफ़ यह कहकर कोर्ट ऑफ़ इंक्वायरी बिठा दी थी कि उनकी कार्यशैली में अंग्रेजों का प्रभाव दिखता है (उस समय मानेकशॉ स्टाफ कॉलेज में कमांडेंट के पद पर तैनात थे) मेनन ज़ाहिर तौर पर समाजवादी थे. संभव है कि वो उन्हें पसंद ना करते हों. पर मामले की गहराई में जाने पर कुछ और भी समझ आता है. सैम के समकालीन लेफ्टिनेंट जनरल बृजमोहन कौल नेहरू के करीबी थे और कौल साहब को कई बार इस बात का फायदा मिला.
1962 की लड़ाई में कौल चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ नियुक्त थे और उन्हें 4 कोर, मुख्यालय तेजपुर असम का कमांडर बनाया गया. सेना में यह पद - चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ, सेनाध्यक्ष से एक पोस्ट नीचे होता थी. इसलिए मुमकिन हैै कि कौल साहब को सैम पर तरजीह देने के लिए यह जांच बिठाई गयी हो? खैर, लेफ्टिनेंट जनरल बृजमोहन कौल बतौर कमांडर कोई तीर नहीं मार पाए थे. चीन भारत की पूर्वी सीमा पर हावी होता जा रहा था तब नेहरू ने कौल को हटाकर सैम मानेकशॉ को 4 कोर का जनरल ऑफिसर कमांडिंग बनाकर भेजा. चार्ज लेते ही जवानों को उनका पहला ऑर्डर था, ‘जब तक कमांड से ऑर्डर न मिले मैदान ए जंग से कोई भी पीछे नहीं हटेगा और मैं सुनिश्चित करूंगा कि ऐसा कोई आदेश न आए.’ उसके बाद चीनी सैनिक एक इंच ज़मीन भी अपने कब्ज़े में नहीं ले पाए और आखिरकार युद्ध विराम की घोषणा हो गयी.
यहां से सैम का ‘वक़्त’ शुरू हो गया. 1965 की लड़ाई में भी उन्होंने काफी अहम भूमिका निभाई थी. आठ जून, 1969 को गोरखा रायफल्स का पहला अफ़सर देश का सातवां सेनाध्यक्ष (4 स्टार) बना. 1973 में वे फ़ील्ड मर्शाल (5 स्टार) जनरल बना दिए गए. फ़ील्ड मार्शल कभी रिटायर नहीं होते, उनकी गाड़ी पर 5 स्टार लगे रहते हैं. वे ताज़िन्दगी फौज की वर्दी पहन सकते हैं और फौज की सलामी ले सकते हैं.
सैम का सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत कमाल का था. वे इंदिरा गांधी को ‘स्वीटी’, ‘डार्लिंग’ कहकर बुलाते थे. सरकारों को फौजी जनरलों से बहुत डर लगता है और जब जनरल मानेकशॉ सरीखे का बहादुर और बेबाक हो, तो यह डर कई गुना बढ़ जाता है.1971 के बाद आये दिन यह अफवाह उड़ने लगी थी कि वे सरकार का तख्ता पलट करने वाले हैं. इससे आजिज़ आकर, इंदिरा ने उन्हें एक दिन फ़ोन किया. यह किस्सा खुद मानेकशॉ ने एक इंटरव्यू में बताया था. इसके मुताबिक फोन पर और बाद में प्रधानंत्री के साथ उनकी जो बातचीत हुई वह इस प्रकार थी :
इंदिरा गांधी : ‘सैम, व्यस्त हो?’
सैम मानेकशॉ : ‘देश का जनरल हमेशा व्यस्त होता है, पर इतना भी नहीं कि प्राइम मिनिस्टर से बात न कर सके.’
इंदिरा गांधी : ‘क्या कर रहे हो?’
सैम मानेकशॉ : ‘फिलहाल चाय पी रहा हूं.’
इंदिरा गांधी : मिलने आ सकते हो? चाय मेरे दफ्तर में पीते हैं.’
सैम मानेकशॉ : ‘आता हूं.’
मानेकशॉ ने फिर फ़ोन रखकर अपने एडीसी से कहा, ‘गर्ल’ वांट्स टू मीट मी.’
सैम कुछ देर में प्रधानमंत्री कार्यालय पंहुच गए. वे बताते हैं कि इंदिरा सिर पकड़ कर बैठी हुई थीं.
सैम मानेकशॉ : ‘क्या हुआ मैडम प्राइम मिनिस्टर?’
इंदिरा गांधी : ‘मैं ये क्या सुन रही हूं?’
सैम मानेकशॉ : ‘मुझे क्या मालूम आप क्या सुन रही हैं? और अगर मेरे मुत्तालिक है तो अब क्या कर दिया मैंने जिसने आपकी पेशानी पर बल डाल दिए हैं?’
इंदिरा गांधी : ‘सुना है तुम तख्तापलट करने वाले हो. बोलो क्या ये सच है?’
सैम सैम मानेकशॉ : ‘आपको क्या लगता है?’
इंदिरा गांधी : ‘तुम ऐसा नहीं करोगे सैम.’
सैम सैम मानेकशॉ : ‘आप मुझे इतना नाकाबिल समझती हैं कि मैं ये काम (तख्तापलट) भी नहीं कर सकता!’ फिर रुक कर वे बोले,’ देखिये प्राइम मिनिस्टर, हम दोनों में कुछ तो समानताएं है. मसलन, हम दोनों की नाक लम्बी है पर मेरी नाक कुछ ज़्यादा लम्बी है आपसे. ऐसे लोग अपने काम में किसी का टांग अड़ाना पसंद नहीं करते. जब तक आप मुझे मेरा काम आजादी से करने देंगी, मैं आपके काम में अपनी नाक नहीं अड़ाउंगा.’
एक दूसरा किस्सा भी है जो सैम मानिकशॉ की बेबाकी और बेतकल्लुफी को दिखाता है. तेजपुर में वे एक बार नेहरू को असम के हालात पर ब्रीफिंग दे रहे थे कि तभी इंदिरा उस कमरे में चली आईं. सैम ने इंदिरा को यह कहकर बाहर करवा दिया था कि उन्होंने अभी गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. फिर एक बार किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जिन्नाह ने उन्हें पाकिस्तान आर्मी में आने का निमंत्रण दिया था. जब पत्रकार ने यह पूछा कि वे अगर पकिस्तान सेना में होते तो 1971 के युद्ध का परिणाम क्या होता? जैसी कि एक जनरल से उम्मीद की जा सकती है उन्होंने वैसा ही जवाब दिया. उनका कहना था, ‘...कि तब पाकिस्तान जीत गया होता...’
रिटायरमेंट के बाद कई कंपनियों ने उनकी सेवाएं लीं. वे कुछ के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स थे और कहीं मानद चेयरमैन. आज सैम की ज़िन्दगी और उनसे जुड़े किस्से किवदंती बन चुके हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि वे एक साहसी और चतुर जनरल थे.
चलते-चलते
नेपोलियन बोनापार्ट जब अपनी सेना के जनरल का चयन करता था तो उन तमाम विशेषताएं, जो एक जनरल में होनी चाहिए, के अलावा एक बात और पूछता था, ‘क्या तुम भाग्यशाली जनरल साबित होगे?’ आज हम कह सकते हैं कि सैम मानेकशॉ ‘बहादुर’ भारत के लिए भाग्यशाली भी थे.

