Monday, 28 March 2016

भारत माता कहां रहती हैं? @रवि भूषण


यह सवाल किसी को भी बेतुका और अटपटा लग सकता है कि भारत माता कहां रहती हैं. पंत ने जब भारत माता को 'ग्रामवासिनी' कहा था, तो उन्होंने इसे किसानों से जोड़ा था. साल 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में अंगरेजों से जो सिपाही लड़े थे, वे किसानों के ही बेटे थे. भारत माता का बिंब उन्नीसवीं सदी में निर्मित हुआ.

कांग्रेस की स्थापना (1885) के पहले 1873 में किरनचंद्र बनर्जी के नाटक 'भारत माता' और 1883 में बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' में से उपस्थित हो चुकी थीं. मुसलिम लीग (1906) और आरएसएस (1925) का गठन बहुत बाद में हुआ. 'भारत माता की जय' का नारा स्वाधीनता-आंदोलन से जुड़ा है. आधुनिक भारतीय चित्रकला के जनक अवनींद्रनाथ ठाकुर ने 1905 में जो चित्र बनाया, उसका शीर्षक पहले 'बंग माता' था. बाद में उसे 'भारत माता' का शीर्षक दिया गया. उस चित्र में उनके चार हाथ-शिक्षा, दीक्षा, अन्न और वस्त्र हैं.

ब्रिटिश भारत में उनका 'आंचल' 'मैला' नहीं था. 1905 में ही कन्हैयालाल मुंशी ने अरविंद घोष से किसी के भी राष्ट्रभक्त होने के तरीकों के बारे में पूछा था. अरविंद ने उन्हें ब्रिटिश भारत का नक्शा दिखा कर उसे भारत माता का चित्र बताया था. हिंदू राष्ट्रवाद के पिताओं में से एक अरविंद घोष ने पर्वतों, नदियों, जंगल आदि को भारत माता का शरीर कहा था.

उनकी सभी संतानों को उन्होंने उस शरीर की तंत्रिका बताया था. जीवित मां के रूप में उसे वे देख रहे थे और उसकी पूजा करने को कह रहे थे. हमलावरों के खिलाफ 'भारत माता की जय' के नारे लगाये जाते थे. आज भारत पर किसने हमला किया है? हमलावर कौन है? कहां है? किस देश में है? भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी इससे जुड़े विवाद को 'व्यर्थ का विवाद' कह रहे हैं और व्यवसायी-संन्यासी रामदेव अनिवार्य रूप से इस नारे को लगाने के लिए कानून बनाने की सलाह दे रहे हैं.

भारत माता में भारत कहां है? उनकी संतानों ने उनकी रक्षा के लिए उसके 'मैला आंचल' को स्वच्छ करने के लिए क्या किया है? वे सिर्फ हिंदुओं की माता हैं या मुसलमान, सिख, ईसाई, जो भारतीय हैं, उनकी भी माता हैं? अंगरेजों से लड़ाई में सभी शामिल थे- दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, मुसलमानों, कंगालों, फटेहालों, बेरोजगारों, किसानों, मजदूरों, श्रमजीवियों के यहां वह भारत माता हैं या अंबानी-अडानी के यहां? दलितों में वे रामविलास पासवान और उदित राज के यहां हैं या मायावती के यहां? वे 'देशभक्तों' के यहां हैं या 'देशद्रोहियों' के यहां? वे जेएनयू में रह रही हैं या उन अनेक विश्वविद्यालयों में, जहां छात्र-छात्राएं शांत हैं? वे ईमानदारों के यहां हैं या भ्रष्टाचारियों के यहां? वे हत्यारों के साथ हैं या निर्दोषों के साथ? वे 'ग्रामवासिनी' हैं या 'नगरवासिनी'? क्या वे मात्र नक्शे में हैं? भारत का नक्शा बार-बार बदला है.

महाराष्ट्र में विधायक वारिस पठान, जिसने 'भारत माता की जय' नहीं कहा था, क्या उनका शत्रु है? भारत माता एक विशेष राजनीतिक दल से जोड़ दी गयी हैं या सभी राजनीतिक दल उनके अपने हैं? क्या भारत माता 'कांग्रेस मुक्त भारत' चाहती हैं? भारतीय संविधान में उनका कहीं जिक्र नहीं है. उनकी संतानें संविधान को मानें या उनकी जय-जयकार करनेवालों के साथ चलें. भारत माता की काल्पनिक छवि और वास्तविक छवि में अंतर है. वे नागपुर के साथ कानपुर में भी निवास करती हैं. भारत माता को 'धर्मतंत्रात्मक हिंदू राज्य का संकेत शब्द' (कोड वर्ड) बना दिया गया है. 'राष्ट्रवाद' के बाद अब 'भारत माता' को क्या एक हथियार के रूप में नहीं अपनाया जा रहा है? पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर की संतानें क्या उनकी संतानें नहीं हैं?

राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में केवल 'वंदे मातरम' और 'भारत माता की जय' के ही नारे नहीं लगते थे. आज जो भगत सिंह का नाम लेते हैं, उन्हें उन दो नारों को अवश्य गुंजाना चाहिए, जो भगत सिंह लगाते थे- 'इंकलाब जिंदाबाद' और 'साम्राज्यवाद का नाश हो'. अभी के 'राष्ट्रपेमी' ये नारे नहीं लगाते. नारों का अपने स्वार्थ में किया गया इस्तेमाल नारों के वास्तविक अर्थ को नष्ट करता है. चालाकी से लगाये गये नारे हमारी स्मृति से गौरवशाली कालखंड को नष्ट करते हैं, जिसे अपनी सांसों में उतार कर ही हम आगे बढ़ेंगे. किसी को भी किसी प्रकार का नारा लगाने को बाध्य नहीं किया जा सकता. भारत को 'हिंदू राष्ट्र' बनाने की किसी भी कोशिश के पक्ष में भारत माता कभी नहीं हो सकतीं. भारतीय संविधान सबसे ऊपर है, जिसमें भारतीय जन सर्वोपरि है. भारत माता का 'हिंदुत्व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल उनकी वास्तविक छवि के विरुद्ध है.

Tuesday, 15 March 2016

मुखर्जी के उथल-पुथल भरे दिन @शेखर गुप्ता


प्रणब मुखर्जी शायद हमारे सर्वाधिक सुविज्ञ यानी जानकार राजनेता हैं। खेद यह है कि कम से कम हम पत्रकारों के लिए वे सबसे सतर्क रहकर बोलने वाले लोगों में से हैं। उनसे बतियाने का मौका पाने वाले जानते हैं कि उन्होंने इंदिरा गांधी की एक तरह से पूजा की है और आज भी उनके प्रशंसक हैं। अचरज नहीं कि वे बड़ी खुशी से बतातेे हैं कि कैसे इंदिरा गांधी कहती थीं कि एक बार कोई बात प्रणब के पेट में चली जाए, तो फिर बाहर नहीं आती। सिर्फ उनके पाइप से धुआं निकलता है।

इसलिए यह बड़ी बात है कि उन्होंने संस्मरण प्रकाशित करने का फैसला लिया। वे 1980-96 की अवधि को उथल-पुथल भरे वर्ष बताते हैं। पहला खंड पिछले साल आया था, जिसमें इससे पहले के दौर का वर्णन था। इस बार उथल-पुथल भरे दौर का उनका वर्णन 1996 में पीवी नरसिंह राव के शासन के अंत के साथ खत्म होता है और यह उनके पाइप पीने के दिनों का भी अंत है। हालांकि, इससे बड़ी उथल-पुथल तो कांग्रेस ने इसके बाद देखी। 13 दिन की एनडीए सरकार, संयुक्त मोर्चा सरकार के दो अल्पावधि प्रधानमंत्री, सीताराम केसरी का दौर और फिर सोनिया गांधी का उत्थान। 1997-2013 के उस दौर के लिए आपको कुछ वर्ष और इंतजार करना होगा। एक ऐसे समाज में जहां सार्वजिनक शख्सियतों की ईमानदार जीवनियों पर स्याही के हमले होते हैं तथा पाबंदी लगती है, जहां ज्यादातर राजनेता लिखते नहीं या लिख नहीं सकते, आत्मकथा चाहे जितनी अधूरी क्यों न हो, मूल्यवान होती है। जिस दौर की बात की गई है, 1980-96, वह भी कोई कम उथल-पुथल भरा नहीं था। यह संजय गांधी की मौत के साथ शुरू हुआ, जिसने कांग्रेस की राजनीति और सत्ता के आंतरिक समीकरण नाटकीय रूप से बदल दिए। राजनीति में लाए गए राजीव, संजय की तुलना में जरा भी राजनीतिक तेवर वाले नहीं थे।

राजीव की बजाय संजय के साथ प्रणब के रिश्ते बहुत सहज थे। वे बहुत गर्मजोशी के साथ संजय के बारे में बताते हैं, लेकिन राजीव को लेकर सतर्कता और अनिश्चितता दिखाई देती है। प्रणब शक की कोई गुंजाइश नहीं रखते कि राजीव गांधी जो ‘गैर-राजनीतिक’ मित्र लेकर आए थे, उन पर उन्हें संदेह था। खासतौर पर अरुण नेहरू और विजय धर को लेकर। आप संजय के वफादार के रूप में देखे जाने वाले लोगों के प्रति राजीव का संदेह और प्रणब व कमलनाथ सहित पुरानी व्यवस्था के प्रति अधैर्य भी महसूस कर सकते थे। प्रणब बताते हैं कि कैसे आरके धवन को बाहर किया गया। उन्हें अपने कागजात समेटने का भी वक्त नहीं दिया गया। उन्हें बताया गया कि उनके कागजात पैक करके घर भेज दिए जाएंगे। प्रणब का दृष्टिकोण इससे पता चलता है कि वे खुद के लिए ‘आउटकास्ट’ (बहिष्कृत) शब्द का इस्तेमाल करते हैं। तब कमलापति त्रिपाठी और नरसिंह राव को छोड़कर कांग्रेस का कोई व्यक्ति उनसे रिश्ता नहीं रखना चाहता था। राव को वे स्नेह के साथ ‘पीवी’ लिखते हैं, जिससे उनके विशेष रिश्ते जाहिर होते हैं।

