Wednesday, 31 May 2017

चंपारण में इस तरह भी देखे गए गांधी @रामचंद्र गुहा

गांधी की सक्रियता को लेकर जब बहुत से लोगों के मन में गुस्सा था, तब कई यूरोपीय उन्हें आदर्शवादी, कट्टर और क्रांतिकारी मान रहे थे। 
पिछले आलेख में मैंने 1917 की गरमियों में गांधीजी का चंपारण प्रवास और वहां उनको हुए अनुभवों के संदर्भ में उनकी व्याख्या की थी। इस बार चर्चा उन लोगों की, जो गांधी के प्रयासों व उनकी दृढ़ता के विरोधी थे। यह दिखाता है कि चंपारण के अंग्रेजों ने अपने जीवन में अचानक आए इस ‘अवांछित घुसपैठिए’ को किस तरह देखा-समझा।
चंपारण में गांधी से नाराज रहने वाले यूरोपियंस में सबसे ज्यादा नील बागानों के मालिक थे। गांधी के चंपारण प्रवास से सबसे ज्यादा नुकसान भी उन्हीं को हुआ। इनमें ज्यादातर वकीलों, सैन्य अफसरों और पादरियों के बेटे हुआ करते थे। भारतीय प्रशासनिक सेवा के लोगों के सामने इनकी हैसियत भले ही कुछ न रही हो, पर रहन-सहन के मामले में इनका रुतबा गजब का था। नील बागान के मैनेजर वेतन के अलावा फैक्ट्री के मुनाफे में भी हिस्सा पाते थे। तेल, ईंधन फ्री मिलता था। अनाज और सब्जियां तक नहीं खरीदनी पड़ती थीं। सब पर रुतबा गांठते थे सो अलग।
19वीं सदी के उत्तरार्ध में जब जर्मनी सिंथेटिक डाई बनाने लगा, तो उसका असर यहां से प्राकृतिक नील की मांग पर पड़ा। लेकिन 1914 में जब ब्रिटेन व जर्मनी के बीच युद्ध छिड़ा और दोनों के बीच आर्थिक संबंध पूरी तरह खत्म हो गए, तो बिहार के नील की फिर से मांग होने लगी। इसका उत्पादन तेजी से बढ़ाना पड़ा और दाम तीन गुना से भी ज्यादा चढ़ गए। हाल यह हुआ कि 1914 में जिस नील की खेती 8,100 एकड़ में सिमट गई थी, दो साल बाद ही वह 21,900 एकड़ तक पहुंच गई।
अप्रैल 1917 में गांधी के चंपारण आगमन के साथ ही सवाल उठने लगा कि नील के बूते रईसी गांठने वालों के दिन अब लदने वाले हैं, क्योंकि गांधी जी नील की खेती के लिए किसानों पर जोर-जबर्दस्ती के खिलाफ थे। उनके चंपारण आने के चंद दिनों के अंदर ही बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन ने कमिश्नर को चिट्ठी लिखकर अपने गुस्से का इजहार भी कर दिया। यूरोपीय डिफेंस एसोसिएशन की स्थानीय शाखा ने तो प्रस्ताव पारित कर दिया कि जिले में गांधी की मौजूदगी का मतलब ‘अशांति और अपराध’ है और ‘क्षेत्र में उनकी लगातार मौजूदगी चंपारण की प्रगति में बाधक है।’उन दिनों इलाके का सबसे बड़ा बागान मालिक बेतिया राज हुआ करता था। इसके मैनेजर ने भी गांधी को खतरे की घंटी माना। दक्षिण अफ्रीका से विजयी भाव में लौटे गांधी यूं भी आशातीत आत्म-विश्वास से लबरेज थे। अंग्रेज बागान मालिक अब मानने लगे थे कि यह दुबला-पतला इंसान अपने विचारों के साथ किसी भी सीमा तक जा सकता है। वे मानते थे कि इसे शहीद भले बना दिया जाए, लेकिन आसानी से दबाया नहीं जा सकता है। चंपारण के बागान मालिकों में डब्ल्यू एस इर्विन गांधी के प्रति बुरी तरह पूर्वाग्रही थे। इर्विन बेतिया राज के मुखौटा अखबारों में लगातार लिख रहे थे कि यूरोपीय बागान मालिकों ने किस तरह अच्छे काम किए और यह भी कि ‘आंदोलनकारी गांधी’ के आने से पहले तक चंपारण के किसान कितने संतुष्ट थे। यहां तक लिख दिया कि ‘गांधी जिस तरह की नाटकीय प्रविधियों का सहारा ले रहे हैं, उससे उनके ‘चंपारण मिशन’ पर संदेह होता है।’ वह लिखते हैं कि, ‘इंग्लैंड और अन्य देशों में रह चुका यह इंसान जिस तरह चंपारण में न्यूनतम पाश्चात्य सुविधाओं के साथ सिर ढंकने और जूते पहनने का विरोधी है, जमीन पर बैठता है, भोजन खुद बनाता है, और 2000 साल पूर्व के परोपकारी व्यक्ति (बुद्ध) के नक्शेकदम पर चलने की बात करता है, उससे इस पर संदेह होता है।’