इमरजेंसी लगने के बाद देश में क्या-क्या हुआ था?

जाने-माने समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन का यह लेख मूल रूप से 1985 में कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ में प्रकाशित हुआ था

इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा के बाद 1975 में बहुत चालाकी और भोंडेपन के साथ चुनाव संबंधी नियम-कानूनों को संशोधित किया गया. इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को उलट दिया जाए. साफ है कि आपातकाल की घोषणा केवल निजी फायदों और सत्ता बचाने के लिए की गई थी. इसीलिए श्रीमती गांधी ने जब राष्ट्रपति से आपातकाल की घोषणा करने का अनुरोध किया तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल तक की सलाह नहीं ली. आपातकाल लगाने के जिन कारणों को इंदिरा गांधी सरकार ने अपने ‘श्वेतपत्र’ में बताया, वे नितांत अप्रासंगिक हैं.
सबसे ज्यादा शिकार राजनेता हुए
आपातकाल की घोषणा के पहले ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए थे. बंदियोंं में लगभग सभी प्रमुख सांसद थे. उनकी गिरफ्तारी का उद्देश्य संसद को ऐसा बना देना था कि इंदिरा गांधी जो चाहें करा लें. उन दिनों कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था. इसीलिए जब जयप्रकाश नारायण सहित दूसरे विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया.
साधारण कार्यकर्ताओं की बात जाने दीजिए बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना भी उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी गई. उन्हें कहां रखा गया है इसकी भी कोई खबर नहीं दी गई. दो महीने तक मिलने-जुलने की कोई सूरत न थी. बंदियों को तंग करने, उनको अकेले में रखने, इलाज न कराने और शाम छह बजे से ही उन्हें कोठरी में बंद कर देने के सैकड़ों उदाहरण हैं. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही करीब 15 हजार लोगों को बंदी बनाया गया. उनकी डाक सेंसर होती थी और जब मुलाकात की अनुमति भी मिली तो उस दौरान खुफिया अधिकारी वहां तैनात रहते थे. कहना न होगा कि ऐसे हालात में जेल के अफसरों का व्यवहार कैसा रहा होगा. वास्तव में ये अफसर स्वयं डरे हुए थे.
हवालातों में पुलिस दमन के शिकार अक्सर वे कार्यकर्ता हुए जो सत्याग्रह का संचालन करते हुए प्रचार सामग्री तैयार करते और बांटते थे. पुलिस अत्याचारों की बहुत-सी मिसालें हैं. सत्या​ग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं को उनके सहयोगियों के नाम जानने, उनके ठिकानों का पता लगाने, उनके कामकाज की जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से बहुत तंग किया गया. रात को भी सोने न देना, खाना न देना, प्यासा रखना या बहुत भूखा रखने के बाद बहुत खाना खिलाकर किसी प्रकार आराम न करने देना, घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों-हफ्तों तक सवालों की बौछार करते रहना जैसी चीजें बहुत आम थीं.
केरल के राजन को तो मशीन के पाटों के बीच दबाया तक गया. उसकी हड्डियों तक को तोड़ डाला गया. दिल्ली के जसवीर सिंह को उल्टा लटकाकर उसके बाल नोंचे गए. ऐसे लोगों को क्रूरता से ऐसी गुप्त चोटें दी गईं, जिसका कोई प्रमाण ही न रहे. बेंगलुरू में लारेंस फर्नांडिस (जॉर्ज फर्नांडिस के भाई) की इतनी पिटाई की गई कि वह सालों तक सीधे खड़े नहीं हो पाए. एक नवंबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सम्मेलन में जिन छात्रों ने परचे बांटे, उन्हें भी बुरी तरह से पीटा गया. इस दौरान दो क्रातिकारियों किश्तैया गौड़ और भूमैया को फांसी दे दी गई.
महिला बंदियों के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया गया. जयपुर (गायत्री देवी) और ग्वालियर (विजयाराजे सिंधिया) की राजमाताओं को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा गया. श्रीलता स्वामीनाथन (राजस्थान की कम्युनिस्ट नेता) को खूब अपमानित किया गया. मृणाल गोरे (महाराष्ट्र की समाजवादी नेता) और दुर्गा भागवत (समाजवादी विचारक) को पागलों के बीच रखा गया. महिला बंदियों के साथ गंदे मजाक की शिकायतें भी मिलीं.
संविधान और कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा गया
इंदिरा गांधी को सबसे पहले राजनारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का निबटारा करना था. इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया. साथ ही इसका अमल पूर्व काल से लागू कर दिया. संविधान को संशोधित करके कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया. सबसे कठोर संविधान का 42वां संशोधन था. इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास किया गया.
इमरजेंसी के दौरान श्रीमती गांधी ने संविधान को तोड़ने-मरोड़ने का बहुत प्रयास किया और इसमें उन्हें तात्कालिक सफलता भी मिली. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया. ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया. जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया. इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था. इसमें भी कई बार बदलाव किए गए.
रासुका में 29 जून, 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बाद बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार भी खत्म कर दिया गया. साथ ही नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढ़ाने का प्रावधान कर दिया गया. तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया.
मीडिया का उत्पीड़न
आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसर बैठा दिया गया था. सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया. इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई. इस कानून का समर्थन करते हुए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कहा कि इसके जरिए संपादकों की स्वतंत्रता की ‘समस्या’ का हल हो जाएगा. सरकार ने चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म करके उन्हें ‘समाचार’ नामक एजेंसी में विलीन कर दिया. इसके अलावा सूचना और प्रसारण मंत्री ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए ‘आचारसंहिता’ की घोषणा कर दी.
अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए. इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे. जहां कहीं पत्रकारों ने इस पहल का विरोध किया उन्हें भी बंदी बनाया गया. पुणे के साप्ताहिक ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए. बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया. लेकिन सबसे ज्यादा तंग ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को किया गया. अखबार की संपत्ति पर दिल्ली नगर निगम द्वारा कब्जा कराके उसे बेचने का भी प्रयास किया गया. सरकार की कार्रवाइयों से परेशान होकर इसके मालिकों ने सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और पांच निदेशकोंं को अंतत: स्वीकार कर लिया. इसके बाद अखबार के तत्कालीन संपादक एस मुलगांवकर को सेवा से मुक्त कर दिया गया.
‘स्टेट्समैन’ को तो जुलाई 1975 में ही बाध्य किया गया कि वह सरकार द्वारा मनोनीत निदेशकों की नियुक्ति करे. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. उसके बाद प्रबंध निदेशक ईरानी पर मुकदमा चलाने के लिए उस मामले को उठाया गया जो दो साल पहले ही सुलझ गया था. सरकार के इसमें असफल रहने पर ईरानी के पासपोर्ट को जब्त करने का आदेश दिया गया.
आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई. किशोर कुमार जैसे गायक को काली सूची में रखा गया. ‘आंधी’ फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई.
महज आर्थिक आपातकाल कहकर भ्रम फैलाया गया
पक्ष और विपक्ष को दबाने के बाद सरकार ने दो और काम किए. पहला, आ​र्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और दूसरा, श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को कम करना. इसलिए आपातकाल का सबसे ज्यादा समर्थन पूंजीपतियों की संस्था ‘फिक्की’ (भारतीय वाणिज्य और उद्योग परिसंघ) ने किया. संशोधन के बाद न्यूनतम बोनस को 8.33 प्रतिशत से घटाकर केवल चार प्रतिशत कर दिया गया. एलआईसी और उसके कर्मचारियों के बीच औद्योगिक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से बदल दिया गया. निजी क्षेत्रों की तरक्की के लिए सामान के आयात की छूट दी गई और कंपनियों पर कर भार को घटा दिया गया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अनुरोध किया गया कि वे भारत में निवेश करें क्योंकि यहां सस्ती मजदूरी और अनुशासित मजदूर हैं. इस दौरान जहां कहीं मजदूर हड़ताल हुई, वहां दमनचक्र चला. जनवरी 1976 में सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही बोनस कानून में संशोधन का विरोध करने पर 16 हजार मजदूर ​गिरफ्तार किए गए.
सरकार का दमनचक्र केवल मजदूरों को अनुशासित करने के लिए ही नहीं बल्कि जनता की आवाज दबाने के लिए भी चला. सरकार ने सभी तौर-तरीके अपना कर नागरिक अधिकारों का हनन किया. आरंभ मेंं उसे आर्थिक आपातस्थिति तक ही सीमित रखने की बात कही गई. लेकिन यह केवल भ्रम पैदा करने के लिए किया गया था.
वकीलों और जजों को भी नहीं बख्शा गया
इंदिरा गांधी के शासन ने नागरिकों के साथ जो दुर्व्यवहार, अन्याय और अत्याचार किया उसमें नागिरक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों को भी नहीं बख्शा गया. वकीलों को खासकर बार काउंसिल के अध्यक्ष राम जेठमलानी को सबक सिखाने के लिए संसद के कानून द्वारा अटॉर्नी जनरल को इसका अध्यक्ष बना दिया गया. जिन 42 जजों ने नजरबंदियों के मुकदमों में न्यायसंगत फैसले दिए या देने की कोशिश् की, उन सबका तबादला कर दिया गया. इससे जहां यह बात सामने आती है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की नीति कितनी अधिक सख्त थी. वहीं यह भी साबित होता है कि उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना कर दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने बिना दंड के जेल में न रखे जाने के अधिकार को छीनने की सरकार की कोशिश को असफल कर दिया.
अल्पसंख्यकों की जबरन नसबंदी
परिवार नियोजन के लिए अध्यापकों और छोटे कर्मचारियों पर सख्ती की गई. लोगों का जबरदस्ती परिवार नियोजन भी किया गया. परिवार नियोजन और दिल्ली के सुंदरीकरण के नाम पर अल्पसंख्यकों का काफी उत्पीड़न किया गया. दिल्ली में सैकड़ों घरों को बुलडोजरों की मदद से जबरन तोड़कर वहां रह रहे लोगों को शहर से 15-20 किलोमीटर दूर पटक दिया. उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर, सुल्तानपुर और सहारनपुर, हरियाणा में पीपली के अलावा दूसरे स्थानों पर इसके लिए लाठियां और गोलियां भी चलाई गई. जिस किसी ने भी विरोध किया उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
भ्रष्टाचार कम होने की बात गलत
आपातकाल में अफसरशाही और पुलिस को जो अनियंत्रित अधिकार प्राप्त हुए उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया. हालांकि प्रचार था​ कि इमरजेंसी के दौरान भ्रष्टाचार कम हुआ, लेकिन दो-तीन महीने के बाद हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो गए. सत्ता के शीर्ष पर बैठे संजय गांधी के साथी भ्रष्टाचार में लिप्त थे. जिस किसी ने संजय गांधी की बात नहीं मानी उसे शिकंजे में फंसा लिया गया. इसी असाधारण स्थिति में इंदिरा गांधी ने हेमवतीनंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और सिदार्थ शंकर रे को उनके पद से हटा दिया. संजय ने मारुति के नाम पर काफी रुपया जमा किया और काफी अनियमितताएं बरतीं. पूंजीपतियों और कारो​बारियों को मजबूर करके पैसे बटोरे गए. उन पर गलत आरोप लगाकर मुकदमे चलाए गए और पुलिस कार्रवाई भी की गई.
आखिरकार जनता ने सबक सिखाया
इस तरह इमरजेंसी के दौरान सरकार ने जीवन के हर क्षेत्र में आतंक का माहौल पैदा कर दिया था. इन सभी काले कारनामों के कारण जनता ने 1977 में एकजुट होकर न केवल कांग्रेस बल्कि इंदिरा गांधी को भी धूल चटा दी. इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया. आज इमरजेंसी को भुलाने की कोशिश की जाती है लेकिन हमें उन काले दिनों के अनुभवों को नहीं भूलना नहीं चाहिए. उन अनुभवों से ही हम वे सबक सीखते हैं जिनसे हमारा लोकतंत्र और मजबूत बनेगा.