राजनीतिक साइबेरिया के वर्षों का वे जिस ईमानदारी के साथ वर्णन करते हैं वह बहुत ही प्रभावशाली है, फिर चाहे उसमें किस्सों की भरमार न भी हो। वे बताते हैं कि कैसे कैबिनेट, फिर कार्यसमिति और पार्टी संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिए जाने के बाद वे संसद के केंद्रीय हॉल में अकेले घूमते रहते थे। 1985 में मुंबई के कांग्रेस अधिवेशन में राजीव के ‘सत्ता के दलालों’ के हलचल मचाने वाले भाषण (जिसे प्रणब सहित कांग्रेस कार्यसमिति ने बहुत कुछ जोड़ने के बाद मंजूरी दी थी) के बाद उन्हें ही अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के ख्यात प्रस्ताव का समर्थन करने को कहा गया था। प्रणब ने अभी आधा भाषण भी नहीं दिया था कि लंच की घोषणा हो गई। फिर वहीं उन्हें कार्यसमति से निकाल दिया गया। अपनी परंपरावादिता को वे स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि हो सकता है कि आधुनिक व टेक्नोलॉजी प्रेमी राजीव ने इससे असहजता महसूूस करते हों। प्रणब लिखते हैं, राजीव विदेशी निवेश का स्वागत कर रहे थे, अर्थव्यवस्था खोलना चाहते थे, जबकि प्रणब की परंपरावादी मानसिकता सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति झुकाव रखती थी। प्रणब ने भोपाल को लेकर क्राइसिस ग्रुप की बैठक में राजीव को यूनियन कार्बाइड का राष्ट्रीयकरण न करने के लिए यह कहकर मनाया था कि चूंकि कार्बाइड बहुराष्ट्रीय कंपनी है तो इसे जनता पार्टी द्वारा कोकाकोला व आईबीएम को बाहर निकालने की तरह लिया जाएगा। यह भी कहा कि उनकी अभी कार्यवाहक सरकार है और उन्हें बड़े फैसले नहीं लेने चाहिए, जिसे उन्होंने मान लिया।

प्रणब बार-बार कहते हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके मन में अंतरिम प्रधानमंत्री बनने का विचार कभी नहीं आया, हालांकि कानाफूसी करने वालों ने राजीव के दिमाग में संदेह के बीज बोने के लिए ऐसा कहा होगा। वे कहते हैं कि सबसे पहले राजीव को शपथ दिलाने का सुझाव देने वालों में वे थे। हालांकि, संवैधानिकता के अहसास के चलते उन्होंने दो शर्ते रख दी थीं कि पहले कांग्रेस संसदीय बोर्ड राजीव को चुने और दूसरा, राष्ट्रपति जैल सिंह का इंतजार किया जाए, जो उस शाम राजधानी लौटने वाले थे। प्रणब लिखते हैं, ‘लेकिन राजीव के आसपास के दरबारियों को जल्दी पड़ी थी।’ प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव पीसी अलेक्जेंडर और राजीव के साथी अरुण नेहरू जैल सिंह का इंतजार किए बिना तत्काल शपथ विधि चाहते थे, क्योंकि (ब्ल्यू स्टार ऑपरेशन के बाद) गांधी परिवार से रिश्तों में तनाव के चलते वे जैल सिंह पर भरोसा नहीं करते थे। यदि जैल सिंह राजीव को नियुक्त करने से इनकार कर दें तो क्या होगा? प्रणब को भरोसा था कि जैल सिंह ऐसा कुछ नहीं करेंगे, इसलिए उन्होंने पूछा कि यदि इससे नाराज होकर वे उपराष्ट्रपति की नियुक्ति को मानने से इनकार कर दें तो क्या होगा, क्योंकि देश के भीतर ही यात्रा पर होने से उन्होंने उपराष्ट्रपति को यह अधिकार नहीं दिया था।

प्रणब की दलीलों से वह दिन निकल गया। कांग्रेस संसदीय बोर्ड ने राजीव का ‘चयन’ कर लिया, वह भी कांग्रेस संसदीय दल को बुलाए जाने के पूर्व। प्रणब ने वाकई साहसपूर्वक एक नौकरशाह मात्र (अलेक्जेंडर) के अधिकार और बाहरी व्यक्ति (अरुण नेहरू) द्वारा नए प्रधानमंत्री के चयन और उनकी नियुक्ति के तरीके पर सवाल उठाया (खासतौर पर तब जब उनके दो बच्चों ने कांग्रेस के भीतर ही अपना कॅरिअर चुना था)। किंतु वे सीधे इसकी आलोचना नहीं करते। सिर्फ इतना कहते हैं कि इस पर विद्वानों व विश्लेषकों को भविष्य में विचार करना चाहिए। यह कहना बहुत सरलीकरण होगा कि प्रणब आलोचना से बच रहे हैं। वे तो खास अपनी शैली में बात कह रहे हैं।