1917 के बाद वाले महीनों में गांधी जी की पत्नी कस्तूरबा भी चंपारण आ गईं। इर्विन इससे भी नाराज हो गए और स्टेट्समैन अखबार को नाराजगी भरा पत्र लिखा कि गांधी ने तो कमिश्नर से वायदा किया था कि वह सार्वजनिक गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे, लेकिन अब वह गो-वध और हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर लगातार विवादित भाषण देते फिर रहे हैं। इर्विन ने लिखा कि ‘जहां गांधी मौजूद नहीं होते, उनकी पत्नी मोर्चा संभालती हैं। इधर तो उन्होंने एक स्कूल और देहात क्षेत्र में एक बाजार भी शुरू करा दिया है, जिसका सीधा-सीधा मकसद फैक्ट्री द्वारा संचालित दो बाजारों को बंद कराना है।’गांधी जी ने भी स्टेट्समैन को जवाब लिखा, पर अपने रोचक अंदाज में। उन्होंने लिखा कि ‘उनके भाषणों का मकसद धार्मिक समुदायों के बीच भेदभाव कम करके सौहार्द बढ़ाना है। इस नेक काम के लिए उन्होंने बागान मालिकों का भी सहयोग मांगा था।’ कस्तूरबा का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘उनको तो पता भी नहीं है और शायद कभी चलेगा भी नहीं कि आपके संवाददाता ने उनके साथ कितना गलत किया है। यदि डब्ल्यू एस इर्विन को कस्तूरबा से मिला दिया जाए, तो उन्हें जल्द पता चल जाएगा कि श्रीमती गांधी कितनी सहज व सरल हैं। लगभग अशिक्षित, जिसे उन बाजारों के बारे में कुछ भी नहीं पता, जिनकी चर्चा इर्विन कर रहे हैं।’ गांधी आगे लिखते हैं, ‘श्रीमती गांधी (कस्तूरबा) तो अभी तक भाषण देने या अखबारों को चिट्ठी लिखने की कला सीख ही नहीं पाई हैं?
चंपारण के बागान मालिकों में गांधी के प्रति खूब जहर भरा था। हालांकि वे अफसर, जिनका गांधी से अक्सर साबका पड़ता, उन्हें समझने लगे थे। चंपारण आने के दो हफ्ते बाद ही बेतिया के उपायुक्त ने लिखा, बागान मालिकों ने गांधी को अपना स्वाभाविक दुश्मन मान लिया है, पर जब यूरोपीय लोग उन्हीं के फॉमरूले से गांधी को एक आदर्शवादी, विचारों के प्रति कट्टर या क्रांतिकारी मानने लगें’ और ‘रैयतों के लिए वह असाधारण शक्तियों वाला मुक्तिदाता’ बन जाएं, तो बात अलग हो जाती है।गांधी के चंपारण प्रवास में वहां के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने उन्हें बखूबी समझा था। डीएम गांधी व उनकी कार्यशैली से खासा प्रभावित रहा। उसे उनके दक्षिण अफ्रीका प्रवास की भी ठीक-ठाक जानकारी थी। उसने लिखा,‘गांधी पूर्व व पश्चिम का रोचक मिश्रण लगते हैं। वह टॉलस्टॉय और रस्किन, खासकर टॉलस्टॉय से ज्यादा प्रभावित हैं। इसके मेल से वह एक योगी का रूप धर लेते हैं। उनके विचार भले ही पूरब के हों, पर यह पश्चिम का असर ही है कि वह इतने बड़े सामाजिक सुधारक बनकर सामने आते हैं।’गांधी, उनके मिशन और उनकी कार्यपद्धति पर किसी पश्चिमी व्यक्ति का यह सटीक विश्लेषण था। इस अफसर को बहुत पहले ही भुला दिया गया, पर आज चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर उसकी याद जरूरी है। डब्ल्यू बी हेकॉक नाम के इस अफसर को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि यह गोरा इंसान अपनी जमात के क्रोधी, दंभी व अहंकारी लोगों से बिल्कुल अलग था।