Friday, 23 June 2017

संजय गांधी के लिए नसबंदी अभियान इतना अहम क्यों बन गया था?

आपातकाल के दौरान संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए?

‘सबको सूचित कर दीजिए कि अगर महीने के लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ वेतन रुक जाएगा बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी होगा. सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मुझे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें.’
यह टेलीग्राफ से भेजा गया एक संदेश है. इसे आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने अपने मातहतों को भेजा था. जिस लक्ष्य की बात की गई है वह नसबंदी का है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नौकरशाही में इसे लेकर किस कदर खौफ रहा होगा.
आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जोर-शोर से नसबंदी अभियान चलाया था. इस पर जोर इतना ज्यादा था कि कई जगह पुलिस द्वारा गांवों को घेरने और फिर पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी करने की भी खबरें आईं. जानकारों के मुताबिक संजय गांधी के इस अभियान में करीब 62 लाख लोगों की नसबंदी हुई थी. बताया जाता है कि इस दौरान गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई.
नसबंदी के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवंशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जर्मनी इंसान की सबसे बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा
1933 में जर्मनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था. इसके लिए एक कानून बनाया गया था जिसके तहत किसी भी आनुवंशिक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति की नसबंदी का प्रावधान था. तब तक जर्मनी नाजी पार्टी के नियंत्रण में आ गया था. इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवंशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जर्मनी इंसान की सबसे बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से मुक्त होगी. बताते हैं कि इस अभियान में करीब चार लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी.
लेकिन संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए? ऐसा कई चीजों के समय के एक मोड़ पर मिलने से मुमकिन हुआ था. इनमें पहली थी संजय की कम से कम समय में खुद को प्रभावी नेता के तौर पर साबित करने की महत्वाकांक्षा. दूसरी, परिवार नियोजन को और असरदार बनाने के लिए भारत पर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से पड़ता दबाव. तीसरी, जनसंख्या नियंत्रण के दूसरे तरीकों की बड़ी विफलता और चौथी आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति.
25 जून 1975 को आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संजय गांधी के बारे में यह साफ हो गया था कि आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वही संभालेंगे. संजय भी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे. उस समय वृक्षारोपण, दहेज उन्मूलन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर जोर था, लेकिन संजय को लगता था कि उन्हें किसी त्वरित करिश्मे की बुनियाद नहीं बनाया जा सकता.
राजनीति में नए-नए आए संजय गांधी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे
संयोग से यही वह दौर भी था जब दुनिया में भारत की आबादी का जिक्र उसके अभिशाप की तरह होता था. अमेरिका सहित कई पश्चिमी देश मानते थे कि हरित क्रांति से अनाज का उत्पादन कितना भी बढ़ जाए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती आबादी के लिए वह नाकाफी ही होगा. उनका यह भी मानना था कि भारत को अनाज के रूप में मदद भेजना समंदर में रेत फेंकने जैसा है जिसका कोई फायदा नहीं. ऐसा सिर्फ अनाज ही नहीं, बाकी संसाधनों के बारे में भी माना जाता था.
अपनी किताब द संजय स्टोरी में पत्रकार विनोद मेहता लिखते हैं, ‘अगर संजय आबादी की इस रफ्तार पर जरा भी लगाम लगाने में सफल हो जाते तो यह एक असाधारण उपलब्धि होती. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा होती.’ यही वजह है कि आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करवाना संजय गांधी का अहम लक्ष्य बन गया. इस दौरान उन्होंने देश को दुरुस्त करने के अपने अभियान के तहत सौंदर्यीकरण सहित कई और काम भी किए, लेकिन अपनी राजनीति का सबसे बड़ा दांव उन्होंने इसी मुद्दे पर खेला. उन्हें उम्मीद थी कि जहां दूसरे नाकामयाब हो गए हैं वहां वे बाजी मार ले जाएंगे.
25 जून 1975 से पहले भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इस बात का दबाव बढ़ने लगा था कि भारत नसबंदी कार्यक्रम को लेकर तेजी दिखाए. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और एड इंडिया कसॉर्टियम जैसे संस्थानों के जरिये अपनी बात रखने वाले विकसित देश यह संदेश दे रहे थे कि भारत इस मोर्चे पर 1947 से काफी कीमती समय बर्बाद कर चुका है और इसलिए उसे बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के लिए यह कार्यक्रम युद्धस्तर पर शुरू करना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते भारत में काफी समय से जनसंख्या नियंत्रण की कई कवायदें चल भी रही थीं. गर्भनिरोधक गोलियों सहित कई तरीके अपनाए जा रहे थे, लेकिन इनसे कोई खास सफलता नहीं मिलती दिख रही थी.
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते भारत में काफी समय से जनसंख्या नियंत्रण की कई कवायदें चल भी रही थीं, लेकिन उनसे कोई खास सफलता मिलती नहीं दिख रही थी
आपातकाल शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों का गुट और भी जोरशोर से नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की वकालत करने लगा. इंदिरा गांधी ने यह बात मान ली. जानकारों के मुताबिक यह उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि वे खुद कुछ ऐसा करना चाह रही थीं जिससे लोगों का ध्यान उस अदालती मामले से भटकाया जा सके जो उनकी किरकिरी और नतीजतन आपातकाल की वजह बना. उन्होंने संजय गांधी को नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी सौंप दी जो मानो इसका इंतजार ही कर रहे थे.
इसके बाद कुछ महीनों तक इतने बड़े कार्यक्रम के लिए कामचलाऊ व्यवस्था खड़ी करने का काम हुआ. संजय गांधी ने फैसला किया कि यह काम देश की राजधानी दिल्ली से शुरू होना चाहिए और वह भी पुरानी दिल्ली से जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है. उन दिनों भी नसबंदी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां थीं. मुस्लिम समुदाय के बीच तो यह भी धारणा थी कि यह उसकी आबादी घटाने की साजिश है. संजय गांधी का मानना था कि अगर वे इस समुदाय के बीच नसबंदी कार्यक्रम को सफल बना पाए तो देश भर में एक कड़ा संदेश जाएगा. यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश ताकत का इस्तेमाल करते हुए यह अभियान शुरू कर दिया. अधिकारियों को महीने के हिसाब से टारगेट दिए गए और उनकी रोज समीक्षा होने लगी.
होना यह चाहिए था कि इतना बड़ा अभियान छेड़े जाने से पहले लोगों में इसको लेकर जागरूकता फैलाई जाती. जानकार मानते हैं कि इसे युद्धस्तर की बजाय धीरे-धीरे और जागरूकता के साथ आगे बढ़ाया जाता तो देश के लिए इसके परिणाम क्रांतिकारी हो सकते थे. लेकिन जल्द से जल्द नतीजे चाहने वाले संजय गांधी की अगुवाई में यह अभियान ऐसे चला कि देश भर में लोग कांग्रेस से और भी ज्यादा नाराज हो गए. माना जाता है कि संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम से उपजी नाराजगी की 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में सबसे अहम भूमिका रही.

संजय गांधी के इंदिरा गांधी को थप्पड़ मारने के पीछे की कहानी

इस थप्पड़ की खबर देने वाले पत्रकार लुईस एम सिमंस इसके पीछे की कहानी और इस पर इंदिरा और राजीव गांधी की प्रतिक्रिया के बारे में बता रहे हैं

जब आपातकाल की घोषणा हुई तो पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार लुईस एम सिमंस द वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता के रूप में दिल्ली मे तैनात थे. उन्हीं दिनों अमेरिका के इस प्रतिष्ठित अखबार में सिमंस की यह खबर छपी कि एक डिनर पार्टी के दौरान संजय गांधी ने अपनी मां और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कई थप्पड़ मारे. स्क्रोलडॉटइन को ईमेल पर दिए एक साक्षात्कार में सिमंस याद करते हैं कि उन्हें यह खबर कैसे मिली और जब आपातकाल हटने के बाद वे सोनिया, राजीव और इंदिरा गांधी से मिले तो इसपर उनकी प्रतिक्रिया क्या थी. इस साक्षात्कार के संपादित अंश :
द वाशिंगटन पोस्ट में आपकी एक खबर छपी थी जिसमें एक सूत्र ने दावा किया था कि एक डिनर पार्टी के दौरान संजय गांधी ने अपनी मां इंदिरा गांधी को छह बार थप्पड़ मारे. यह घटना आपातकाल का ऐलान होने के कितने दिन बाद हुई थी और संजय ने ऐसा क्यों किया था? 
थप्पड़ वाली घटना आपातकाल लगने से पहले एक निजी डिनर पार्टी में हुई थी. मैंने तुरंत इसके बारे में नहीं लिखा जैसा कि अमूमन पत्रकार किया करते हैं. मैंने इस खबर को बाद के लिए बचा लिया. अब तो मुझे याद भी नहीं कि क्या मेरे पास ऐसी कोई जानकारी थी कि संजय ने ऐसा क्यों किया.
इस बात को 40 साल हो गए हैं. क्या जिन लोगों से आपको यह जानकारी मिली उन्होंने इस घटना के बारे में बताने के लिए ही आपसे संपर्क किया था या फिर किसी सामान्य बातचीत के दौरान इस घटना का जिक्र हुआ?
दूसरी वाली बात सही है. दरअसल मेरे दो सूत्र थे. ये दो लोग थे जो एक दूसरे को जानते थे और जो इस पार्टी में मौजूद थे. इनमें से एक सज्जन आपातकाल से एक दिन पहले मेरे घर पर थे और उन्होंने मुझसे और मेरी पत्नी से हुई बातचीत में यह किस्सा सुनाया. दूसरे सूत्र ने इसकी पुष्टि की. बात संजय और उनकी मां के रिश्ते पर हो रही थी और उसी दौरान यह बात भी निकल आई.
वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने अपनी एक हालिया किताब द इमरजेंसी : अ पर्सनल हिस्ट्री में लिखा है कि यह खबर जंगल में आग की तरह फैली थी. सेंसरशिप की वजह से किसी भारतीय अखबार ने इस खबर पर कुछ नहीं लिखा था. इसे देखते हुए खबर के इस कदर असर से क्या आपको हैरानी हुई थी?
मुझे हैरानी नहीं हुई थी क्योंकि मैं जानता हूं कि भारतीयों को चटखारे लेना खूब पसंद है. इस खबर को दूसरे विदेशी मीडिया समूहों ने भी खूब चलाया. न्यूयॉर्कर मैगजीन ने इस पर प्रतिष्ठित पत्रकार वेद मेहता का एक लेख भी छापा था.
कपूर का कहना है कि इस खबर की सच्चाई पर संदेह है. शायद इसकी वजह यह हो कि सूत्रों का नाम जाहिर नहीं किया गया था और किसी ने सार्वजनिक रूप से इस खबर की पुष्टि नहीं की. क्या आपके हिसाब से ये सूत्र विश्वसनीय थे? क्या उस डिनर पार्टी में मौजूद किसी और शख्स ने भी इस खबर की आपसे पुष्टि की? क्या आपको कभी यह खबर लिखने का अफसोस हुआ?
सूत्रों की विश्वसनीयता बेदाग थी और है. मैंने किसी और मेहमान का साक्षात्कार नहीं लिया. और जहां तक अफसोस की बात है तो इस खबर को लिखने का मुझे कोई अफसोस न था और न है. मुझे लगता है कि इसने एक ऐसे वक्त में मां और बेटे के बीच के अजीब रिश्ते पर रोशनी डाली जब यह रिश्ता भारत के लोगों पर एक बड़ा असर डाल रहा था.
क्या आप आपातकाल हटने और 1977 में इंदिरा गांधी के सत्ता से बाहर होने के बाद भी अपने सूत्रों से मिले. अगर हां तो उनसे हुई बातचीत कैसी थी? 
मैं उनसे आपातकाल के पहले, इसके दौरान और बाद में बहुत बार उनसे मिला.
क्या ये सूत्र अब भी हैं? 
हां.
आपको थप्पड़ वाली इस घटना की खबर लिखने के चलते देश छोड़ने को कहा गया था. क्या आपको अंदेशा था कि ऐसा होगा? 
मुझे देश छोड़ने के लिए कहा नहीं गया था बल्कि आदेश दिया गया था. मुझे पांच घंटे का नोटिस मिला था. और इसकी वजह थप्पड़ वाली खबर नहीं थी क्योंकि तब तक मैंने इसे लिखा ही नहीं था. इसकी वजह एक दूसरी खबर थी जिसमें भारतीय सेना के कई अधिकारियों ने मुझे बताया था कि कैसे उन्हें आपातकाल लगाने का फैसला और इस तक पहुंचने के दौरान इंदिरा गांधी का व्यवहार ठीक नहीं लगा था. मुझे बिना नोटिस के गिरफ्तार कर लिया गया था. बंदूकें लिए पुलिस मेरे घर आई थी और मुझे इमिग्रेशन दफ्तर ले जाया गया था.
वहां एक अधिकारी था जिससे मैं बीते कई साल के दौरान मिलता रहा था. इस अधिकारी ने मुझे बताया कि दिल्ली से निकलने वाली पहली फ्लाइट से मुझे रवाना कर दिया जाएगा. जब मैंने उससे वजह पूछी तो उसने पहले दोनों हाथ अपनी आंखों पर रखे, फिर कानों पर और आखिर में मुंह पर. पांच घंटे बाद मुझे अमेरिका दूतावास का एक अधिकारी एयरपोर्ट ले गया. वहां एक कस्टम अधिकारी ने करीब दर्जन भर नोटबुक्स जब्त कर लीं. इन्हें कई महीने बाद लौटाया गया. इनमें जहां-जहां भी किसी का नाम लिखा हुआ था उसके नीचे एक लाल लकीर खींच दी गई थी. बाद में मुझे पता चला कि इनमें से कई लोगों को जेल भेज दिया गया था. इस अनुभव से मुझे सबक मिला कि जब आप कोई संवेदनशील खबर कर रहे हो तो नाम कभी मत लिखो. मुझे बैंकाक जाने वाली एक फ्लाइट में बिठा दिया गया. वहीं होटल के एक कमरे में मैंने थप्पड़ वाली घटना के बारे में लिखा.
क्या आप श्रीमती गांधी या संजय गांधी या फिर गांधी परिवार के किसी और सदस्य से कभी मिले? उन्हें मिलकर आपको क्या लगा? 
आपातकाल के बाद मैं श्रीमती गांधी से मिला था जब वे सत्ता से बाहर हो गई थीं. मोरारजी देसाई सरकार ने मुझे वापस बुलाया था. मेरे कुछ समय बाद एक ब्रिटिश पत्रकार को भी भारत से निकाल दिया गया था. जब मैंने श्रीमती गांधी का साक्षात्कार लिया तो यह पत्रकार भी वहां मौजूद था. हमने उनसे पूछा कि उन्होंने हमें निष्कासित क्यों करवाया था. उन्होंने जवाब दिया कि इसमें उनका कोई हाथ नहीं था. मैंने उनसे थप्पड़ वाली घटना के बारे में नहीं पूछा. मुझे लगता है कि मैं हिम्मत नहीं कर पाया. आपातकाल के बाद मैं एक निजी डिनर पार्टी में गया था. वहां राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया भी आए हुए थे. एक दर्जन मेहमान और थे. इस दौरान किसी टेबल पर मौजूद शख्स ने सबके बीच ऐलान किया कि मैं ही वह पत्रकार हूं जिसने वह थप्पड़ वाली खबर लिखी थी. राजीव ने अपना सिर हिलाया और मुस्करा दिए. सामने बैठे राजीव से मैंने पूछा, ठीक है? उन्होंने सिर हिलाया और फिर मुस्कराए. उन्होंने कहा कुछ नहीं. सोनिया गुस्से में लग रही थीं. उन्होंने भी कुछ नहीं कहा. संजय गांधी से मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई.

फ़िरोज गांधी को आप भूल तो नहीं गए हैं? @रेहान फ़ज़ल

आज अगर लोगों के सामने फ़िरोज़ गांधी का ज़िक्र किया जाए तो ज़्यादातर लोगों के मुंह से यही निकलेगा- 'फ़िरोज़ गाँधी कौन?'
बहुत कम लोग फ़िर इस बात को याद कर पाएंगे कि फ़िरोज़ गांधी न सिर्फ़ जवाहरलाल नेहरू के दामाद, इंदिरा गांधी के पति और राजीव और संजय गाँधी के पिता थे.
फ़िरोज़ - द फ़ॉरगॉटेन गाँधी के लेखक बर्टिल फ़ाल्क, जो इस समय दक्षिणी स्वीडन के एक गाँव में रह रहे हैं, बताते हैं, "जब मैंने 1977 में इंदिरा गांधी का इंटरव्यू किया तो मैंने देखा उनके दो पुत्र और एक पौत्र और पौत्री थे. मैंने अपने आप से पूछा, 'इनका पति और इनके बच्चों का बाप कहाँ हैं?"
जब मैंने लोगों से ये सवाल किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि उनका नाम फ़िरोज़ था, और उनकी कोई ख़ास भूमिका नहीं थी. लेकिन जब मैंने और खोज की जो मुझे पता चला कि वो न सिर्फ़ भारतीय संसद के एक अहम सदस्य थे, बल्कि उन्होंने भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने का बीड़ा उठाया था.

मेरे विचार से उनको बहुत अनुचित तरीके से इतिहास के हाशिए में ढ़केल दिया गया था. इस जीवनी के लिखने का एक कारण और था कि कोई दूसरा ऐसा नहीं कर रहा था.

दुनिया में ऐसा कौन सा शख़्स होगा जिसका ससुर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का पहला प्रधानमंत्री हो और बाद में उसकी पत्नी और उसका पुत्र भी इस देश का प्रधानमंत्री बना हो.
नेहरू परिवार पर नज़दीकी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, "इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले 1960 में फ़िरोज का निधन हो गया और वो एक तरह से गुमनामी में चले गए. लोकतंत्र में ऐसे बहुत कम शख़्स होंगे जो खुद एक सांसद हों, जिनके ससुर देश के प्रधानमंत्री बने, जिनकी पत्नी देश की प्रधानमत्री बनीं और उनका बेटा भी प्रधानमंत्री बना."
"इसके अलावा उनके परिवार से जुड़ी हुई मेनका गाँधी केंद्रीय मंत्री हैं, वरुण गाँधी सांसद हैं और राहुल गाँधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं. इन सबने लोकतंत्र में इतनी बड़ी लोकप्रियता पाई. तानाशाही और बादशाहत में तो ऐसा होता है लेकिन लोकतंत्र में जहाँ जनता लोगों को चुनती हो, ऐसा बहुत कम होता है. जिस नेहरू गांधी डाएनेस्टी की बात की जाती है, उसमें फ़िरोज़ का बहुत बड़ा योगदान था, जिसका कोई ज़िक्र नहीं होता और जिस पर कोई किताबें या लेख नहीं लिखे जाते."
फ़िरोज़ गांधी का आनंद भवन में प्रवेश इंदिरा गांधी की माँ कमला नेहरू के ज़रिए हुआ था. एक बार कमला नेहरू इलाहाबाद के गवर्नमेंट कालेज में धरने पर बैठी हुई थीं. बर्टिल फ़ाक बताते हैं, "जब कमला ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ नारे लगा रही थीं, तो फ़िरोज़ गाँधी कालेज की दीवार पर बैठ कर ये नज़ारा देख रहे थे. वो बहुत गर्म दिन था. अचानक कमला नेहरू बेहोश हो गईं."

"फ़िरोज़ दीवार से नीचे कूदे और कमला के पास दौड़ कर पहुंच गए. सब छात्र कमला को उठा कर एक पेड़ के नीचे ले गए. पानी मंगवाया गया और कमला के सिर पर गीला कपड़ा रखा गया. कोई दौड़ कर एक पंखा ले आया और फ़िरोज़ उनके चेहरे पर पंखा करने लगे. जब कमला को होश आया, तो वो सब कमला को ले कर आनंद भवन गए. इसके बाद कमला नेहरू जहाँ जाती, फ़िरोज़ गांधी उनके साथ ज़रूर जाते."
इसकी वजह से फ़िरोज़ और कमला के बारे में अफ़वाहें फैलने लगीं. कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा दिए. जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा.
किदवई ने इस पूरे प्रकरण को पूरी तरह से बेबुनियाद पाया. बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि एक बार स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी ने उन्हें एक रोचक किस्सा सुनाया था. "तीस के दशक में मीनू मसानी आनंद भवन में मेहमान थे. वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके प्रेम में पड़ सकता हूँ. इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया."

बहरहाल फ़िरोज़ का नेहरू परिवार के साथ उठना बैठना इतना बढ़ गया कि ये बात उनकी माँ रतिमाई गांधी को बुरी लगने लगी. बर्टिल फ़ाक बताते हैं कि जब महात्मा गाँधी मोतीलाल नेहरू के अंतिम संस्कार में भाग लेने इलाहाबाद आए तो रतीमाई उनके पास गईं और उनसे गुजराती में बोलीं कि वो फ़िरोज़ को समझाएं कि वो ख़तरनाक कामों में हिस्सा न ले कर अपना जीवन बरबाद न करें. गांधी ने उनको जवाब दिया, "बहन अगर मेरे पास फ़िरोज़ जैसे सात लड़के हो जाए तो मैं सात दिनों में भारत को स्वराज दिला सकता हूँ."
1942 में तमाम विरोध के बावजूद इंदिरा और फ़िरोज़ का विवाह हुआ. लेकिन साल भर के अंदर ही दोनों के बीच मतभेद होने शुरू हो गए. इंदिरा गाँधी ने फ़िरोज़ के बजाए अपने अपने पिता के साथ रहना शुरू कर दिया.. इस बीच फ़िरोज़ का नाम कई महिलाओं के साथ जोड़ा जाने लगा.
रशीद किदवई बताते हैं, "इसमें उनके एकाकीपन की भूमिका ज़रूर रही होगी, क्योंकि इंदिरा गांधी दिल्ली में रहती थीं, फ़िरोज़ लखनऊ में रहते थे. दोनों के बीच एक आदर्श पति पत्नी का संबंध कभी नहीं पनप पाया. फ़िरोज़ गांधी स्मार्ट थे. बोलते बहुत अच्छा थे. उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा था. इसलिए महिलाएं उनकी तरफ़ खिंची चली आती थी. नेहरू परिवार की भी एक लड़की के साथ जो नेशनल हेरल्ड में काम करती थी, उनके संबंधों की अफवाह उड़ी."

"उसके बाद उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ मुस्लिम मंत्री की बेटी के साथ भी फ़िरोज़ गांधी का नाम जुड़ा. नेहरू इससे बहुत विचलित हो गए. उन्होंने केंद्र में मंत्री रफ़ी अहमद किदवई को लखनऊ भेजा. रफ़ी अहमद किदवई ने उन मंत्री, उनकी बेटी और फ़िरोज़ को बहुत समझाया, ऐसा भी सुनने में आया है कि उस समय फ़िरोज़ गांधी इंदिरा गाँधी से अलग होकर उस लड़की से शादी भी करने को तैयार थे. लेकिन वो तमाम मामला बहुत मुश्किल से सुलझाया गया."
"लेकिन फ़िरोज़ गाँधी के दोस्तों का कहना है कि फ़िरोज़ गाँधी इन सब मामलों में बहुत गंभीर नहीं थे. वो एक मनमौजी किस्म के आदमी थे. उन्हें लड़कियों से बात करना अच्छा लगता था. नेहरू कैबिनेट में एक मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा से भी फ़िरोज़ गांधी की काफ़ी नज़दीकियाँ थीं."
"तारकेश्वरी सिन्हा का खुद का कहना था कि अगर दो मर्द अगर चाय काफ़ी पीने जाएं और साथ खाना खाएं तो समाज को कोई आपत्ति नहीं होती. लेकिन अगर एक महिला और पुरुष साथ भोजन करें तो लोग तरह तरह की टिप्पणियाँ करते हैं. उनका कहना था कि लोग हमेशा महिला और पुरुष की दोस्ती को शकोशुबहे की नज़र से देखते हैं."
बर्टिल फ़ाक का कहना है कि फ़िरोज के दोस्त सैयद जाफ़र ने उन्हें बताया था कि फ़िरोज़ अपने अफ़ेयर्स को जितना छिपाने की कोशिश करते थे, उतना ही वो बाहर आ जाते थे. एक बार सैयद जाफ़र उनके घर गए तो उन्होंने देखा कि वहाँ आम की एक पेटी रखी हुई है. उन्होंने कहा मुझे भी कुछ आम खिलाइए. फ़िरोज़ का जवाब था, नहीं ये पंतजी के लिए है.

बर्टिल फ़ाक बताते हैं, "उसी शाम फ़िरोज़ अपनी एक महिला मित्र के यहाँ गए. संयोग से सैयद जाफ़र भी वहाँ मौजूद थे. वहाँ पर वही आम की पेटी रखी हुई थी. जाफ़र ने कहा, पेटी तो गोविंदवल्लभ पंत के यहाँ भेजी जानी थी. ये यहाँ कैसे है? फ़िरोज़ बोले, चुप भी रहो. इस बारे में बात मत करो."
इस बीच इंदिरा गाँधी कांग्रेस की अध्यक्ष बन गईं और उनकी पहल पर केरल में नंबूदरीपाद की सरकार बर्ख़्वास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. इस मुद्दे पर इंदिरा और फ़िरोज़ के बीच गहरे राजनीतिक मतभेद भी पैदा हो गए.
कुछ साल पहले मशहूर पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने बीबीसी से बात करते हुआ कहा था, "1959 में जब इंदिरा ने केरल में कम्यूनिस्ट सरकार को ग़ैरसंवैधानिक तरीके से गिराया तो मियाँ बीवी में ज़बरदस्त झगड़ा हुआ. उस शाम को फ़िरोज़ मुझसे मिले. उन्होंने कहा कि इससे पहले कि लोग तुम्हें बताएं, मैं तुम्हें बताता हूँ कि हमारे बीच तेज़ झगड़ा हुआ है और आज के बाद मैं कभी प्रधानमंत्री के घर पर नहीं जाउंगा. उसके बाद वो वहाँ कभी नहीं गए. जब उनकी मौत हुई तब ही उनके पार्थिव शरीर को तीन मूर्ति ले जाया गया."
इस बीच फ़िरोज़ गांधी अपने भाषणों से सबका ध्यान खींच रहे थे. मूंदड़ा कांड पर उन्होंने अपने ही ससुर की सरकार पर इतना ज़बरदस्त हमला बोला कि नेहरू के बहुत करीबी, तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
ये कहा जाने लगा कि कांग्रेस में रहते हुए भी फ़िरोज़ विपक्ष के अनऑफ़िशियल नेता हैं. फ़िरोज़ के नज़दीक रहे ओंकारनाथ भार्गव याद करते हैं, "मुझे अच्छी तरह याद है फ़िरोज़ के निधन के बाद मैं संसद भवन गया था. वहाँ के सेंट्रल हाल में एक लॉबी थी जो फ़िरोज़ गाँधी कार्नर कहलाता था. वहाँ फ़िरोज़ गांधी और दूसरे सांसद बैठ कर बहस की रणनीति बनाते थे. आज की तरह नहीं कि बात- बात पर शोर मचाना शुरू कर दिया."

"फ़िरोज़ गाँधी का सबसे बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने संसदीय बहस के स्तर को बहुत ऊँचा किया है. मैं बर्टिल फ़ाक के इस कथन से सहमत नहीं हूँ कि फ़िरोज़ गांधी को भुला दिया गया है. जैसे- जैसे भारतीय प्रजातंत्र परिपक्व होगा, फ़िरोज़ गांधी को बेहतरीन संसदीय परंपराएं शुरू करने के लिए याद किया जाने लगेगा."
फ़िरोज़ को हर चीज़ की गहराई में जाना पसंद था. 1952 में वो रायबरेली से बहुत बड़े अंतर से जीत कर लोकसभा पहुंचे थे. 1957 के चुनाव के दौरान उन्हें पता चला कि उनके पुराने प्रतिद्वंदी नंद किशोर नाई के पास चुनाव में ज़मानत भरने के लिए भी पैसे नहीं हैं. उन्होंने नंदकिशोर को बुला कर उन्हें अपनी जेब से ज़मानत के पैसे दिए.
ओंकारनाथ भार्गव बताते हैं, "वो हमारे सांसद तो थे ही. सोने पर सुहागा ये था कि उनका संबंध जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी से था. वो अपने क्षेत्र में बराबर घूमते थे. कहीं लाई चना खा लेते थे. कहीं चाट खाते थे. कहीं किसी की चारपाई पर जा कर बैठ जाते थे. इससे ज़्यादा सादा शख़्स कौन हो सकता है."
कहा जाता है कि राजीव गांधी और संजय गांधी में वैज्ञानिक सोच पैदा करने में फ़िरोज़ गाँधी का बहुत बड़ा योगदान था.

रशीद किदवई बताते हैं, 'फ़िरोज़ गाँधी एक अलग किस्म के बाप थे.. उन्हें बच्चों को खिलौने देने में यकीन नहीं था. अगर कोई उन्हें तोहफ़े में खिलौने दे भी देता था, तो वो कहते थे कि इन्हें तोड़ कर फिर से जोड़ो. राजीव और संजय दोनों का जो टैक्निकल बेंड ऑफ़ माइंड था, वो फ़िरोज़ गाँधी की ही देन था. संजय ने बाद में जो मारुति कार बनाने की पहल की, उसके पीछे कहीं न कहीं फ़िरोज़ गाँधी की भी भूमिका थी."
फ़िरोज़ बागबानी और बढ़ई का काम करने के भी शौकीन थे. उन्होंने ही इंदिरा गाँधी को शियेटर और पश्चिमी संगीत का चस्का लगाया था.
बर्टिल फ़ाक बताते हैं, "उन्होंने इंदिरा गाँधी को बीतोवन सुनना सिखाया. लंदन प्रवास के दौरान वो इंदिरा और शाँता गाँधी को ऑपेरा और नाटक दिखाने ले जाया करते थे. बाद में इंदिरा गांधी ने लिखा, मेरे पिता ने कविता के प्रति मेरे मन में प्यार पैदा किया, लेकिन संगीत के लिए मेरे मन में प्रेम फ़िरोज़ की वजह से जगा.

एक बार डॉम मोरेस ने इंदिरा गांधी से पूछा था-आपको सबसे ज़्यादा तकलीफ़ किसकी मौत से हुई. इंदिरा का जवाब था, "मेरे पति फ़िरोज़ क्योंकि वो अचानक इस दुनिया से चले गए थे. उनके शब्द थे- मैं शायद फ़िरोज़ को पसंद नहीं करती थी, लेकिन मैं उन्हें प्यार करती थी."